शनिवार, जनवरी 28, 2012

कुकुरमुत्ता - निराला

बसंत पंचमी (निराला जयंती) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ महाकवि निराला को नमन करते हुए उनकी प्रसिद्ध कविता 'कुकुरमुत्ता' प्रस्तुत है. (चित्र प्रभु जोशी के ब्रुश से साभार)

कुकुरमुत्ता
आया मौसम खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका जमा था रोबोदाब
वहीं गंदे पर उगा देता हुआ बुत्ता
उठाकर सर शिखर से अकडकर बोला कुकुरमुत्ता
अबे, सुन बे गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट;
बहुतों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, खिलाया जाडा घाम;

हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर पर रखकर वह पीछे को भगा,
जानिब औरत के लडाई छोडकर,
टट्टू जैसे तबेले को तोडकर।
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा,
इसलिए साधारणों से रहा न्यारा,
वरना क्या हस्ती है तेरी, पोच तू;
काँटों से भरा है, यह सोच तू;
लाली जो अभी चटकी
सूखकर कभी काँटा हुई होती,
घडों पडता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी।
चाहिये तूझको सदा मेहरुन्निसा
जो निकले इत्रोरुह ऐसी दिसा
बहाकर ले चले लोगों को, नहीं कोई किनारा,
जहाँ अपना नही कोई सहारा,
ख्वाब मे डूबा चमकता हो सितारा,
पेट मे डंड पेलते चूहे, जबाँ पर लफ़्ज प्यारा।

देख मुझको मै बढा,
डेढ बालिश्त और उँचे पर चढा,
और अपने से उगा मै,
नही दाना पर चुगा मै,
कलम मेरा नही लगता,
मेरा जीवन आप जगता,
तू है नकली, मै हूँ मौलिक,
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक,
तू रंगा, और मै धुला,
पानी मैं तू बुलबुला,
तूने दुनिया को बिगाडा,
मैने गिरते से उभाडा,
तूने जनखा बनाया, रोटियाँ छीनी,
मैने उनको एक की दो तीन दी।

चीन मे मेरी नकल छाता बना,
छत्र भारत का वहाँ कैसा तना;
हर जगह तू देख ले,
आज का यह रूप पैराशूट ले।
विष्णु का मै ही सुदर्शन चक्र हूँ,
काम दुनिया मे पडा ज्यों, वक्र हूँ,
उलट दे, मै ही जसोदा की मथानी,
और भी लम्बी कहानी,
सामने ला कर मुझे बैंडा,देख कैंडा,
तीर से खींचा धनुष मै राम का,
काम का
पडा कंधे पर हूँ हल बलराम का;
सुबह का सूरज हूँ मै ही,
चाँद मै ही शाम का;
नही मेरे हाड, काँटे, काठ या
नही मेरा बदन आठोगाँठ का।
रस ही रस मेरा रहा,
इस सफ़ेदी को जहन्नुम रो गया।
दुनिया मे सभी ने मुझ से रस चुराया,
रस मे मै डुबा उतराया।
मुझी मे गोते लगाये आदिकवि ने, व्यास ने,
मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने
देखते रह गये मेरे किनारे पर खडे
हाफ़िज़ और टैगोर जैसे विश्ववेत्ता जो बडे।
कही का रोडा, कही का लिया पत्थर
टी.एस.ईलियट ने जैसे दे मारा,
पढने वालो ने जिगर पर हाथ रखकर
कहा कैसा लिख दिया संसार सारा,
देखने के लिये आँखे दबाकर
जैसे संध्या को किसी ने देखा तारा,
जैसे प्रोग्रेसीव का लेखनी लेते
नही रोका रुकता जोश का पारा
यहीं से यह सब हुआ
जैसे अम्मा से बुआ ।

शनिवार, जनवरी 21, 2012

मैं इनकार क्यों करूँ : एलिस वाकर (अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र)

(1944 में जनमी अमेरिका की प्रख्यात अश्वेत कवि और एक्टिविस्ट )













मैं
इनकार क्यों करूँ
क्यों रोकूँ अपने होंठ
और उनकी मुस्कान...
मैं इनकार क्यों करूँ
क्यों छुपाऊँ अपना दिल
और उनके दुःख...
मैं इनकार क्यों करूँ
फेरूँ अपनी आँखें
और उनके आँसू...
मैं इनकार क्यों करूँ
बाँध कर रखूं अपनी लटें
और उनमें बसी हुई
अपनी उम्र की आवारगी...
मैं करुँगी भी तो
ऐसा कुछ भी नहीं है मेरे पास अपना
जिसको इनकार करूँगी.

सोमवार, जनवरी 16, 2012

मछलियाँ : नरेश सक्सेना

हिन्दी कविता में नरेश सक्सेना की उपस्थित के मायने कविता में कोमल संवेदना का बचा रहना है। जब तक ऐसी कविताएँ लिखी जाती रहेंगी, कविता जिन्दा रहेगी। उनके जन्मदिन पर शुभकामनाओं के साथ आपके साथ साझा करने का मन है उनकी यह प्यारी सी कविता -

मछलियाँ
एक बार हमारी मछलियों का पानी मैला हो गया था
उस रात घर में साफ पानी नहीं था
और सुबह तक सारी मछलियाँ मर गयी थीं
हम यह बात भूल चुके थे

एक दिन राखी अपनी कापी और पेंसिल देकर
मुझसे बोली
पापा, इस पर मछली बना दो
मैंने उसे छेड़ने के लिए कागज पर लिख दिया - मछली
कुछ देर राखी उसे गौर से देखती रही
फिर परेशान होकर बोली - यह कैसी मछली !
पापा, इसकी पूँछ कहाँ और सिर कहाँ
मैंने उसे समझाया
यह मछली का म
यह छ, यह उसकी ली
इस तरह लिखा जाता है - म...छ...ली
उसने गम्भीर होकर कहा - अच्छा ! तो जहाँ लिखा है मछली
वहाँ पानी भी लिख दो
तभी उसकी माँ ने पुकारा तो वह दौड़कर जाने लगी
लेकिन अचानक मुड़ी और दूर से चिल्लाकर बोली
साफ पानी लिखना पापा।

शनिवार, जनवरी 14, 2012

उठा नहीं सूरज बिस्तर से: जाड़े के गीत (अश्वघोष)

बहुत दिनों से अश्वघोष के ये गीत ‘काव्य-प्रसंग’ पर लगाने का मन था, लेकिन वही...जाड़े का आलस। खैर, देर से ही सही... प्रस्तुत हैं उनके तीन नवगीत -

शीत
आ रहा है शीत
मैं अभी से,
हो रहा भयभीत

रात भारी-सी
लगेगी बिन
रजाई के,
टूटे हुए
पाए पड़े हैं
चारपाई के

ठंड में
सिकुड़ा रहेगा
कोट बिन ‘नवनीत’

पिछले बरस भी
ऊन को
रोती रही गीता
सारा बरस
मजबूरियों के
नाम पर बीता
सोचता हूँ
किस तरह से हो सकेगा
यह बरस व्यतीत
आ रहा है शीत।

जाड़े की धूप
कल करेंगे
जो भी करना
आज तो बस
धूप से बातें करें

एक मुद्दत
बाद तो
यह लाजवंती
द्वार आई है
बर्फ में
भीगे हुए
कुछ गुनगुने संवाद
अपने साथ लाई है

क्या कहेगा
कल ज़माना
सोचकर हम क्यों डरें
आज तो बस धूप से बातें करें

क्या कभी भी
एक पल
अपनी खुशी से
भोग पाते हैं ?
रोटियों के
व्याकरण में ही
समूचा दिन गँवाते हैं

आज की इस
भूमिका को
कल तलक
सारांश के घर में धरें
आज तो बस धूप से बातें करें।

कोहरा
पता नहीं किस ज़ालिम डर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से

मुख पर हाथ धरे कोलाहल
ढूँढ़ रहा इस जड़ता का हल
पक्षी व्याकुल बुरी ख़बर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से

चूल्हा लेता हैं अँगड़ाई
अभी गोद में आँच न आई
चूक हुई क्या पूरे घर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से

तरस रहे पोथी में आखर
गूँजे नहीं चेतना के स्वर
बंद पड़े हैं खुले मदरसे
उठा नहीं सूरज बिस्तर से

रविवार, जनवरी 08, 2012

कर्मनाशा : सिद्धेश्वर सिंह

कवि सिद्धेश्वर सिंह का कविता-संग्रह ‘कर्मनाशा’ अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। आवरण रवीन्द्र व्यास के ब्रश से और फ्लैप अशोक कुमार पाण्डेय व अजेय ने लिखा है। काव्य-प्रसंग की ओर से उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ प्रदान करते हुए प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ -

दिन : वे दिन, ये दिन
( बरास्ता निर्मल वर्मा )

वे दिन सचमुच थे 'वे दिन'
जब 'लाल टीन की छत' से
दिखाई देती थी 'चीड़ों पर चाँदनी'
जबकि 'बीच बहस में'
हुआ करती थी दुनिया की 'जलती झाड़ी'
व 'शब्द और स्मृति' पर मँडराते दीख जाते थे
'कव्वे और काला पानी'।
तब
'ढलान से उतरते हुए' हम
अपने ही एकान्त में
तलाश रहे होते थे 'एक चिथड़ा सुख'
ये वे दिन थे
जब 'रात का रिपोर्टर'
'हर बारिश में' सुना करता था
'धुन्ध से उठती धुन'
क्या सचमुच
वे दिन और दिन थे - एक 'दूसरी दुनिया' ?
अब
कोई नहीं कहता कि सुनो 'मेरी प्रिय कहानियां'
अब
'शताब्दी के ढलते वर्षों में'
तय नहीं है
किसी का कोई 'अंतिम अरण्य'
सबके पास सुरक्षित हैं - 'सूखा तथा अन्य कहानियाँ'
अपने - अपने हिस्से के 'तीन एकान्त'
और 'पिछली गर्मियों में' की गईं यात्राओं की थकान।
अब
कलाकृतियों के जख़ीरे में सब है
बस नहीं है तो 'कला का जोखिम'
और न ही कोई 'इतिहास स्मृति आकांक्षा'
यह कोई संसार है
अथवा एक संग्रहालय उजाड़ !
पहाड़ अब भी उतने ही ऊँचे है
हिम अब भी उतना ही धवल
कहीं वाष्प बन उड़ तो नहीं गए निर्मल जल के प्रपात
रात के कोटर से अब भी झाँकता है सूर्य कपोत
परित्यक्त बावड़ी में अब भी खिलती है कँवल पाँत।
घास की नोक पर ठहरी हुई
ओस की एक अकेली बूँद से बतियाते हुए हम
बुदबुदाते हैं - वे दिन , वे दिन
और अपने ही कानों तक
पहुँच नहीं पा रही है कोई आवाज।

नया साल
हर बार कैलेन्डर आखिरी पन्ना
हो जाता है सचमुच का आखिरी
हर बार बदलती है तारीख
और हर बार आदतन
उंगलियाँ कुछ समय तक लिखती रहती हैं
वर्ष की शिनाख्त दर्शाने वाले पुराने अंक।

हर बार झरते हैं वृक्ष के पुराने पत्ते
हर बार याद आती है
कोई भूली हुई - सी चीज
हर बार अधूरा - सा रह जाता है कोई काम
हर बार इच्छायें अनूदित होकर बनती हैं योजनायें
और हर बार विकल होता है
सामर्थ्य और सीमाओं का अनुपात।

हर बार एक रात बीतती है -
कु्छ - कुछ अँधियारी
कुछ - कुछ चाँदनी से सिक्त
हर बार एक दिवस उदित होता है -
उम्मीदों की धूप से गुनगुना
और उदासी के स्पर्श क्लान्त।

रोहतांग
यहाँ सब कुछ शुभ्र है
सब कुछ धवल
बीच में बह रही है
सड़कनुमा एक काली लकीर।
ऊपर दमक रहा है
ऊष्मा से उन्मत्त सूर्य
जिसके ताप से तरल होती जा रही है
हिमगिरि की सदियों पुरानी अचल देह।
सैलानियों के चेहरे पर
दर्प है ऊँचाई की नाप- जोख का
पसरा है
विकल बेसुध वैभव विलास।
मैं भ्रम में हूँ
या कोई जादू है जीता जागता
इस छोर से उस छोर तक
रचता हुआ अपना मायावी साम्राज्य.

निरगुन
सादे कागज पर
एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर।
दो लकीरों के बीच
इतनी सारी जगह
कि समा जाए सारा संसार।
नामूल्लेख के लिए
इतना छोटा शब्द
कि ढाई अक्षरों में पूरा जाए कार्य व्यापार।
एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर
शायद इसी के गुन गाते हैं
अपने निरगुन में सतगुरु कबीर

घृणा
वे घृणा करते हैं उनसे
जो घृणित हैं
वे घृणा करते है उनसे भी
जो घृणित होने जा रहे हैं
निकट भविष्य में
वे घृणा करते हैं
घृंणा शब्द से
फिर भी
बार उच्चरित करते हैं यह ( घृणित ) शब्द
वे घृणा करते हैं कमरे के सूनेपन से
वे घृणा करते हैं बहर के शोरगुल से
वे घृणा करते हैं खुँटियाई हुई दाढ़ी से
वे घृणा करते हैं घिसे हुए ब्लेड से
वे घृणा करते हैं प्रेमिकाओं और परस्त्रियों से
वे घृणा करते हैं नौकरी और सरकार से
अंतत:
वे अपने आप से भी घृणा करने से नहीं चूकते।
वे सुखी हैं
वे कुछ नहीं करते
बस घृणा करते है।

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संपर्क :
सिद्धेश्वर सिंह
ए-०३, ऑफिसर्स कालोनी,टनकपुर रोड, अमाऊँ
पो- खटीमा (जिला -ऊधमसिंह नगर) उत्तराखंड
पिन- २६२३०८ मोबाइल -०९४१२९०५६३२
ईमेल- sidhshail@gmail.com


'कर्मनाशा' ( कविता संग्रह) २०१२ - सिद्धेश्वर सिंह
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एकसटेंशन-II, गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.), फोन : 0120-2648212 मोबाइल नं.9871856053, ई-मेल: antika.prakashan@antika-prakashan.com, antika56@gmail.com, मूल्य : रु. 225

सोमवार, जनवरी 02, 2012

कोई भी अन्त अन्तिम नहीं


वर्ष - 2012 क्या शुरू हुआ, कुछ अजीब-अजीब सी बातें सुनने को मिलीं .. माया कैलेंडर वगैरह-वगैरह ... मुझे तो लगता है कि ‘दुनिया रोज बनती है’ और ‘रोज नष्ट होती है’। लेकिन ... जीवन बचा रहता है। इसीलिए आज अपनी एक पुरानी कविता को पोस्ट पर लगा रहा हूँ।

कोई भी अन्त अन्तिम नहीं
प्रलय के बाद भी
बचे रहेंगे कुछ लोग
असीम लहरों को
अपने हाथों से काटते हुए
कि कोई भी अन्त अन्तिम नहीं

एक सूर्य बुझने से पहले
टाँक दिया जाएगा
नया सूर्य क्षितिज पर
सिर्फ एक इतराते सूर्य पर
नहीं टिकी दुनिया

खेतों से फिर उठेगी हरी गंध
बिखेरेंगी रंग तितलियाँ
अमराइयों में गाएगी कोयल अमरत्व

फिर
फिर-फिर
गौरवपूर्ण थकान
और
चिंथी हुईं उँगलियों के बीच से
फूटेंगे कई सूर्य।