मंगलवार, अक्तूबर 13, 2009

... हम भी आते हैं ब्लोग्स की दुनिया में। न जाने कितने ब्लॉग होंगे कवियों के पर अतिरिक्त एक भी नहीं। इसलिए सबसे पहले इसी विश्वास को जमाये रखने और ख़ुद को अतिरिक्त या फालतू न समझने के लिए अपने प्रिय कवि विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता ......


कितना बहुत है (कविता)

- विनोद कुमार शुक्ल
कितना बहुत है
परन्तु अतिरिक्त एक भी नहीं
एक पेड़ में कितनी सारी पत्तियां
अतिरिक्त एक पत्ती नहीं
एक कोंपल नहीं अतिरिक्त
एक नक्षत्र अनगिन होने के बाद !
अतिरिक्त नहीं है गंगा अकेली एक होने के बाद -
न उसका एक कलश गंगाजल,
बाढ़ से भरी एक ब्रह्मपुत्रा
न उसका एक अंजुली जल
और इतना सारा एक आकाश
न उसकी एक छोटी अंतहीन झलक !
कितनी कमी है
तुम ही नहीं हो केवल बंधू
सब ही
परन्तु अतिरिक्त एक बंधू नहीं !