गुरुवार, नवंबर 25, 2010

नींद से लम्बी रात : नवीन सागर

बेहद निराशा के मलबे के नीचे से झांकते उम्मीद के रंग - नवीन सागर की कविताओं का फ्लेवर ग़ज़ब का है इसी की बानगी उनकी ये दो कविताएँ उनके कविता-संग्रह 'नींद से लम्बी रात' (आधार प्रकाशनसे १९९६ में प्रकाशित) से साभार

इस घर में

इस घर में घर से ज़्यादा धुआँ
अँधेरे से ज़्यादा अँधेरा
दीवार से बड़ी दरार।

इस घर में मलबा बहुत
जिसमें से साँस लेने की आवाज़ लगातार
आलों में लुप्‍त ज़िंदगियों का भान
चीज़ों में थकान।

इस घर में सब बेघर
इस घर में भटके हुए मेले
मकड़ी के जालों में लिपटे हुए
इस घर में
झुलसे हुए रंगों के धब्‍बे
सपनों की गर्द पर बच्‍चों की उँगलियों के निशान।

इस घर में नींद से बहुत लम्‍बी रात।

हम बचेंगे अगर
एक बच्‍ची
अपनी गुदगुदी हथेली
देखती है
और धरती पर मारती है
लार और हँसी से सना
उसका चेहरा
अभी इतना मुलायम है
कि पूरी धरती
थूक के फुग्‍गे में उतारे है।

अभी सारे मकान
काग़ज़ की तरह हल्‍के
हवा में हिलते हैं।
आकाश अभी विरल है दूर
उसके बालों को
धीरे-धीरे हिलाती हवा
फूलों का तमाशा है
वे हँसते हुए
इशारे करते हैं:
दूर-दूरान्‍तरों से
उत्‍सुक काफ़िले
धूप में चमकते हुए आएँगे।

सुंदरता!
कितना बड़ा कारण है
हम बचेंगे अगर!

जन्‍म चाहिए
हर चीज़ को एक और
जन्‍म चाहिए।

शुक्रवार, नवंबर 12, 2010

हमारे बच्चे


हमारे बच्चे
हमारे बच्चे भी चलते हैं ठुमक-ठुमक
उनकी भी पैंजनियाँ मधुर बजती हैं
हमारे बच्चे भी चुराकर करते हैं तिलगुड़ी
हमारे बच्चे भी तोड़ते हैं खिलौने, सलेट, धनुष
मगर हमारे बच्चों की लीलाएँ देखकर
कवि उपमाएँ नहीं गढ़ते
देवता पुष्पवर्षा नहीं करते।


स्कूल जाता बच्चा
स्कूल जा रहा है बच्चा
कन्धे पर लदा है बस्ता
जिसमें भरी हैं
दर्जन भर किताबें
और पिता की आकांक्षाएँ
पिता-
जो किसान की तरह
पकती फसल देखकर
सुखी-चिन्तित हैं।

स्कूल जा रहा है बच्चा
अपने गुजरे बचपन की स्मृतियों में
सख्त मनाही है बच्चे को
बचपना दिखाने की।

मगर कहीं भी
कभी भी वह
निकालेगा कापी या किताब कोई
फाड़ेगा पन्ना
बनाएगा जहाज
और उड़ा देगा
आकाश को लक्ष्य कर।

गुरुवार, नवंबर 04, 2010

फूल को कुचल डालने का समय आ गया है : सिमीं बहबहानी

इरान की शेरनी के नाम से मशहूर 83 वर्षीय सिमीं बहबहानी आज के ईरानी काव्य जगत की सर्वाधिक सम्मानित कवियित्री हैं..अपने समय के खूब चर्चित और सम्मानित लेखक माता पिता की संतान सिमीं को बचपन से ही कविता लिखने का शौक लग गया और 14 साल में उनकी पहली कविता प्रकाशित हुई.उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हैं और पिछले वर्षों में दो बार साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए उनका नाम प्रस्तावित हुआ.अपनी कविताओं में इरान के सामयिक हालातों और देश में स्त्रियों के ऊपर लगायी गयी पाबंदियों के विरोध में सिमीं बेहद मुखर रही हैं.देश की राष्ट्र कवि का दर्जा दिए जाने के बाद भी हाल में उन्हें देश से बाहर जाने की इजाज़त नहीं दी गयी--वजह थी वर्तमान शासन का लोकतान्त्रिक और रचनात्मक ढंग से विरोध करने वाले लेखकों फिल्मकारों के दमन की खुली मुखालफत। इरान में लोकतान्त्रिक आज़ादी को कुचलने की नीति का उन्होंने अपनी कविताओं में जम कर विरोध किया है,यहाँ प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक बेहद चर्चित कविता :
(अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र)
फूल को कुचल डालने का समय आ गया है
फूल को कुचल डालने का समय आ गया है
अब और टाल मटोल मत करो
बस हाथ में थामो हंसिया
और दृढ कदमों से आगे बढ़ो..
देखो तो हरा भरा मैदान दूर दूर तक
ट्यूलिप के फूलों से लदा पड़ा है
आज तक देखी है किसी ने ऐसी निर्लज्ज ढिठाई
हरियाली अब भी शोखी से ऊपर ही ऊपर चढ़ती जा रही है..
समय आ गया है जब इनको
माथे से कस कर दबा दिया जाये.
मन के अंदर की ख़ुशी इतनी जाहिर हो रही है
कि हर शाख पर खिलते जा रहे हैं फूल
दिखावा..और वो भी इतना चटक रंग बिरंगा..
बिलकुल ही नहीं इसकी आज़ादी.
मैदान में फ़ौरन आ जाओ अपना खंजर लेकर
फूल की एक एक कोंपल को काट डालना है
जिससे सामने न कुछ दिखाई दे
और न ही मन में कोई ख्वाहिश पनप पाए.
देखन होगा
एक अदद कोंपल भी न बच पाए..
मुझे डर है कहीं पाँव न पसार ले
आत्ममोह अपना उलझाने वाला जंजाल
सुनहरे कटोरे या छह किनारे वाली तश्तरी का मोहक रूप धर कर..
इसको तुरंत रोकना होगा
जो कुल्हाड़ी है तुम्हारे पास संभाल कर रखी हुई
क्या होगा इसका इस्तेमाल
यदि काट ही न सको तेजी से बढ़ता ये लुभावना वृक्ष..
इस छतनार वृक्ष की किसी शाख पर
चौकस रहो, बैठ न जाये कोई परिंदा पल भर को भी.
मेरे गीतों और जंगली खुशबूदार झाड़ियों में
अंदर तक रचे बसे हैं संदेसे और सुगंध.
इनको कतई मौका मत दो
कि बढ़ा लें अपनापा और मेलजोल
आवारा गुन्जारों के साथ
और बन जाएँ विनाशकारी झंझावत.
मैं और मेरा दिल किसी हरे भरे मैदान से ज्यादा उर्वर है
और इसकी मामूली सी माटी और पानी में भी
पलक झपकते अंकुर की तरह फूट पड़ते हैं फूल ही फूल...
सबसे सुरक्षित यही है
कि मुझे सिर उठा कर खड़ा ही मत होने दो
यदि तुम दुश्मन हो बसंत के
सचमुच...सचमुच.

सोमवार, नवंबर 01, 2010

स्मरण : योगेश छिब्बर

कुछ माह पूर्व जब श्री योगेश छिब्बर को देखा तो यह पूछने का साहस नहीं हुआ कि अब स्वास्थ्य कैसा है, क्योंकि बीमारी की पीड़ा को चेहरे की मुस्कराहट ने भरपूर सफलता के साथ ढक रखा था। पिछले दिनों मनु स्वामी ने सूचना दी कि उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया है और आल इंडिया मैडिकल और अपोलो ने भी हाथ खड़े कर दिये हैं और 23 अक्तूबर को उनके निधन की सूचना भी मनु भाई ने दी। (हालाँकि उनके निधन से एक दिन पूर्व ही उनके निधन का झूठा समाचार मुजफ्फरनगर में फैल गया था, यह सूचना मुझ तक भी पहुँची थी, फिर मैंने भी एकाध जगह फोन किया, सो मैं भी सहारनपुर के कवि-समाज से क्षमाप्रार्थी हूँ) योगेश छिब्बर उन कवियों में थे जो मिलते ही आत्मीयता का संवाद कायम कर लेते थे। उनका मंच से कविता का प्रस्तुतीकरण भी गजब का था। समकालीन कविता के मुहावरे के साथ-साथ पंजाबी की टप्पे जैसी विधा का हिन्दी में प्रयोग उन्होंने किया। योगेश छिब्बर के कविता-संग्रहों में प्रमुख हैं - चिड़िया बम नहीं बनाएगी, साँसों के वृन्दावन में, तुम अपनी प्यास जितने हो, नैना गिरवी रख लिये, हाथों में ताजमहल, जिकर पिआरे का।
श्री छिब्बर को विनम्र श्रद्धांजलि सहित प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ -

तितली
तितली जब भी उड़ेगी
किसी फूल की तरफ उड़ेगी

तितली जब भी उतरेगी
किसी फूल पर उतरेगी

तितली जब भी नष्ट होगी
कहीं फूलों के बीच नष्ट होगी

उसे जीना आता है
उसे मरना आता है।

चिड़िया बम नहीं बनाएगी
चिड़िया को भी खतरा है
लंबे डैनों वाले बाज से
उसके बच्चों को खतरा है
भूखे काले नाग से
उनका घोंसला डरता है
शैतान लड़कों के हाथ से
मगर चिड़िया बम नहीं बनाएगी

चिड़िया के भी दुश्मन हैं
मगर वह बम नहीं बनाती

चिड़िया की किसी पीढ़ी में
बुद्ध ने जन्म नहीं लिया
चिड़िया के संसार में
कोई ईसा नहीं हुआ
फिर भी
इतने दुश्मनों और इतने खतरों के बीच
चिड़िया ऐसे जीती है
जैसे उसे समझ आ गए हों
बुद्ध और ईसा
कल बच्चे हैरान होंगे
सोचेंगे
यह चिड़िया सुरक्षित कैसे है
बम के बिना जिये जाती है
उड़ती है
गाती है

बार-बार घोंसला बनाती है
जिसमें न कोई चारदीवारी है
न काँटेदार तारें
न कोई लाठी वाला चैकीदार
जिन्दा रहने की तमीज नहीं चिड़िया को

कुछ बच्चे सोचेंगे
चिड़िया ‘एब्नाॅर्मल’ होती है
दुश्मनों के होते हुए
बम की नहीं सोचती

मगर चिड़िया नहीं सोचेगी
वह बम नहीं सोचेगी
वह युद्ध नहीं सोचेगी

चिड़िया आदमी नहीं है।

कुछ क्षणिकाएँ
1.
सुख यह नहीं
कि जीवन में तुम भी हो
सुख यह है
कि जीवन में तुम ही हो।

2.
न उतने हो
न इतने हो
तुम अपनी प्यास जितने हो।

3.
लो, तुम्हारे भीतर रखता हूँ
खरे विचार की चिनगारी
अब आग जले
तुम्हारी जिम्मेदारी।