शुक्रवार, दिसंबर 30, 2011

नये साल की शुभकामनाएँ!

नये साल की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की यह कविता -

शुभकामनाएँ / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

नये साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की भेड़ों पर धूल-भरे पाँव को,
कुहरे में लिपटे उस छोटे-से गाँव को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

जाते के गीतों को, बैलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं के जाल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

इस पकती रोटी को, बच्चों के शोर को,
चौंके की गुनगुन को, चूल्हे की भोर को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

वीराने जंगल को, तारों को, रात को,
ठण्डी दो बन्दूकों में घर की बात को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को,
सिगरेट की लाशों पर फूलों-से ख्याल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को,
हर नन्ही याद को, हर छोटी भूल को,
नये साल की शुभकामनाएँ!

उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे,
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे,
नये साल की शुभकामनाएँ!

सोमवार, दिसंबर 26, 2011

जीवन



चलती है हवा
हिलते हैं पेड़
गिरते हैं सूखे पत्ते

बहती है हवा
झूमते हैं पेड़
कि झरते हैं पीले पत्ते।

रविवार, दिसंबर 18, 2011

अदम गोंडवी नहीं रहे

अदम गोंडवी

22 अक्तूबर 1947 - 18 दिसंबर 2011

अदम गोंडवी का निधन स्तब्ध कर गया। उनकी आवाज साम्प्रदायिकता और राजनीतिक छद्म को उजागर करती आवाज थी। उनकी गजलें क्रान्ति की पुकार करती ग़ज़लें थीं। हिन्दी ग़ज़ल को वर्तमान स्वरूप देने में उनका अप्रतिम योगदान रहा। अदम गोंडवी जी को विनम्र श्रद्धांजलि के साथ प्रस्तुत हैं उनकी तीन ग़ज़लें -

1

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धिखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.

2

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

3

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

गुरुवार, दिसंबर 15, 2011

एक हाशिया जो मुख्यभूमि है - मंगलेश डबराल (कवि का गद्य)

......कितना अच्छा होता कि मैं सचमुच एक कवि की तरह कोई कविता लिख सकता। कुछ शब्द इस तरह लिखे जैसे कोई नौकर लिखता है या कभी सड़क पार करते हुए बची हुई जान की तरह लिखा जिसे हर वक्त अपने सर पर एक गठरी का अहसास रहता है और बार-बार पलटकर अपना घर देखना चाहता है। कभी इस तरह लिखा जैसे अपने शरीर से विच्छिन्न कोई अकेला हाथ लिखता है या जैसे कोई पत्ता पेड़ से गिरने से पहले अपना रंग छोड़ता है। गनीमत यह है कि यह सब मैंने मनुष्य के रूप में ही लिखा और मनुष्य होने में कोई आत्मदया है और आत्महीनता। मैं यह भी जान सका कि कविता सिर्फ एक हाशिये की कार्रवाई रह गयी है, उसकी बहुत जरूरत नहीं महसूस की जाती और शायद कभी नहीं की जाती थी और कवि लोग इस व्यवस्था के नियंता नहीं नहीं हैं। हालांकि उन्हें उसका शिकार होने से भी हमेशा इनकार करना चाहिए और यह हाशिया ही हमारी मुख्यभूमि हमारा मोर्चा है क्योंकि यह हाशिया एक निरीह, लाचार, कलपती, रिरियाती जगह नहीं है। मेरे पूर्वज, संस्कृत के अनेक महाकवि और फिर रीतिकालीन लोग जो राज्याश्रयों में रहे, कविता के बदले स्वर्णमुद्राएँ पाते थे और उनका काफी समय सम्राटों की उदारता और वीरता के गुणगान में बीता। लेकिन तब भी उनकी रचनाओं में कहीं वह अंतद्र्वंद्व दर्ज है जो सत्ता प्रतिष्ठान और सच्चे रचनाकार के बीच हमेशा रहता है। सत्तातंत्र और रचना के उद्देश्य ही एक-दूसरे के विपरीत हैं.......
(आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित मंगलेश डबराल की पुस्तक ‘लेखक की रोटी’ से सादर, चित्र यहाँ से साभार)

मंगलवार, नवंबर 29, 2011

लड़की मत देखो आसमान : कांता सुधाकर

थोड़े समय पहले मेरी कान्ता भाभी से मुलाकात हुई--लगभग 30 -32 सालों बाद. मेरे शुरूआती साहित्यिक संस्कार जिन लोगों की देख रेख में बने और विकसित हुए हैं,कान्ता भाभी मेरे जीवन के उन विशिष्ट लोगों में एक हैं.अपने छात्र जीवन में एक नाटक में उनकी तलत महमूद सरीखी कांपती हुई मोहक आवाज सुन के मैं उन तक खिंचा चला गया था.इस बार की मुलाकात में उन्होंने अपनी किताब पढने को दी तो मैं रोमांचित हो गया....मुझे वो जमाना गया जब रसोई में काम करते हुए कभी किसी कागज पर तो कभी किसी कागजी थैले पर वो मन की बातें लिख दिया करती थी...
इस संग्रह से कुछ कवितायेँ मैं आपके पाठकों तक पहुंचाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ....उम्मीद है ये कवितायेँ आपको भी वैसे ही पसंद आयेंगी जैसे मुझे आयीं... पाठक उनसे संपर्क करना चाहें,मैं उनके लिए फोन नंबर दे रहा हूँ...9470101657
-यादवेन्द्र

सीख
लड़की
मत देखो आसमान
सितारे उतर आएँगे
आँखों में

लड़की
मत निहारो फूलों को
टँक जाएँगे बालों में।

पर्वतों के पार जो
उगा बड़ा-सा सूरज अभी-अभी
तुम्हारी हँसी देखने को
रुक जाएगा
ठहर जाएगा अब
इसी घाटी में।

लड़की
रुक जाओ
थम जाओ
किसी नदी का रुख
मुड़ न जाए कहीं
तुम्हारे गीतों से।

इसीलिए
रुक जाओ
थम जाओ
किसी नदी का रुख
मुड़ न जाए कहीं
तुम्हारे गीतों से।

इसीलिए
वापस हो जाओ
सुरक्षित रहो हमारी
निषेधों की दुनिया में।

क्योंकि
अच्छा हुआ
कि मैं सीता नहीं
तुम राम नहीं
केवल मनुष्य हैं हम।

अग्नि-परीक्षा
लेते नहीं
देते नहीं
क्योंकि हमें
एक-दूसरे से प्यार है बहुत,

क्योंकि हमें
एक-दूसरे से प्यार है बहुत।

क्योंकि हमें
इतिहास बनने के लिए
नहीं करनी है कोई लीला।

अच्छा है
अच्छा है
बहुत अच्छा है,
कि बादल
कभी बिकता नहीं
किसी बाजार में।

अच्छा है
बहुत अच्छा है
कि हवा
कभी रुकती नहीं
किसी के लाॅन में।

अच्छा है,
बहुत अच्छा है,
कि झरना
कभी गिरता नहीं
किसी के फार्म मंे।

अच्छा है,
बहुत अच्छा है,
कि धूप
कभी टिकती नहीं
किसी परदेशी के प्लान में
अच्छा है,
बहुत अच्छा है,
कि
बादल,
हवा,
धूप,
झरना
कभी जाते नहीं
किसी के पर्सनल एकाउंट में,
नहीं तो
पता नहीं
कहाँ जाते
दुनिया के
बिन खाते के बाकी जीव।

शनिवार, नवंबर 26, 2011

पगडंडियाँ बनाता प्रेम : चार कविताएँ

प्रेम
एक शरारती
जंगली खरगोश
अपनी झलक-भर दिखाकर
छिप जाता
खो जाता - अन्तर्बाह्य के विस्तारों में
एक चाह कि छू लें उसे।

बना लेना चाहते हैं
उसकी नर्म खाल के गर्म दस्ताने।
बरसों
वह थकाता
पर अन्ततः दबोच लिया जाता
सहलाया जाता - दोहराए जाते स्पर्श
बिना जाने, बिना देखे
उसका काला पड़ता हुआ रंग।


पगडंडियाँ बनाता प्रेम
पगडंडियाँ बनाता है प्रेम
पगडंडियाँ
जो पहुँचती हैं
नदी तक
नदी
जिसमें पगडंडियाँ नहीं होतीं।


बहुत दिनों बाद
पत्थरों का सीना चीरकर
अँकुरा आया है चीड़
तुम्हारी याद आयी।


तुम्हारी रोशनी में
आकाश का कुछ खो गया है
जिसे वह ढूँढ़ रहा है सदियों से
सूरज की रोशनी में

मैं तुम्हारी रोशनी में
ढूँढ़ता हूँ
अपना चेहरा।

रविवार, अक्तूबर 09, 2011

कुछ जापानी गद्य कविताएँ : अयाने कवाता ( प्रस्तुति : यादवेन्द्र)



एक नवजात के साथ

एक आदमी मेरा पीछा कर रहा है...उस से बचने के लिए मैं एक नवजात बच्चे से दोस्ती गांठ लेता हूँ.मेरा मकसद सिर्फ इतना है कि उस आदमी को लगे कि मैं इस नवजात बच्चे को प्यार कर रहा हूँ सो वो मेरा पीछा करना छोड़ कर कहीं कुछ और देखे.ताज्जुब, नवजात बच्चा सारे हालातों को बड़ी अच्छी तरह समझ रहा है.


बाँसुरी

मैंने हाथ में एक बाँसुरी पकड़ रखी है और बार बार इसको बजाने की कोशिश कर रहा हूँ...कोई आवाज नहीं निकल रही.अचानक मैं अपनी साँस अंदर खींचता हूँ तो मुझे लगता है जैसे चाँदी के वर्क का कोई टुकड़ा शायद मुँह के अंदर चला गया.मैं चक्कर में पड़ जाता हूँ: बाँसुरी के अंदर ऐसा क्या भरा हुआ है कि देखते देखते बाँस की बनी हुई पतली सी बाँसुरी सीप कि तरह से बीचों बीच आधी फट जाती है...और मुझे अंदर भरे हुए धातु के कबाड़ और घास फूस के बीज दिखाई देने लगते हैं.अब समझ में आता है कि बांसुरी इस लिए बजती है क्योंकि उसके अंदर इतना कुछ भरा रहता है...मैं अंदर से निकला एक एक तिनका वापस बाँसुरी के अंदर भर देता हूँ और एकबार फिर उसको बजाने की कोशिश करता हूँ...पर आवाज है कि बाँसुरी से निकलने का नाम नहीं लेती.


भागना

कोई मेरा पीछा कर रहा है इसी लिए मैं सरपट भाग रहा हूँ...पर समस्या यह नहीं है कि कोई मेरा पीछा कर रहा है , बल्कि मेरे भागने का ख़ास ढंग सारी फजीहत की जड़ है.


घोड़ा

वजह तो सही सही ध्यान नहीं पर मैंने एकबार एक घोड़ा ख़रीदा.तब मुझे यह भी मालूम नहीं था कि उस से काम कैसे लेना है.मुझे लगा कि यदि उसकी गर्दन में रस्सी डाली जाये तो घोड़े को तकलीफ होगी.मैंने एक बार मुँह में लगाम लगे एक घोड़े को देखा था,पर यही नहीं मालूम हो पाया कि मुँह पर लगाम होने पर घोड़ा खाता कैसे होगा...मुझे अब भी शक है कि भूख लगने पर इस हालात में घोड़ा घास खाता भी होगा.या यह भी मेरी जिज्ञासा थी कि घोड़े को किसी पेड़ के नीचे बांध दूँ तो बरसात होने पर वह भीग तो नहीं हो जायेगा...इस परिस्थिति में घोड़े पर क्या बीतेगी,और मेरा ऐसा करना ठीक होगा या नहीं.मुझे आस पास किसी अस्तबल का भी पता नहीं था.एक दिन अचानक क्या देखता हूँ कि घर से घोड़ा गायब हो गया...अब वह मेरी छोटी बहन बन कर उपस्थित हुआ.
वह रातों में नंगी घास पर लेटी रहती है और इसी में बीच बीच में नींद लेने की कोशिश करती है. मुझे हर बार अंदेशा होता है कि उसको ठण्ड न लग जाये पर वह मेरी ओर पलट कर जवाब देती है: मैं बिलकुल ठीक हूँ दीदी.
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अयाने कवाता 1940 में जनमी जापानी कविता की आधुनिक धारा की महत्वपूर्ण कवि हैं.इन दिनों इटली में रहती हैं.जापानी भाषा के उनके दस काव्य संकलन प्रकाशित है.
प्रस्तुति : यादवेन्द्र

मंगलवार, सितंबर 06, 2011

मेरे वश में नहीं : निजार कब्बानी (प्रस्तुति : यादवेन्द्र)

निजार कब्बानी (1923 -1998 )
मेरे वश में नहीं
कि बदल पाऊं तुम्हारा रास्ता
या कि समझ ही पाऊं क्या चाहती हो तुम..
कभी भरोसा मत करो
कि कोई आदमी बदल सकता है किसी स्त्री को.
यह आदमी की खुशफहमी है
कि वो सोचता है उसने निर्मित की स्त्री
अपनी पसलियों के अंदर से...
स्त्री किसी आदमी की पसली से नहीं निकली
न निकलेगी कभी
ये तो आदमी ही है
जो निकलता है स्त्री की कोख के अंदर से
जैसे निकलती है मछली
सागर की अतल गहराइयों से
और जैसे निकलते हैं सोते नदियों से फूट कर
आदमी है कि चक्कर मारता रहता है
स्त्री की आँखों के सूरज के इर्द गिर्द
और मुगालते में रहता है
कि टिक कर खड़ा है स्थिर अपनी जगह पर ही
........
मुझमें कूबत नहीं कि
बाँध लूँ अपने साथ तुमको
या घरेलू बना लूँ तुम्हें
या साध लूँ तुम्हारी आदिम इच्छाएं...
यह पूरी तरह से ना मुमकिन काम है
मैंने अपना सारा सयानापन आजमा कर देख लिया
और अपना विस्मित मौन भी दाँव पर लगा के देख लिया
तुम्हारे ऊपर इनका कुछ भी असर नहीं
मेरी कोई सलाह/हिदायत भी कामयाब नहीं...
न ही प्रलोभन
तुम उतनी ही आदिम अनगढ़ बनी रहो
जितनी हो इस वक्त.
..........................
मेरी औकात नहीं कि बदल दूँ
तुम्हारी आदतें
जो बनीं तीस सालों में
ऐसी ही रहीं तुम दरमियान के
तीन सौ सालों में भी
बंद बोतल में उमड़ता रहा एक तूफ़ान
आदतन आदमी के बदन की गंध भांप लेने वाली स्त्री
लपकती है उस ओर आदतन ही
और उसको कब्जे में कर लेती है
आदतन
..............
कभी यकीन मत करो आदमी पर
कि अपने बारे में वो क्या कहता है
कि वो रचता है कवितायेँ
और पैदा करता है बच्चे...
दरअसल स्त्री है जो रचती है कवितायेँ
और आदमी उनपर लिख देता है अपना नाम
स्त्री है जो जानती है बच्चे
और आदमी अस्पताल के रजिस्टर में
दर्ज कर देता है नाम अपना
पिता के तौर पर.
..................
मैं नहीं बदल सकता तुम्हारा स्वभाव
मेरी किताबें तुम्हारे किसी काम की नहीं
और मेरे विचार बनाते नहीं तुम्हें कायल
न ही मेरी सयानी हिदायतों का कोई असर तुमपर
तुम तो अराजकता की मलिका हो
और उन्मत्तता की सिरमौर...
कोई कैसे तुमपर लगाये अंकुश
ऐसी ही रहो...
तुम नारीत्व का गदराया दरख़्त हो
जो फलता फूलता है अँधेरे में
न चाहिए उसको धूप और न ही पानी...
तुम सागरकन्या हो जिसको सभी मर्द प्रिय हैं
और कोई भी मर्द प्यारा नहीं
जो सोयी हर अदद आदमी के साथ
और सोयी नहीं किसी के भी साथ
तुम रेगिस्तान की घुमक्कड़ कबाइली स्त्री हो
जो हर एक कबीले के साथ घूमती फिरती है
पर जब भी लौटती है
तो लौटती कुँवारी ही है...
ऐसी ही रहो...बिलकुल ऐसी ही...

(अनुवाद एवं प्रस्तुति: यादवेन्द्र)

शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

कैंसर क्या क्या नहीं कर सकता : एलिजाबेथ लुकास

एलिजाबेथ लुकास
( स्तन और किडनी के कैंसर पर विजय प्राप्त करने वाली)

कैंसर क्या क्या नहीं कर सकता

कैंसर इतना पिद्दी सा होता है
कि यह प्रेम को अपाहिज नहीं बना सकता
कि यह उम्मीदों को नेस्तनाबूद नहीं कर सकता
कि यह भरोसे को जंग लगा कर जर्जर नहीं कर सकता
कि यह शांति को नष्ट नहीं कर सकता
कि यह दोस्ती को हलाक़ नहीं कर सकता
कि यह स्मृतियों को दफना नहीं सकता
कि यह हिम्मत को गूँगा लाचार नहीं बना सकता
कि यह आत्मा पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता
कि यह जीवन की अमरता चुरा नहीं सकता
कि यह जीवन जीने की ललक का ध्वंस नहीं कर सकता....
(प्रस्तुति : यादवेन्द्र)

रविवार, जुलाई 24, 2011

राजेश रेड्डी की ग़ज़लें



1

शाम को जिस वक्त खाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं

जानता हूँ रेत पर वो चिलचिलाती धूप है
जाने किस उम्मीद में फिर भी उधर जाता हूँ मैं

सारी दुनिया से अकेले जूझ लेता हूँ कभी
और कभी अपने ही साये से भी डर जाता हूँ मैं

ज़िन्दगी जब मुझसे मजबूती की रखती है उमीद
फैसले की उस घड़ी में क्यूँ बिखर जाता हूँ मैं

आपके रस्ते हैं आसाँ, आपकी मंजिल करीब
ये डगर कुछ और ही है जिस डगर जाता हूँ मैं

2
मिट्टी का जिस्म लेके मैं पानी के घर में हूँ
मंज़िल है मेरी मौत, मैं हर पल सफ़र में हूँ

होना है मेरा क़त्ल ये मालूम है मुझे
लेकिन ख़बर नहीं कि मैं किसकी नज़र में हूँ

पीकर भी ज़हरे-ज़िन्दगी ज़िन्दा हूँ किस तरह
जादू ये कौन-सा है, मैं किसके असर में हूँ

अब मेरा अपने दोस्त से रिश्ता अजीब है
हर पल वो मेरे डर में है, मैं उसके डर में हूँ

मुझसे न पूछिए मेरे साहिल की दूरियाँ
मैं तो न जाने कब से भँवर-दर-भँवर में हूँ

3
मेरी ज़िंदगी के मआनी बदल दे
खु़दा इस समुन्दर का पानी बदल दे

कई बाक़ये यूँ लगे, जैसे कोई
सुनाते-सुनाते कहानी बदल दे

न आया तमाम उम्र आखि़र न आया
वो पल जो मेरी ज़िंदगानी बदल दे

उढ़ा दे मेरी रूह को इक नया तन
ये चादर है मैली- पुरानी, बदल दे

है सदियों से दुनिया में दुख़ की हकूमत
खु़दा! अब तो ये हुक्मरानी बदल दे

शुक्रवार, जुलाई 15, 2011

स्वामीनाथन का झल्ला: विशाल

विशाल की यह कविता उन दिनों की याद में जब हम मित्र मुजफ्फरनगर में स्वामीनाथन को लेकर एक कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारी में थे। जे. स्वामीनाथन की कविताओं ने उनके चित्रों में एक नया संसार देखने का सूत्र हमें दिया। परिणाम यह हुआ कि कुछ ऐसी भावभूमि बनी कि कार्यक्रम का आयोजन मात्र औपचारिकता बनकर रह गया और स्वामीनाथन का झल्ला तो (बकौल तुलसी रमण, सम्पादक ‘विपाशा’) विशाल की कविता में आकर बैठ गया।
दृश्य: एक
दुनिया की उन
सभी प्यारी चीजों ने
अपने खत्म होते-होते ही
बना लिए थे घर
प्रतीकों में
जो अर्थां से छिपने की
कामयाब जगह मानी जाती है
बिन्दु में
जो कोई जगह तक नहीं घेरता
रेखाओं में
जिसकी कोई मोटाई तक नहीं होती
रंगों में
जो छिपकर लगातार बदलते हैं
अपने रंग
उन शब्दों में
जिन्हें अपने गलत इस्तेमाल का
डर नहीं होता
और जो निर्जीव पत्थर-से
ऐंठे पड़े रहते हैं
अक्सर तब भी
जब वे खूब गर्म हो रहे हों।

दृश्य: दो
दृश्य दो में दृश्य एक के
सभी विस्थापित आश्रय
सन्दर्भहीन सन्दर्भ में हैं
इसे गलत संदर्भ कहने का अधिकार
अभी आपको है मुझे नहीं

बेरोक-टोक छुट्टे घूम रहे
वाचाल असदंर्भित भालों की नोकों पर
अश्लील लिखावट में
नारों से लहराते हैं
सभी प्रतीक रंग रेखाएँ
और शब्द।

दृश्य: तीन
इस दृश्य का नायक -
एक दिन उसकी आह उठती है
गूँज बनने से पहले ही डूब जाती है

उसी की भीतरी घुटन में
और धड़कन एक धड़ाम में फटती है

अब दृश्य का नायक
गलत संदर्भ-सा टंगा है
संदर्भित दीवार पर।

दृश्य: चार
इस दृश्य में
तीनों दृश्यों के बाहर
ज. स्वामीनाथन का झल्ला बैठा है
जिसकी आँखों से सूरज अक्सर
चुरा ले आता है
चमकने का रहस्य।

* ज. स्वामीनाथन की कविताओं के लिए यहाँ क्लिक करें। विशाल की यह कविता ‘विपाशा’ के नवीनतम अंक में प्रकाशित हुई है। आभार।

बुधवार, जुलाई 13, 2011

नये इलाके में: अरुण कमल

इन नये बसते इलाकों में
जहाँ रोज बन रहे हैं नये-नये मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ

धोखा दे जाते हैं पुराने निशान
खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और जमीन का खाली टुकड़ा जहाँ से बायें
मुड़ना था मुझे
फिर दो मकान बाद बिना रंग वाले लोहे के फाटक का
घर था इकमंजिला

और मैं हर बार एक घर पीछे
चल देता हूँ
या दो घर आगे ठकमकाता

यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं
एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे वसन्त का गया पतझड़ को लौटा हूँ
जैसे बैशाख का गया भादों को लौटा हूँ

अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो -
क्या यही है वो घर ?

समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।

* कवि का फोटो hindilekhak.blogspot.com/2007/12/blog-post_4259.html से साभार

गुरुवार, जून 16, 2011

तीनों बन्दर बापू के / नागार्जुन

बाबा की जन्मशती पर प्रस्तुत हैं उनकी दो प्रसिद्ध कविताएँ -

तीनों बन्दर बापू के !
बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के !
ग्यानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के !
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के !
लीला के गिरधारी निकले तीनों बन्दर बापू के !
सर्वोदय के नटवरलाल
फैला दुनिया भर में जाल
अभी जियेंगे ये सौ साल
ढाई घर घोडे की चाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवरलाल

लम्बी उमर मिली है, ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के !
दिल की कली खिली है, ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के !
बूढ़े हैं फिर भी जवान हैं ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के !
परम चतुर हैं, अति सुजान हैं ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के !
सौवीं बरसी मना रहे हैं ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के !
बापू को हीबना रहे हैं ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के !
बच्चे होंगे मालामाल
ख़ूब गलेगी उनकी दाल
औरों की टपकेगी राल
इनकी मगर तनेगी पाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवरलाल

सेठों का हित साध रहे हैं तीनों बन्दर बापू के !
युग पर प्रवचन लाद रहे हैं तीनों बन्दर बापू के !
सत्य अहिंसा फाँक रहे हैं तीनों बन्दर बापू के !
पूँछों से छबि आँक रहे हैं तीनों बन्दर बापू के !
दल से ऊपर, दल के नीचे तीनों बन्दर बापू के !
मुस्काते हैं आँखें मीचे तीनों बन्दर बापू के !
छील रहे गीता की खाल
उपनिषदें हैं इनकी ढाल
उधर सजे मोती के थाल
इधर जमे सतजुगी दलाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवरलाल

मूंड रहे दुनिया-जहान को तीनों बन्दर बापू के !
चिढ़ा रहे हैं आसमान को तीनों बन्दर बापू के !
करें रात-दिन टूर हवाई तीनों बन्दर बापू के !
बदल-बदल कर चखें मलाई तीनों बन्दर बापू के !
गाँधी-छाप झूल डाले हैं तीनों बन्दर बापू के !
असली हैं, सर्कस वाले हैं तीनों बन्दर बापू के !
दिल चटकीला, उजले बाल
नाप चुके हैं गगन विशाल
फूल गए हैं कैसे गाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवरलाल

हमें अँगूठा दिखा रहे हैं तीनों बन्दर बापू के !
कैसी हिकमत सिखा रहे हैं तीनों बन्दर बापू के !
प्रेम-पगे हैं, शहद-सने हैं तीनों बन्दर बापू के !
गुरुओं के भी गुरु बने हैं तीनों बन्दर बापू के !
सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के !
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के !

पाँच पूत भारतमाता के
पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूंखार
गोली खाकर एक मर गया,बाकी रह गये चार

चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाकी रह गये तीन

तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गये वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच गये दो

दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाकी बच गया एक

एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झन्डा
पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा

(कविताएँ तथा चित्र क्रमशः कविताकोष तथा गूगल से साभार)

सोमवार, जून 06, 2011

ईश्वर का समय का पहिया : शेल सिल्वरस्टीन


ईश्वर का समय का पहिया

ईश्वर ने मुस्कुरा कर मुझसे पूछा एक दिन :
क्या तुम थोड़ी देर के लिए ईश्वर बनना चाहोगे
जिस से मन माफिक चला सको दुनिया?
ठीक है, कोशिश करके देखता हूँ...मैंने जवाब दिया.
पर मुझे मिलेंगे कितने पैसे?
कितनी देर का लंच टाइम होगा?
नौकरी छोड़ने की कोई शर्त तो नहीं?
बेहतर है भाई कि तुम समय का पहिया मुझे कर दो वापिस
मुझे नहीं लगता कि तुम इसके काबिल हो अभी...
ईश्वर ने शांत भाव से जवाब दिया.

माँ और ईश्वर
ईश्वर ने हमें दीं उँगलियाँ -- माँ कहती हैं: फ़ॉर्क से खाना खाओ
ईश्वर ने दी हमें आवाज -- माँ कहती हैं: चीखो मत
माँ कहती हैं ब्रोकोली, अन्न और गाजर खाने को
पर ईश्वर ने तो हमें आईसक्रीम के स्वाद चखने को दिए.
ईश्वर ने दी हमें उँगलियाँ-- माँ कहती हैं: रुमाल का इस्तेमाल करो
ईश्वर ने हमें दिया कीचड़ कादो --माँ कहती हैं: इनमें छपछप मत करो
माँ कहती हैं:शोर मत मचाओ ,अभी पापा सो रहे हैं
पर ईश्वर ने हमें फोड़ने पिचकाने को ढेर सारे डिब्बे दिए हैं.
ईश्वर ने दी हमें उँगलियाँ-- माँ कहती हैं: अपने दस्ताने पहन कर रखो
ईश्वर ने हमें दी हमें बारिश की बूँदें: माँ कहती है: बरसात में भीगो मत
माँ चेताती है संभल के रहना,बहुत पास मत जाना
उन अजूबे प्यारे पिल्लों के जो ईश्वर ने हमें दिए.
ईश्वर ने दी हमें उँगलियाँ--माँ कहती हैं: जाओ इनको धो कर आओ
पर ईश्वर ने दिए हमें कोयले के ढेर और सुन्दर लेकिन गंदे शरीर
मैं बहुत सयाना तो नहीं हूँ पर एक बात निश्चित है:
या तो माँ सही होगी..या फिर ईश्वर.

बुधवार, मई 25, 2011

सन्तोष कुमार वर्मा की कविताएँ

संज्ञान
फूल, प्रेमपत्र, सुगंध
लिखने को बनी कलम
खुद-ब-खुद जब उतारने लगे
रक्त, आग और गालियाँ पन्नों पर
तब उँगलियों को चाहिए -
कलम छोड़कर
मुट्ठी बन जाएँ।

बिजूका

खेत में जो बिजूका है
जो डरता है, डरे
जो हों दुस्साहसी, चालबाज
खेत चरें।

नपुंसक बिजूका
कुछ शांतिप्रिय कबूतरों
और बुलबुलों की ओर
अपनी कलूटी खोपड़ी पर उगी
कुटिल आँखें तरेरता है।

छुट्टे साँडों और
मदमस्त हाथियों के स्वागत में
‘अतिथि देवो भव’ उवाचता बिजूका
अपनी बाँहें क्षैतिज पसारे
रौंद दिये गये खेत से
आँखें फेरता है।

कौए की सामूहिकता
सड़क पर
गंदा पानी फैल रहा है
मैं अपना दरवाजा
और ऊँचा कर लूँगा।

पड़ोसी का बेटा ड्रग्स लेता है
कोई बात नहीं
अपना मुन्ना तो नशेड़ी नहीं।

शहर में दंगे के आसार हैं
यहीं मैं बहुसंख्यक हूँ।

रिक्शा वाला पूरे पैसे माँग रहा था
पिट रहा है
हमें क्या पड़ी
किसी के फटे में टाँग फँसाने की।

सरे-राह लड़की गायब हो गयी
मेरी बहन तो घर में होगी।

गाँधी के तीनों बंदर
आज हमारे शागिर्द होते।

जरा एक कौआ मार के
आँगन में टाँग दो
और देखो मजा।


(सन्तोष के परिचय में केवल इतना ही कि वे पेशे से डिप्टी जेलर हैं और उनकी ये कविताएँ सरकारी नौकरी में आने से पहले लिखी गयी हैं।)

शुक्रवार, अप्रैल 29, 2011

साइकिल रिक्शा : दो कविताएँ (प्रस्तुति - यादवेन्द्र)

27 मार्च 2011 को नागपुर से प्रकाशित प्रतिष्ठित दैनिक लोकमत समाचार की रविवारी पत्रिका लोकरंग ने रिक्शों के ऊपर मेरा शीर्ष लेख प्रकाशित किया जिसमें हमारे देश के पूंजीवादी विकास के वर्तमान माडल में कारों के बर्बर कब्जे और रिक्शों के हाशिये पर धकेलते जाने की चर्चा की गयी है.मानव श्रम से बिना इंधन के चलने वाला यह वाहन पूरे एशिया में मध्यवर्गीय समाज का अभिन्न अंग रहा है और धीरे धीरे सभी बड़े एशियाई नगरों से इसको धकेलने कीतय्यारी की जा रही है. लेख लिखने के दौरान मुझे समाज की नब्ज पर हाथ रखने वाले दो महत्वपूर्ण कवियों की कविताएँ याद आयीं...हिंदी के दो शीर्ष कवियों ने रिक्शे को लेकर चर्चित कवितायेँ लिखी हैं..स्व.नागार्जुन और स्व. रघुवीर सहाय ने...बहुत मुमकिन है अन्य कवियों ने भी उल्लेखनीय रचनाएँ लिखी हों जो मुझ जैसे पाठक की निगाहों से छूट गयी हों...इसके लिए क्षमाप्रार्थी होते हुए यहाँ प्रस्तुत है ये दो कविताएँ :

खुरदुरे पैर
- नागार्जुन (1961)
खुब गए दूधिया निगाहों में फटी बिवाइयों वाले खुरदुरे पैर
धंस गए कुसुम कोमल मन में गुट्टल घट्ठों वाले कुलिश कठोर पैर
दे रहे थे गति रबर विहीन ठूंठ पैडलों को
चला रहे थे एक नहीं दो नहीं तीन तीन चक्र
कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को
नाप रहे थे धरती का अनहद फासला
घंटों के हिसाब से ढोए जा रहे थे .
देर तक टकराए उस दिन इन आँखों से वो पैर
भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयाँ ....
खुब गयी दूधिया निगाहों में
धंस गयी कुसुम कोमल मन में.

साईकिल रिक्शा
- रघुवीर सहाय (1989)
यह महज सुनने में लगता है साम्यवाद
हम अपने घोड़े को इंसान भी समझें
ख़ास तौर से जब वह सचमुच इंसान हो .
ग्लानि से भर कर रिक्शे से उतर पड़ें
पछ्ताएं क्यों उसकी रोजी ली
फिर तरस खा कर बख्शीश दें .
तीनों परिस्थितियों में हम हैं लदे हुए ,वह हमें ढ़ोता है.
सिर्फ ढुलाई पर दोनों झगड़ते हैं
हैसियत उनकी बराबर हो जाती है.
आओ इक्कीसवीं सदी के इंजीनियर
ईजाद साईकिल रिक्शा ऐसी करें
जिस में सवारी और घोड़ा अगल बगल
तफरीहन बैठे हों.
मगर आप पूछेंगे इस से क्या फायदा ?
वह यह कि घोड़े को कोई मतभेद हो
पीछे मुँह मोड़ कर पूछना मत पड़े .
प्रस्तुति; यादवेन्द्र