बुधवार, जुलाई 13, 2011

नये इलाके में: अरुण कमल

इन नये बसते इलाकों में
जहाँ रोज बन रहे हैं नये-नये मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ

धोखा दे जाते हैं पुराने निशान
खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और जमीन का खाली टुकड़ा जहाँ से बायें
मुड़ना था मुझे
फिर दो मकान बाद बिना रंग वाले लोहे के फाटक का
घर था इकमंजिला

और मैं हर बार एक घर पीछे
चल देता हूँ
या दो घर आगे ठकमकाता

यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं
एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे वसन्त का गया पतझड़ को लौटा हूँ
जैसे बैशाख का गया भादों को लौटा हूँ

अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो -
क्या यही है वो घर ?

समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।

* कवि का फोटो hindilekhak.blogspot.com/2007/12/blog-post_4259.html से साभार

1 टिप्पणी:

  1. ek hi din me purani pad jaati hai ye duniyaa '' naman arun jee ap ko in panktiyon ke sath , behad sunder rachna samsaayk hai . har roj duniyaa badal rahi hai .
    sadhuwad
    --

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