......कितना अच्छा होता कि मैं सचमुच एक कवि की तरह कोई कविता लिख सकता। कुछ शब्द इस तरह लिखे जैसे कोई नौकर लिखता है या कभी सड़क पार करते हुए बची हुई जान की तरह लिखा जिसे हर वक्त अपने सर पर एक गठरी का अहसास रहता है और बार-बार पलटकर अपना घर देखना चाहता है। कभी इस तरह लिखा जैसे अपने शरीर से विच्छिन्न कोई अकेला हाथ लिखता है या जैसे कोई पत्ता पेड़ से गिरने से पहले अपना रंग छोड़ता है। गनीमत यह है कि यह सब मैंने मनुष्य के रूप में ही लिखा और मनुष्य होने में न कोई आत्मदया है और न आत्महीनता। मैं यह भी जान सका कि कविता सिर्फ एक हाशिये की कार्रवाई रह गयी है, उसकी बहुत जरूरत नहीं महसूस की जाती और शायद कभी नहीं की जाती थी और कवि लोग इस व्यवस्था के नियंता नहीं नहीं हैं। हालांकि उन्हें उसका शिकार होने से भी हमेशा इनकार करना चाहिए और यह हाशिया ही हमारी मुख्यभूमि हमारा मोर्चा है क्योंकि यह हाशिया एक निरीह, लाचार, कलपती, रिरियाती जगह नहीं है। मेरे पूर्वज, संस्कृत के अनेक महाकवि और फिर रीतिकालीन लोग जो राज्याश्रयों में रहे, कविता के बदले स्वर्णमुद्राएँ पाते थे और उनका काफी समय सम्राटों की उदारता और वीरता के गुणगान में बीता। लेकिन तब भी उनकी रचनाओं में कहीं वह अंतद्र्वंद्व दर्ज है जो सत्ता प्रतिष्ठान और सच्चे रचनाकार के बीच हमेशा रहता है। सत्तातंत्र और रचना के उद्देश्य ही एक-दूसरे के विपरीत हैं.......
(आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित मंगलेश डबराल की पुस्तक ‘लेखक की रोटी’ से सादर, चित्र यहाँ से साभार)
manglesh Ji ko padhna hamesha dichasp, bachaini bhara aur ajeeb sa bharosa dene wala hota hai.is chhote se gadyansh men kaii aisee panktiyan hai jo baar-baar dohrane ko jee chahta hai. Tumne ye `KAVI KA GADY` shrinkhla achhee shuru kee hai, dost.
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