मंगलवार, जून 29, 2010

परमेन्द्र सिंह की कविता : जूता और पाँव



एक-
पाँव कब सफर करते हैं
सफर तो जूते करते हैं

कँटीले-पथरीले रास्तों पर
सबसे पहले
लहूलुहान होते हैं जूते ही।

करते हैं लगातार रक्षा
पाँवों की
योद्धा की ढाल की तरह।

जूते आते हैं
जूते जाते हैं
पर पाँव !
पाँव अमर हो जाते हैं।

दो-
जब भी गुस्से में
पटके जाते हैं पाँव
आहत होते हैं
जूते ही।

तीन-
अगर
सही नाप का न हो
जूता
तो बेडौल हो जाता है।

एक सक्षम जूता
रोकता है
पैर के अनुचित फैलाव को।

चार-
कदमताल मिलाते
चल पड़े हैं
शहर-भर के जूते
पाँव समेत
एक हाथी के पाँव का
जूता बनने।

पांच-
सपनो में
अक्सर डर जाते हैं अकेले पाँव
क्योंकि
जूता उस वक्त साथ नहीं होता।

सोमवार, जून 21, 2010

जे. स्वामीनाथन की कविताएँ



(चित्रकार के रूप में ख्यातिप्राप्त जे.स्वामीनाथन की कविताएँ ‘विपाशा’ के सितम्बर-अक्तूबर 94 में प्रकाशित हुई थीं। आज उनके जन्मदिन पर उन्हें स्मरण करते हुए यह पोस्ट.....आज जब सिंथेटिक सी लगने वाली कविताएँ प्लास्टिक के खिलौनों की तरह फैक्टरी से धड़ाधड़ निकल रही हैं, जे. स्वामीनाथन की ये कविताएँ आदिम गंध के कारण अपनी उपस्थिति लगातार बनाए हुए हैं। )

गाँव का झल्ला
हम मानुस की कोई जात नहीं महाराज
जैसे, कौवा कौवा होता है, सुग्गा सुग्गा
और ये छितरी पूँछ वाले अबाबील अबाबील
तीर की तरह ढाक से घाटी में उतरता बाज, बाज
शेर शेर होता है, अकेला चलता है

सियार, सियार
बंदर सो बंदर, और कगार से कगार पर
कूद जाने वाला काकड़ काकड़
जानवर तो जानवर सही
बनस्पति भी अपनी-अपनी जात के होते हैं
कैल कैल है, दयार दयार
मगर हम मानुस की कोई जात नहीं
आप समझे न
मेरा मतलब इससे नहीं कि ये मंगत कोली है
मैं राजपूत
और वह जो पगडंडी पर छड़ी टेकता
लंगड़ाता चला आ रहा है इधर
बामन है, गाँव का पंडत
और आप, आपकी क्या कहें
आप तो पढ़े-लिखे हो महाराज
समझे न आप, हम मानुस की कोई जात नहीं
हम तो बस, समझें आप
कि मुखौटे हैं, मुखौटे
किसी के पीछे कौवा छुपा है
तो किसी के पीछे सुग्गा
सियार भतेरे, भतेरे बंदर
और सब बच्चे काकड़ काकड़या हरिन, क्यों महाराज
शेर कोई कोई, भेड़िये अनेक
वैसे कुछ ऐसे भी, जिनकी आँखों में कौवा भी देख लो
सियार भी, भेड़िया भी
मगर ज़्यादातर मवेशी
इधर उधर सींगें उछाल
इतराते हैं
फिर जिधर को चला दो, चल देते हैं
लेकिन कभी-कभी कोई ऐसा भी टकराता है
जिसके मुखौटे के पीछे, जंगल का जंगल लहराता है
और आकाश का विस्तार
आँखों से झरने बरसते हैं, और ओंठ यों फैलते हैं
जैसे घाटी में बिछी धूप
मगर वह हमारी जात का नहीं
देखा न मंदर की सीढ़ी पर कब से बैठा है
सूरज को तकता, ये हमारे गाँव का झल्ला।


पुराना रिश्ता
परबत की धार पर बाहें फैलाए खड़ा है
जैसे एक दिन
बादलों के साथ आकाश में उड़ जाएगा जंगल
कोकूनाले तक उतरे थे ये देवदार
और आसमान को ले आए थे इतने पास
कि रात को तारे जुगनू से
गाँव में बिचरते थे
अब तो बस
जब मक्की तैयार होती है
तब एक सुसरा रीछ
पास से उतरता है
छापेमार की तरह बरबादी मचाता है
अजी क्या तमंचे, क्या दुनाली बंदूक
सभी फेल हो गये महाराज
बस, अपने ढंग का एक ही, बूढ़ा खुर्राट
न जाने कहाँ रह गया इस साल


सेव और सुग्गा
मैं कहता हूँ महाराज
इस डिंगली में आग लगा दो
पेड़ जल जाएँगे तो कहाँ बनाएँगे घांेसले
ये सुग्गे
देखो न, इकट्ठा हमला करते हैं
एक मिनट बैठे, एक चोंच मारा और गये
कि सारे दाने बेकार
सुसरों का रंग कैसा चोखा है लेकिन
देखो न
बादलों के बीच हरी बिजली कौंध रही है
भगवान का दिया है
लेने दो इनको भी अपना हिस्सा
क्यों महाराज ?


दूसरा पहाड़
यह जो सामने पहाड़ है
इसके पीछे एक और पहाड़ है
जो दिखायी नहीं देता
धार-धार चढ़ जाओ इसके ऊपर
राणा के कोट तक
और वहाँ से पार झाँको
तो भी नहीं
कभी-कभी जैसे
यह पहाड़
धुध में दुबक जाता है
और फिर चुपके से
अपनी जगह लौटकर ऐसे थिर हो जाता है
मानों कहीं गया ही न हो
- देखो न
वैसे ही आकाश को थामे खड़े हैं दयार
वैसे ही चमक रही है घराट की छत
वैसे ही बिछी हैं मक्की की पीली चादरें
और डिंगली में पूँछ हिलाते डंगर
ज्यों के त्यों बने हैं, ठँूठ सा बैठा है चरवाहा
आप कहते हो, वह पहाड़ भी
वैसे ही धुंध में लुपका है, उबर आयेगा
अजी ज़रा आकाश को तो देखो
कितना निम्मल है
न कहीं धुंध, न कोहरा, न जंगल के ऊपर अटकी
कोई बादल की फुही
वह पहाड़ दिखायी नहीं देता महाराज
उस पहाड़ में गूजरों का एक पड़ाव है
वह भी दिखायी नहीं देता
न गूजर, न काली पोशाक तनी
कमर वाली उनकी औरतें
न उनके मवेशी न झबड़े कुत्ते
रात में जिनकी आँखें
अंगारों सी धधकती हैं
इस पहाड़ के पीछे जो वादी है महाराज
वह वादी नहीं, उस पहाड़ की चुप्पी है
जो बघेरे की तरह घात लगाये बैठा है।


जलता दयार
झींगुर टर्राने लगे हैं
और खड्ड में दादुर
अभी हुआ-हुआ के शोर से
इस चुप्पी को छितरा देंगे सियार
ज़रा जल्दी चलें महाराज
यह जंगल का टुकड़ा पार हो जाये
फिर कोई चिंता की बात नहीं
हम तो शाट-कट से उतर रहे हैं
वर्ना अब जंगल कहाँ रहे
देखा नहीं आपने
ठेकेदार के उस्तरे ने
इन पहाड़ों की मुंडिया किस तरह साफ कर दी
डर जानवरों का नहीं महाराज
वे तो खुद हम आप से डरकर
कहीं छिपे पड़े होंगे
डर है उस का
उस एक बूढ़े दयार का
जो रात के अँधेरे में कभी-कभी निकलता है
जड़ से शिखर तक
मशाल सा जल उठता है
एक जगह नहीं टिकता
संतरी की तरह इस जंगल में गश्त लगाता रहता है
उसे जो देख ले
पागल कुत्ते के काटे के समान
पानी के लिए तड़प-तड़पकर
दम तोड़ देता है
ज़रा हौसला करो महाराज
अब तो बस, बीस पचास कदम की बात है
वह देखो उस सितारे के नीचे
बनिये की दूकान की लालटेन टिमटिमा रही है
वहाँ पहुँचकर
घड़ी भर सुस्ता लेंगे।


मनचला पेड़
बीज चले रहते हैं हवा के साथ
जहाँ गिरते हैं हम जाते हैं ढीठ
बिरक्स बन जाते हैं
और टिके रहते हैं कमबख्त
बगलों की तरह, या कि जोगी हैं महाराज
आज तो आकाश निम्मल है
पर पार साल
पानी ऐसा बरसा कि पूछो मत
हम पहाड़ के मानुस भी सहम गये
एक रात
ढाक गिरा और उसके साथ
हमारा पंद्रह साल बूढ़ा रायल का पेड़
जड़ समेत उखड़कर चला आया
धार की ऊँचाई से धान की क्यार तक
(अब जहाँ खड़ा था वहाँ तुझे तकलीफ थी
यार बोरड़ खा गये थे बेवकूफ)
सेटिंग ठीक होने पर दस पेटी देता था, दस
मैं तो सिर पीटकर रह गया मगर
लंबरदारिन ने नगाड़े पर दी चोट पर चोट
इकट्ठा हो गया सारा गाँव
गड्ढा खोदा, रात भर लगे रहे पानी में
और खड़ा किया मनचले को नये मुकाम पर
अचरज है, सुसरा इस साल फिर फल से लदा है


कौन मरा
वह आग देखते हो आप
सामने वह जो खड्ड में पुल बन रहा है
अरे, नीचे नाले में वह जो टरक ज़ोर मार रहा था
पार जाने के लिए
ठीक उसकी सीध में
जहाँ वह बेतहाशा दौड़ती, कलाबाजियाँ खाती
सर धुनती नदिया
गिरिगंगा में जा भिड़ी है
वहीं किनारे पर है, हमारे गाँव का श्मशान
ऊपर पुड़ग में या पार जंगल के पास
मास्टर के गाँव में
या फिर ढाक पर ये जो दस-बीस घर टिके हैं

या अपने ही इस चमरौते में
जब कोई मानुस खत्म हो जाता है
तब हम लोग नगाड़े की चोट पर
उसे उठाते हुए
यहीं लाते हैं, आग के हवाले करते हैं
लेकिन महाराज
न कोई खबर न संदेसा
न घाटी में कहीं नगाड़े की गूँज
सुसरी मौत की सी इस चुप्पी में
यह आग कैसे जल रही है।
(पोस्ट में प्रकाशित सभी चित्र ललित कला अकादमी के कैटेलोग से साभार)