सोमवार, दिसंबर 31, 2012

इस बार शुभकामना नहीं, शोकगीत !


शोकगीत

एक शोकगीत
उन मछलियों के लिए
जो पानी में रहते हुए भी मर गयीं।

एक शोकगीत
शव के पीछे-पीछे चल रहे दर्जनों लोगों
और सैकड़ों छूट गये शवों के लिए।

एक शोकगीत
उन शब्दों के लिए भी
जो समय की शिला से टकराए बिना
चूर-चूर हो गये।

एक शोकगीत
कहने के बाद शेष रहने की विवशता पर।

बुधवार, दिसंबर 26, 2012

अब भी लौटी नहीं है घर लड़की : ग़ज़लें (अश्वघोष)


अभी हाल ही में वरिष्ठ कवि अश्वघोष का ग़ज़ल-संग्रह राजेश प्रकाशन, अर्जुन नगर, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। उन्हें हार्दिक बधाई देते हुए प्रस्तुत हैं इस संकलन से उनकी तीन ग़ज़लें -

- एक -
अब भी लौटी नहीं है घर लड़की
बन गई है नई ख़बर लड़की

घर के पिंजरे में बंद थी जब तक
नोचती थी बदन के पर लड़की

देखकर छत पे एक सूरज को
हो गई धूप-सी मुखर लड़की

सारा जीवन तनाव सहती रही
घर की इज़्ज़त के नाम पर लड़की

दफ़्तरों में कभी, कभी घर में
ख़त्म होती है किस क़दर लड़की

- दो - 
दुआएँ साथ लाए हैं तुम्हारे गाँव के बादल
हमारे गाँव आए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

कभी आए न ख़ाली हाथ, देखो आज भी देखो
समंदर साथ लाए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

तुम्हारी ही तरह ये भी मुझे अपने-से लगते हैं
सदा दिल में बिठाए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

बरसने से ही ये बचते रहे हैं इस दफ़ा भी तो
बहाने साथ लाए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

न बरसे तो भी हम तरसे, जो बरसे तो भी हम तरसे
पहेली बन के आए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

- तीन -
मुझमें ऐसा मंज़र प्यासा
जिसमें एक समंदर प्यासा

सारा जल धरती को देकर
भटक रहा है जलधर प्यासा

भूल गया सारे रस्तों को
घर में बैठा रहबर प्यासा

इश्क फ़क़त इक सूखा दरिया
दर्द भटकता दर-दर प्यासा

‘अश्वघोष’ से जाकर पूछो
लगता है क्यूँ अक्सर प्यासा

रविवार, नवंबर 25, 2012

निष्पक्ष सिर्फ पत्थर हो सकता है: अशोक कुमार पाण्डेय













तुमने मेरी उंगलियाँ पकड़कर चलना सिखाया था पिता
आभारी हूँ, पर रास्ता मैं ही चुनूँगा अपना
तुमने शब्दों का यह विस्मयकारी संसार दिया गुरुवर
आभारी हूँ, पर लिखूँगा अपना ही सच मैं

मैं उदासियों के समय में उम्मीदें गढ़ता हूँ और अकेला नहीं हूँ बिल्कुल
शब्दों के सहारे बना रहा हूँ पुल इस उफनते महासागर में
हजारों-हजार हाथों में, जो एक अनचीन्हा हाथ है, वह मेरा है
हजारों-हजार पैरों में, जो एक धीमा पाँव है, वह मेरा है
थकान को पराजित करती आवाजों में एक आवाज मेरी भी है शामिल
और बेमकसद कभी नहीं होतीं आवाजें ...

निष्पक्ष सिर्फ पत्थर हो सकता है, उसे फेंकने वाला हाथ नहीं
निष्पक्ष कागज हो सकता है, कलम के लिए कहाँ मुमकिन है यह?

मैं हाड़-मांस का जीवित मनुष्य हूँ
इतिहास और भविष्य के इस पुल पर खड़ा नहीं गुजार सकता अपनी उम्र
नियति है मेरी चलना और मैं पूरी ताकत के साथ चलता हूँ भविष्य की ओर।

(अशोक कुमार पाण्डेय की यह खूबसूरत कविता आज दिनांक 25 नवम्बर 2012 के अमर उजाला में प्रकाशित हुई है, साभार। अशोक कुमार पाण्डेय का कविता संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ प्रकाशित हो चुका है और चर्चा में है)

बुधवार, जुलाई 18, 2012

नयी वर्णमाला - सीमा शफ़क



जीवन, मंचीय सांस्कृतिक विधाओं और साहित्य के पारंपरिक ढाँचे और शैली के साथ खिलवाड़ करती रहने वाली सीमा शफ़क  अक्सर कुछ नया काम करके मित्रों को चौंकाती रहने वाली शख्सियत हैं...और उन्हें सबसे ज्यादा मजा तब आता है जब वे अपनी पिछली किसी रचना को बिलकुल किनारे रखते हुए कहीं और प्रस्थान करती हैं जैसे पिछला किया हुआ उनका न होकर किसी और का हो...उसके बारे में वही जाने,वही बात करे...पिछले कुछ दिनों से वे घर से पहला कदम बाहर निकालने वाले बच्चों की दुनिया में रमी हुई हैं...उनके बारे में सीमाजी के पास इतना कुछ कहने को है कि बच्चों को रोज रोज की मामूली बात समझने का मुगालता पाले हुए लोगों को अपनी तंगखयाली पर शर्म महसूस होने लगती है.पर यह बिलकुल तय है की उनकी हर छोटी से छोटी बात और काम में गहरी संवेदना, निष्ठा और काम न करने वाली व्यवस्था को बदल डालने का घनघोर जज्बा दिखाई देता है...ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया की उनकी जीवन शैली यहाँ बहुत कारगर ढंग से नतीजे में बदलती हुई दिखाई देती है...नए पड़ाव पर पहुंचना जितना आसान लगता है उतना ही मुश्किल है पुराने पड़ाव की नाकामी को स्वीकार करते हुए ज्यूँ का त्यूँ छोड़ कर आगे बढ़ जाना..सीमाजी को इसमें महारत हासिल है.वे आजकल अपना समय हरिद्वार और शिमला के बीच विभाजित करते हुए बिताती हैं. 
बच्चों के साथ उनके अन्तरंग और गहरे संवाद ने कई ऐसी रचनाओं को जन्म दिया है जिनमें दशकों से चली आ रही घिसीपिटी परिपाटी को तोड़ने और नयी परिपाटी का आगाज दिखाई देता है और मुझे ऐसी अनेक रचनाओं को ताज़ा ताज़ा सुनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है...यह कविता भी उसी कड़ी का एक नमूना है.दैनिक जीवन में बिलकुल हमारे आस पास उपस्थित अमिया,इत्र,ईश्वर,उम्मीद,ऊसर,ओस,ऋतु और अंतस जैसे शब्दों को उन्होंने जिस तरह प्रारंभिक वर्णमाला में पिरोया है उस से बच्चों के सामने एक नयी व्यावहारिक दुनिया का द्वार खुलता है. और जो शिक्षक बच्चों को इन शब्दों को देखने ,छूने और सूंघने के लिए तैयार करेंगे निश्चित ही उनको पहले उनके भौतिक अर्थ और भाव की गहराई तक उतरना पड़ेगा तभी बच्चों के मन की अनगढ़ गीली मिट्टी के मानस पटल पर उनको स्थायी तौर पर शिलालेख की तरह दर्ज करना संभव होगा.मेरा मानना है कि ऐसी कवितायेँ नयी दुनिया गढ़ने के लिए नयी शब्दावली ही नहीं बल्कि नयी इच्छाएं और संकल्प भी पैदा करेंगी.
अक्षर ज्ञान के लिए जो विशिष्ट तत्व शिक्षाशास्त्रियों ने सर्वप्रमुख माने हैं वे हैं उनके नाम,आकार और ध्वनि. और पश्चिम के देशों में किये गये ऐसे अध्ययनों की कमी नहीं जिनमें निष्कर्ष निकाला गया है कि जिन बच्चों का अक्षर ज्ञान अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँचता वे आगे चलकर पढाई में सामान्य तौर पर पिछड़ जाते हैं.कुछ अध्ययन ऐसे भी सामने आए हैं जो बचपन की इस उपेक्षा से वयस्क काल तक को प्रभावित मानते हैं.कुछ विशेषज्ञ तो यहाँ तक कहते हैं कि दसवीं कक्षा में बच्चों का भाषा ज्ञान किस स्तर का होगा इसकी भविष्यवाणी उनके किंडरगार्टेन के वर्णमाला ज्ञान के आधार पर बड़े भरोसे के साथ किया जाना संभव है.
तीन चार साल के अमेरिकी बच्चों पर किये गये अध्ययन बताते हैं कि आर्थिक सामाजिक स्थितियों का बच्चों की शब्द सम्पदा के साथ अनिवार्य सम्बन्ध है जो उनके बड़े होने पर भी तब तक बरकरार रहता है जबतक विशेष प्रयास करके हस्तक्षेप न किया जाये.आम तौर पर एक अमेरिकी प्रोफेशनल परिवार में तीन साल के बच्चे महीने भर की बातचीत में 1100 शब्द सुनते हैं पर कम पढ़े लिखे मजदूरी करने वाले परिवार में शब्दों की यह औसत संख्या घट कर 700 रह जाती है...सरकारी अनुदान कूपन( गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले भारतीय परिवारों के समकक्ष) पर जीवन यापन करने वाले परिवार के बच्चे तो महीने भर की बातचीत में 500 शब्द ही सुन पाते हैं.ऐसे सामाजिक विभाजन के कारण बच्चों की नए शब्दों को सीखने की क्षमता भी प्रभावित होती है...इनके बीच एक साल में 750 नए शब्दों से लेकर 3000 शब्दों का फासला होता है.ये सामाजिक स्थापनाएं भारतीय समाज पर भी बखूबी लागू होती हैं.
सीमाजी की ऐसी कवितायेँ बच्चों को देश का भावी जिम्मेदार नागरिक मानते हुए संभावनाओं के अनंत आकाश तक लेजाने का संकल्प पूर्वक यत्न करती हैं...यह कहा जाना चाहिए कि सामाजिक आर्थिक विषमता से हाशिये पर डाले जा रहे बच्चों के लिए लिखी जाने वाली ऐसी कवितायेँ दरअसल उनके सकारात्मक सशक्तीकरण का बयान है...विषम समाज को बेहतर भविष्य प्रदान करने के लिए नौनिहालों के हाथ में रुपये पैसे से ज्यादा धारदार हथियार शब्द थमाने का आग्रह किया भी जाना चाहिए. (प्रस्तुति: यादवेन्द्र)
 
नयी वर्णमाला
अ अनार ही क्यूँ होता है?
आ से सदा क्यूँ होता आम?
अमिया आलू दुखी बहुत थे ,उनका कोई न लेता नाम..
इ पर इमली का है कब्ज़ा,
ई से ईख सदा की बात..
इत्र ये बैठा सोच रहा था,थके हुए ईश्वर के साथ..
उ उल्लू की बना बपौती ये भी भला हुई कुछ बात..
डाल पात क्यूँ उल्लू की शह,उम्मीदों की ठहरी मात.
ऊ से ऊन और ए से एँड़ी
नया कहाँ सब वही पुराना..
ऊसर जीवन,एकाकीपन..किसने चीन्हा किसने जाना
ऐ ऐनक फिर चिढ कर बोली..
,ऐसे ही चलती दुनिया--
ऋ से ऋषि का तोड़ नहीं कुछ
हँसी ऋतु और बोली गुनिया
ओ से ओस भी तो होती है..
आशाएँ की तब ये जाना ...
औ से औरत हो या औघड़...सब बदले हैं भेस पुराना
अं अंगूर में क्या रखा है?
अं से तो अंतस होता है,मन जिसको कहते हैं हम तुम...
जो हँसता है जो रोता है...
अः सुनता था सब बातें,खाली तनहा बहुत उदास...
काश कोई उसकी भी सुनता,वो भी कहता मन की बात.

मंगलवार, अप्रैल 24, 2012

अनवारे इस्लाम* की ग़ज़लें

1.
सगे भाई हैं, उनमें प्यार भी है
मगर आँगन में इक दीवार भी है

बहुत मासूम है चेहरा किसी का
नहीं लगता कि दुनियादार भी है

बहुत-सी ख़ूबियाँ हैं उसमें लेकिन
कमी बस ये कि वो ख़ुद्दार भी है

बुराई पीठ पीछे कर रहा है
वही, जो शख़्स मेरा यार भी है

सुलहकुल चाहता है सबके हक़ में
वो झुकने के लिए तैयार भी है

वो करता है बहुत से काम लेकिन
हक़ीक़त ये कि वो बेकार भी है

2.
मुझे इस बात से उलझन बहुत है
तेरे लहजे में तीख़ापन बहुत है

मुझी से बात करते थे जि़यादा
मुझी से आजकल अनबन बहुत है

कई दिन से वो कुछ बेचैन सा है
कई दिन से मुझे उलझन बहुत है

सभी गलियों में चेहरे अजनबी हैं
सभी गलियों में सूनापन बहुत है

तेरी बातों से डर लगने लगा है
तेरी बातों में मीठापन बहुत है

चमक दिखलाऊँ अपनी डूब जाऊँ
यही दो-चार दिन जीवन बहुत है

3.
बीज नफ़रत के जो भी बोता है
फ़स्ल आने पे ख़ूब रोता है

रंग जब भी उभारता है वो
उँगलियाँ ख़ून में डुबोता है

जाग उठने की फि़क्र रहती है
चैन की नींद कौन सोता है

तेरी बातों से चोट लगती है
चोट लगने से दर्द होता है

बादलों से नहीं रही उम्मीद
आँसुओं से ज़मीं भिगोता है

बीच लोगों के ख़ूब हँसता है
जाके तनहाइयों में रोता है

* वरिष्ठ शायर अनवारे इस्लाम भोपाल में रहते हैं और ‘सुख़नवर’ पत्रिका का सम्पादन करते हैं। सम्पर्क: सी-16, सम्राट कालोनी, अशोका गार्डन, भोपाल

शनिवार, मार्च 17, 2012

दिल्ली में चंद्रभागा

26 फरवरी 2012. प्रगति मैदान. सच ! उस दिन चंद्रभागा का पता उस दिन दिल्ली प्रगति मैदान का था क्योंकि उस दिन अजेय 'पैंतालीस डिग्री के कोण पर' अपने लैपटॉप में झांकते हुए,  'अपने जीने के ढंग' के साथ कविता सुना रहे थे. सही बात तो यह है कि मेले-ठेले से दूर गंगा, यमुना, कर्मनाशा, चंद्रभागा.... सभी 'पानी' से भरपूर नदियाँ कविता में बतकही का आनंद ले रही थीं. कवि अजेय की आँखों में उमड़ती चंद्रभागा को मैंने कई बार पढ़ा. बड़ा विलक्षण अनुभव था कविता में नदी की कलकल को सुनने का. मेरे साथ सिद्धेश्वर सिंह, अश्वनी खंडेलवाल, धीरेश सैनी, लीना मल्होत्रा... इस विलक्षण अनुभव के गवाह बने. 

अजेय की यह कविता उनके जन्मदिन (१८ मार्च) पर शुभकामनाओं सहित. 

बातचीत

ऐसे बेखटके शामिल हो जाने का मन थाउस बातचीत में जहाँ एक घोड़े वाला
और कुछ खानगीर  थे ढाबे के चबूतरों पर
ऐसे कि किसी को अहसास ही न हो


वहाँ बात हो रही थी
कैसे कोई कौम किसी दूसरे कौम से  अच्छा हो सकता है
और कोई मुल्क किसी दूसरे मुल्क से

कि कैसे जो अंगरेज थे
उन से अच्छे थे मुसलमान
और कैसे दोनो ही बेहतर थे हमसे

क्या अस्सल एका था बाहर के कौमों में
मतलब ये जो मुसल्ले बगैरे होते हैं
कि हम तो देखने को ही एक जैसे थे ऊपर से
और अन्दर खाते  फटे हुए

सही गलत तो पता नहीं हो  भाई,
हम अनपढ़ आदमी,  क्या पता ?
पर देखाई देता है साफ साफ
कि वो ताक़तवर है अभी भी

अभी भी जैसे राज चलता है हम पे
उनका ही— एह ! 
कौन गिनता है हमें
और कहाँ कितना गिनता है
डंगर  की तरह जुते हुए हैं  उन्ही की चाकरी में – एह !

तो केलङ से बरलचा के रास्ते में
जीह के ओर्ले तर्फ एक गग्गड़  मिलता है आप को
पेले तो क्या घर क्या पेड़ कुच्छ नहीं था
खाली ही तो था – एह !
अब रुळिङ्बोर केते कोई दो चार घर बना लिए हैं  
नाले के सिरे पे जो भी लाल पत्थर है
लाल भी क्या होणा अन्दर तो सुफेदै है
सब बाढ़ ने लाया है
एक दम बेकार
फाड़  मारो , बिखर जाएगा
कुबद का खान ऊपर ढाँक पर है
पहाड़ से सटा हुआ एक दम काला पत्थर
लक्कड़ जैसा मुलायम और साफ
काम करने को सौखा – एह !


बल्ती लोग थे तो मुसलमान
पर काम बड़ा पक्का किया
सब पानी का कुहुल
सारी पत्थर की घड़ाई
लौह्ल का सारा घर मे कुबद इन लोग बनाया
अस्सल जिम्दारी लौह्ल मे इन के बाद आया
बड़ा बड़ा से:रि इनो ही कोता --- एह !
और बेशक धरम तब्दील नही किया
जिस आलू की बात आज वो  फकर से करते हैं
पता है, मिशन वाले ने उगाया
पैले क्या था ?

और हमारा आदमी असान फरमोश
गदर हुआ तो नालो के अन्दर भेड़ बकरी की तरह काट दिया
औरत का ज़ेबर छीना
बच्चा मार दिया
ए भगवान
कितना तो भगा दिया बोला जोत लंघा के
देबी सींग ने
हमारा ताऊ ने
मुंशी साजा राम ने
सब रेम् दिल भलमाणस थे --- एह !

और बंगाली पंजाबी  साब भादर लोगों ने क्या किया
अंग्रेज से मिल कर
सब कीम्ती कीम्ती आईटम अम्रीका और लन्दन पुचाया
अजाबघ्रर बनाने के लिए – एह !

पेले भी हम ने कोई छोटे कारनामे नही किए
जब विलायत मे जंग अज़ीम  हुआ
जर्मन को यह मुलक खाली करने का फरमान हुआ
औने पौने मे चलता किया पादरी लोग को
सैंकड़ों बीघे दबा के बैठ गया 
ये सब तेज़ खोपड़ी
पटवारी अपणा मुंशी अपणा
तसिलदार को अंग्रेज़ अश्टंड की शय
बास्स्स जी ,   
ताक़त पास मे हो तो दमाग और भी तेज़ घूमता
बहुत तेज़ी से  और एकदम उलटा  
फिर हो गया  पूरा कौम बदनाम एकाध आदमी करके
एक मछली ,
सारा तलाप खन – खराप ,  एह !

और पत्थरों के बारे में जो बातें थीं
वो भी लगभग वैसी ही थीं
कि उन मे से कुछ दर्ज वाले होते हैं
और कुछ बिना दर्ज वाले होते हैं

कि परतें कैसे बैठी रहतीं हैं
एक पर एक चिपकी हुईं
कि कहाँ कैसी कितनी चोट पड़ने पर
दर्ज दिखने लग जाते हैं साफ – साफ
जैसा मर्ज़ी पत्थर ले आईए आप
और जहाँ तक घड़ाई की बात है
चाहे एक अलग् थलग दीवार चिननी हो
या  नया घर ही
या कुछ भी बनाना हो
दर्ज वाले पत्थर तो  बिल्कुल कामयाब नहीं हैं

आप ध्यान देंगे तो पता चलेगा
वह एक बिना दर्ज वाला पत्थर ही हो सकता है
जो गढ़ा जा सकता है मन मुआफिक़
कितने चाहे क्यूब काट लो उस के
और लम्बे में , मोटे में
कैसे भी डंडे निकाल लो
बस पहला फाड़ ठीक पड़ना चाहिए
और
बशर्ते कि मिस्त्री काँगड़े का हो – एह !

मिस्तरी तो कनौरिये भी ठीक हैं
कामरू का क़िला देखा है
बीर भद्दर वाला ?

अजी वो कनौरियों ने थोड़े बणाया
वो तो सराहणी रामपुरिए होणे

रेण देओ माहराज, काय के रामपुरिए
यहीं बल्हड़ थे सारे के सारे
सब साँगला में बस गए भले बकत में
रोज़गार तो था नहीं कोई
जाँह राजा ठाकर ले गया , चले गए – एह !

बुशैर का लाका है तो बसणे लायक , वाक़ई...... 

धूड़ बसणे लायक !
पूह तक तो बुरा ही हाल है
ढाँक ही ढाँक
नीचे सतलज – एह !

आगे आया चाँग- नको का एरिया
याँह नही बोलता  कनौरी में , कोई नहीं
सारे के सारे भोट आ कर बस गए  ऊपर से – एह !
बाँह की धरती भी उपजाऊ और घास भी मीठी

ञीरू से ले के ञुर्चा तक सब पैदावार
और पहाड़ के ऊपर रतनजोत – एह !

नीचे तो कुछ पैदा नहीं होता
और घास में टट्टी का मुश्क
हे भगवान ....
घोड़े को भी पूरा नहीं होता
पेड़ पर फकत चुल्ली और न्यूज़ा – एह !

कनौर वाला नही खाता अनाज , कोई नहीं
तब तो भाषा भी अजीब है
न भोटी में, न हिन्दी में;  अज्ज्ज्जीब  ही

पर भाई जी
सेब ने उनो  को चमका दिया है – एह !

हिमाचल मे जिस एरिया ने सेब खाया
देख लो
रंग ढंग तो चलो मान लिया
ज़बान ही अलग हो गई है !


सेब हमारे यहाँ था तो पहले से ही
पर जो बेचने वाला फल था
वह एक इसाई ले के आया था
ऐसा नही कि कुल्लू को सेब ने ही उठाया था
क्या क्या धन्दे थे कैसे कैसे
किस को मालूम नहीं ?

वो तो कोई गोकल राम था
जो पंडत नेहरू के ठारा बार पुकारने पे  भी
तबेले में छिपा रहा था
पनारसा  के निचली तरफ
और ठारा दिन उस की मशीन रुकी रही
पानी से चलती थी भले बकत में

लाहौर की बी ए थी अगले की
पर ज़मीर  के मारे बाहर नहीं आया
तो क़िस्मत भी बचारे की तबेले में बन्द हो गई

चुस्त लोगो ने सोसाटीयाँ  बणा के
ज़मीने कराई अपने नाम
आज मालिक बने हुए सब  
पलाट काट  के बेच रहा है
कलोनी खड़ी कर दी अगलो  ने
कौण पूछ सकता है ? 
और असल मे कुल्लू तो जिमदारों का था
हेंडलूम काँह से आया 
ऊपर का ब्यांगी – पशम  बास जी
सारी दस्तकारी जोलाह जात की – एह !
सब के सब कन्नौर से आए पूछ लो किसी से
छट्टनसेरी  से पतलीकूहल तक और इक्का दुक्का तो जाँह कहीं
गाँव के  गाँव बोलो  उठ के आ गए
अब ऐसा न भई जी ध्यात  मे  पूँजी तो थी नही
जो लाले थे पंजाबी और रफूजीयों के पास  धन होता था 
छिपा के लाया हुआ , चल गया कारोबार –एह !
ऊपर से जंगलाटी मे भी तर गए कुछ लोग
एक नम्बर भी , दो नम्बर भी
टिम्बर और भंग  बूटी
अब तो हॉटल टेक्सी का ज़माना है
बतहाशा पैसा  फैंक जाता है टूरिश्ट 
मैं केता हूँ कि लग्गे रेणा पड़्ता है

क्या पता कब दरवाज़ा खुल जाए – एह !

आखीर मे जब  वहाँ से चलने को हुआ  चुपचाप
तो तय था कि बातों की जो परतें थीं
वे तो हू ब हू  वैसी ही थीं
जैसी समुदायों , मुल्कों , पत्थरों, घोड़ों, धन्धों  और तमाम
ऐसी चीज़ों के होने व बने रहने की शर्तें थीं
एक के भीतर से खुलती हुई दूसरी
कहीं कहीं नज़र आ जाती कोई तीसरी भी
बारीकियों में छिपी हुई
जहाँ कोई जाना नही चाहता था
उन के वाचिक इतिहास को छोड़ कर

सच बात तो यह है कि
किसी भी बात को कह देने  के लिए आप को आवाज़ नहीं होना होता
जब कि परतों के भीतर का सच  सुनने के लिए आप को पूरा एक कान
और देख पाने के लिए आँख हो  जाना होता था

मुझे लगा कि यही  था वो अद्भुत समय
बात चीत के बारे बात करने का

कि एक ज़हनी दुनिया मे खर्च हो जाने से बचने के लिए
कितनी बड़ी नैमत है बातचीत ?

बेवजह भारी हुए बिना और बेमतलब अकड़े बिना
कड़क चा सुड़कते हुए,
अभी से तुम कहते रह  सकते हो अपनी  बातें
गलत सलत, टूटी फूटी जैसे भी
क्यों कि तय है , एक दिन तुम चुप हो जाने वाले हो

और अंतिम वाक्य सुना देता हूँ
जिसे छोड़ कर चले जाने का क़तई मन नहीं था --

इस दुआ सलाम और गप ठप से  बड़ा
सत्त नही होता ,  कोई नहीं, भई जी  
वैसे भी  इस धम्मड़ धूस  दुनिया के अन्दर  
उतने बड़े  सत्त  को ले के चाटणा है कि क्या  
जेह बता दो  तुम मेरे को  – एह ?

कुल्लू – 25.3.2011

बुधवार, फ़रवरी 15, 2012

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है


१३ फ़रवरी का दिन अदबी दुनिया के लिए खासी मनहूसियत से भरा साबित हुआ, जिसने कथाकार विद्या सागर नौटियाल और शहरयार को हमसे छीन लिया. शहरयार की यह ग़ज़लें इन दोनों शख्सियतों को याद करते हुए :

1
अब तुझे भी भूलना होगा मुझे मालूम है
बाद इसके और क्या होगा मुझे मालूम है.

नींद आएगी, न ख्वाब आएँगे हिज्रांरात में
जागना, बस जागना होगा मुझे मालूम है.

इक मकां होगा, मकीं होगा न कोई मुन्तजिर
सिर्फ दरवाज़ा खुला होगा मुझे मालूम है.

आगे जाना, और भी कुछ आगे जाना है मगर
पीछे मुडकर देखना होगा मुझे मालूम है.

ज़िन्दगी के इस तमाशे में किसी इक मोड पर
कोई शामिल दूसरा होगा मुझे मालूम है.

2
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है

ये किस मुकाम पर हयात मुझ को लेके आ गई
न बस ख़ुशी पे है जहाँ न ग़म पे इख़्तियार है

तमाम उम्र का हिसाब माँगती है ज़िन्दगी
ये मेरा दिल कहे तो क्या ये ख़ुद से शर्मसार है

बुला रहा क्या कोई चिलमनों के उस तरफ़
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है

न जिस की शक्ल है कोई न जिस का नाम है कोई
इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इंतज़ार है

3
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है

तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है

हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है

शनिवार, जनवरी 28, 2012

कुकुरमुत्ता - निराला

बसंत पंचमी (निराला जयंती) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ महाकवि निराला को नमन करते हुए उनकी प्रसिद्ध कविता 'कुकुरमुत्ता' प्रस्तुत है. (चित्र प्रभु जोशी के ब्रुश से साभार)

कुकुरमुत्ता
आया मौसम खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका जमा था रोबोदाब
वहीं गंदे पर उगा देता हुआ बुत्ता
उठाकर सर शिखर से अकडकर बोला कुकुरमुत्ता
अबे, सुन बे गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट;
बहुतों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, खिलाया जाडा घाम;

हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर पर रखकर वह पीछे को भगा,
जानिब औरत के लडाई छोडकर,
टट्टू जैसे तबेले को तोडकर।
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा,
इसलिए साधारणों से रहा न्यारा,
वरना क्या हस्ती है तेरी, पोच तू;
काँटों से भरा है, यह सोच तू;
लाली जो अभी चटकी
सूखकर कभी काँटा हुई होती,
घडों पडता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी।
चाहिये तूझको सदा मेहरुन्निसा
जो निकले इत्रोरुह ऐसी दिसा
बहाकर ले चले लोगों को, नहीं कोई किनारा,
जहाँ अपना नही कोई सहारा,
ख्वाब मे डूबा चमकता हो सितारा,
पेट मे डंड पेलते चूहे, जबाँ पर लफ़्ज प्यारा।

देख मुझको मै बढा,
डेढ बालिश्त और उँचे पर चढा,
और अपने से उगा मै,
नही दाना पर चुगा मै,
कलम मेरा नही लगता,
मेरा जीवन आप जगता,
तू है नकली, मै हूँ मौलिक,
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक,
तू रंगा, और मै धुला,
पानी मैं तू बुलबुला,
तूने दुनिया को बिगाडा,
मैने गिरते से उभाडा,
तूने जनखा बनाया, रोटियाँ छीनी,
मैने उनको एक की दो तीन दी।

चीन मे मेरी नकल छाता बना,
छत्र भारत का वहाँ कैसा तना;
हर जगह तू देख ले,
आज का यह रूप पैराशूट ले।
विष्णु का मै ही सुदर्शन चक्र हूँ,
काम दुनिया मे पडा ज्यों, वक्र हूँ,
उलट दे, मै ही जसोदा की मथानी,
और भी लम्बी कहानी,
सामने ला कर मुझे बैंडा,देख कैंडा,
तीर से खींचा धनुष मै राम का,
काम का
पडा कंधे पर हूँ हल बलराम का;
सुबह का सूरज हूँ मै ही,
चाँद मै ही शाम का;
नही मेरे हाड, काँटे, काठ या
नही मेरा बदन आठोगाँठ का।
रस ही रस मेरा रहा,
इस सफ़ेदी को जहन्नुम रो गया।
दुनिया मे सभी ने मुझ से रस चुराया,
रस मे मै डुबा उतराया।
मुझी मे गोते लगाये आदिकवि ने, व्यास ने,
मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने
देखते रह गये मेरे किनारे पर खडे
हाफ़िज़ और टैगोर जैसे विश्ववेत्ता जो बडे।
कही का रोडा, कही का लिया पत्थर
टी.एस.ईलियट ने जैसे दे मारा,
पढने वालो ने जिगर पर हाथ रखकर
कहा कैसा लिख दिया संसार सारा,
देखने के लिये आँखे दबाकर
जैसे संध्या को किसी ने देखा तारा,
जैसे प्रोग्रेसीव का लेखनी लेते
नही रोका रुकता जोश का पारा
यहीं से यह सब हुआ
जैसे अम्मा से बुआ ।

शनिवार, जनवरी 21, 2012

मैं इनकार क्यों करूँ : एलिस वाकर (अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र)

(1944 में जनमी अमेरिका की प्रख्यात अश्वेत कवि और एक्टिविस्ट )













मैं
इनकार क्यों करूँ
क्यों रोकूँ अपने होंठ
और उनकी मुस्कान...
मैं इनकार क्यों करूँ
क्यों छुपाऊँ अपना दिल
और उनके दुःख...
मैं इनकार क्यों करूँ
फेरूँ अपनी आँखें
और उनके आँसू...
मैं इनकार क्यों करूँ
बाँध कर रखूं अपनी लटें
और उनमें बसी हुई
अपनी उम्र की आवारगी...
मैं करुँगी भी तो
ऐसा कुछ भी नहीं है मेरे पास अपना
जिसको इनकार करूँगी.

सोमवार, जनवरी 16, 2012

मछलियाँ : नरेश सक्सेना

हिन्दी कविता में नरेश सक्सेना की उपस्थित के मायने कविता में कोमल संवेदना का बचा रहना है। जब तक ऐसी कविताएँ लिखी जाती रहेंगी, कविता जिन्दा रहेगी। उनके जन्मदिन पर शुभकामनाओं के साथ आपके साथ साझा करने का मन है उनकी यह प्यारी सी कविता -

मछलियाँ
एक बार हमारी मछलियों का पानी मैला हो गया था
उस रात घर में साफ पानी नहीं था
और सुबह तक सारी मछलियाँ मर गयी थीं
हम यह बात भूल चुके थे

एक दिन राखी अपनी कापी और पेंसिल देकर
मुझसे बोली
पापा, इस पर मछली बना दो
मैंने उसे छेड़ने के लिए कागज पर लिख दिया - मछली
कुछ देर राखी उसे गौर से देखती रही
फिर परेशान होकर बोली - यह कैसी मछली !
पापा, इसकी पूँछ कहाँ और सिर कहाँ
मैंने उसे समझाया
यह मछली का म
यह छ, यह उसकी ली
इस तरह लिखा जाता है - म...छ...ली
उसने गम्भीर होकर कहा - अच्छा ! तो जहाँ लिखा है मछली
वहाँ पानी भी लिख दो
तभी उसकी माँ ने पुकारा तो वह दौड़कर जाने लगी
लेकिन अचानक मुड़ी और दूर से चिल्लाकर बोली
साफ पानी लिखना पापा।

शनिवार, जनवरी 14, 2012

उठा नहीं सूरज बिस्तर से: जाड़े के गीत (अश्वघोष)

बहुत दिनों से अश्वघोष के ये गीत ‘काव्य-प्रसंग’ पर लगाने का मन था, लेकिन वही...जाड़े का आलस। खैर, देर से ही सही... प्रस्तुत हैं उनके तीन नवगीत -

शीत
आ रहा है शीत
मैं अभी से,
हो रहा भयभीत

रात भारी-सी
लगेगी बिन
रजाई के,
टूटे हुए
पाए पड़े हैं
चारपाई के

ठंड में
सिकुड़ा रहेगा
कोट बिन ‘नवनीत’

पिछले बरस भी
ऊन को
रोती रही गीता
सारा बरस
मजबूरियों के
नाम पर बीता
सोचता हूँ
किस तरह से हो सकेगा
यह बरस व्यतीत
आ रहा है शीत।

जाड़े की धूप
कल करेंगे
जो भी करना
आज तो बस
धूप से बातें करें

एक मुद्दत
बाद तो
यह लाजवंती
द्वार आई है
बर्फ में
भीगे हुए
कुछ गुनगुने संवाद
अपने साथ लाई है

क्या कहेगा
कल ज़माना
सोचकर हम क्यों डरें
आज तो बस धूप से बातें करें

क्या कभी भी
एक पल
अपनी खुशी से
भोग पाते हैं ?
रोटियों के
व्याकरण में ही
समूचा दिन गँवाते हैं

आज की इस
भूमिका को
कल तलक
सारांश के घर में धरें
आज तो बस धूप से बातें करें।

कोहरा
पता नहीं किस ज़ालिम डर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से

मुख पर हाथ धरे कोलाहल
ढूँढ़ रहा इस जड़ता का हल
पक्षी व्याकुल बुरी ख़बर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से

चूल्हा लेता हैं अँगड़ाई
अभी गोद में आँच न आई
चूक हुई क्या पूरे घर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से

तरस रहे पोथी में आखर
गूँजे नहीं चेतना के स्वर
बंद पड़े हैं खुले मदरसे
उठा नहीं सूरज बिस्तर से

रविवार, जनवरी 08, 2012

कर्मनाशा : सिद्धेश्वर सिंह

कवि सिद्धेश्वर सिंह का कविता-संग्रह ‘कर्मनाशा’ अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। आवरण रवीन्द्र व्यास के ब्रश से और फ्लैप अशोक कुमार पाण्डेय व अजेय ने लिखा है। काव्य-प्रसंग की ओर से उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ प्रदान करते हुए प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ -

दिन : वे दिन, ये दिन
( बरास्ता निर्मल वर्मा )

वे दिन सचमुच थे 'वे दिन'
जब 'लाल टीन की छत' से
दिखाई देती थी 'चीड़ों पर चाँदनी'
जबकि 'बीच बहस में'
हुआ करती थी दुनिया की 'जलती झाड़ी'
व 'शब्द और स्मृति' पर मँडराते दीख जाते थे
'कव्वे और काला पानी'।
तब
'ढलान से उतरते हुए' हम
अपने ही एकान्त में
तलाश रहे होते थे 'एक चिथड़ा सुख'
ये वे दिन थे
जब 'रात का रिपोर्टर'
'हर बारिश में' सुना करता था
'धुन्ध से उठती धुन'
क्या सचमुच
वे दिन और दिन थे - एक 'दूसरी दुनिया' ?
अब
कोई नहीं कहता कि सुनो 'मेरी प्रिय कहानियां'
अब
'शताब्दी के ढलते वर्षों में'
तय नहीं है
किसी का कोई 'अंतिम अरण्य'
सबके पास सुरक्षित हैं - 'सूखा तथा अन्य कहानियाँ'
अपने - अपने हिस्से के 'तीन एकान्त'
और 'पिछली गर्मियों में' की गईं यात्राओं की थकान।
अब
कलाकृतियों के जख़ीरे में सब है
बस नहीं है तो 'कला का जोखिम'
और न ही कोई 'इतिहास स्मृति आकांक्षा'
यह कोई संसार है
अथवा एक संग्रहालय उजाड़ !
पहाड़ अब भी उतने ही ऊँचे है
हिम अब भी उतना ही धवल
कहीं वाष्प बन उड़ तो नहीं गए निर्मल जल के प्रपात
रात के कोटर से अब भी झाँकता है सूर्य कपोत
परित्यक्त बावड़ी में अब भी खिलती है कँवल पाँत।
घास की नोक पर ठहरी हुई
ओस की एक अकेली बूँद से बतियाते हुए हम
बुदबुदाते हैं - वे दिन , वे दिन
और अपने ही कानों तक
पहुँच नहीं पा रही है कोई आवाज।

नया साल
हर बार कैलेन्डर आखिरी पन्ना
हो जाता है सचमुच का आखिरी
हर बार बदलती है तारीख
और हर बार आदतन
उंगलियाँ कुछ समय तक लिखती रहती हैं
वर्ष की शिनाख्त दर्शाने वाले पुराने अंक।

हर बार झरते हैं वृक्ष के पुराने पत्ते
हर बार याद आती है
कोई भूली हुई - सी चीज
हर बार अधूरा - सा रह जाता है कोई काम
हर बार इच्छायें अनूदित होकर बनती हैं योजनायें
और हर बार विकल होता है
सामर्थ्य और सीमाओं का अनुपात।

हर बार एक रात बीतती है -
कु्छ - कुछ अँधियारी
कुछ - कुछ चाँदनी से सिक्त
हर बार एक दिवस उदित होता है -
उम्मीदों की धूप से गुनगुना
और उदासी के स्पर्श क्लान्त।

रोहतांग
यहाँ सब कुछ शुभ्र है
सब कुछ धवल
बीच में बह रही है
सड़कनुमा एक काली लकीर।
ऊपर दमक रहा है
ऊष्मा से उन्मत्त सूर्य
जिसके ताप से तरल होती जा रही है
हिमगिरि की सदियों पुरानी अचल देह।
सैलानियों के चेहरे पर
दर्प है ऊँचाई की नाप- जोख का
पसरा है
विकल बेसुध वैभव विलास।
मैं भ्रम में हूँ
या कोई जादू है जीता जागता
इस छोर से उस छोर तक
रचता हुआ अपना मायावी साम्राज्य.

निरगुन
सादे कागज पर
एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर।
दो लकीरों के बीच
इतनी सारी जगह
कि समा जाए सारा संसार।
नामूल्लेख के लिए
इतना छोटा शब्द
कि ढाई अक्षरों में पूरा जाए कार्य व्यापार।
एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर
शायद इसी के गुन गाते हैं
अपने निरगुन में सतगुरु कबीर

घृणा
वे घृणा करते हैं उनसे
जो घृणित हैं
वे घृणा करते है उनसे भी
जो घृणित होने जा रहे हैं
निकट भविष्य में
वे घृणा करते हैं
घृंणा शब्द से
फिर भी
बार उच्चरित करते हैं यह ( घृणित ) शब्द
वे घृणा करते हैं कमरे के सूनेपन से
वे घृणा करते हैं बहर के शोरगुल से
वे घृणा करते हैं खुँटियाई हुई दाढ़ी से
वे घृणा करते हैं घिसे हुए ब्लेड से
वे घृणा करते हैं प्रेमिकाओं और परस्त्रियों से
वे घृणा करते हैं नौकरी और सरकार से
अंतत:
वे अपने आप से भी घृणा करने से नहीं चूकते।
वे सुखी हैं
वे कुछ नहीं करते
बस घृणा करते है।

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संपर्क :
सिद्धेश्वर सिंह
ए-०३, ऑफिसर्स कालोनी,टनकपुर रोड, अमाऊँ
पो- खटीमा (जिला -ऊधमसिंह नगर) उत्तराखंड
पिन- २६२३०८ मोबाइल -०९४१२९०५६३२
ईमेल- sidhshail@gmail.com


'कर्मनाशा' ( कविता संग्रह) २०१२ - सिद्धेश्वर सिंह
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एकसटेंशन-II, गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.), फोन : 0120-2648212 मोबाइल नं.9871856053, ई-मेल: antika.prakashan@antika-prakashan.com, antika56@gmail.com, मूल्य : रु. 225

सोमवार, जनवरी 02, 2012

कोई भी अन्त अन्तिम नहीं


वर्ष - 2012 क्या शुरू हुआ, कुछ अजीब-अजीब सी बातें सुनने को मिलीं .. माया कैलेंडर वगैरह-वगैरह ... मुझे तो लगता है कि ‘दुनिया रोज बनती है’ और ‘रोज नष्ट होती है’। लेकिन ... जीवन बचा रहता है। इसीलिए आज अपनी एक पुरानी कविता को पोस्ट पर लगा रहा हूँ।

कोई भी अन्त अन्तिम नहीं
प्रलय के बाद भी
बचे रहेंगे कुछ लोग
असीम लहरों को
अपने हाथों से काटते हुए
कि कोई भी अन्त अन्तिम नहीं

एक सूर्य बुझने से पहले
टाँक दिया जाएगा
नया सूर्य क्षितिज पर
सिर्फ एक इतराते सूर्य पर
नहीं टिकी दुनिया

खेतों से फिर उठेगी हरी गंध
बिखेरेंगी रंग तितलियाँ
अमराइयों में गाएगी कोयल अमरत्व

फिर
फिर-फिर
गौरवपूर्ण थकान
और
चिंथी हुईं उँगलियों के बीच से
फूटेंगे कई सूर्य।