सोमवार, अक्तूबर 25, 2010

रेड इंडियन कविता (४) : जिमी डरहम


चेरोकी जनजाति में जन्मे कवि, शिल्पकार और गायक जिमी डरहम का जन्म 1940 में अरकंसास में हुआ। अमेरिका के मूल निवासियों के प्रति अमेरिका की खोज से अब तक हो रहे अमानुषिक अत्याचारों की पीड़ा उनकी कविताओं का प्रतिपाद्य रहा है।

कोलंबस दिवस
स्कूलों में हमें पढ़ाये गये थे नाम -
कोलम्बस, कार्टेज़ और पिज़ारो
तथा दर्जन भर और दुष्ट हत्यारों के
खून की एक रेखा जाती हुई जनरल माइल्स
डेनियल बून और जनरल आइजनहाॅवर तक।

किसी ने नहीं बताये थोड़े से भी नाम
उनके शिकारों के, पर क्या तुम्हें नहीं है याद चास्के की
कुचल दी गयी थी जिसकी रीढ़
कितनी फुरती से श्रीमान पिजारो के बूटों तले ?
धूल में निकलेथे कौन से शब्द उसके मुँह से ?

क्या था जाना-पहचाना नाम
उस जवान लड़की का जो करती थी ऐसे मनोहारी नृत्य कि
गाने लगताथा समूचा गाँव उसके साथ
उसके पहले जब काॅर्टेज़ की तलवार ने
काटकर अलग कर दी थीं उसकी बाँहें
जब उसने किया था प्रतिरोध
जलाये जाने का अपने प्रेमी को।

उस युवक का नाम था बहुकृत्य
जो नेता था उस लड़ाकू टोली का
कहते थे जिसे लाल-छड़ी-चहकते पंछी
जिन्होंने धीमी कर दी थीं बढ़त की रफ्तार
काॅर्टेज की सेना की महज
थोड़े से भाले और पत्थरों से
जो अब पडे़ हैं निश्चेष्ट पहाड़ों में
और करते हैं महज याद

हरिज चट्टान देबी नाम था उस वृद्धा का
जो सीधे चलकर पहुँची थी कोलम्बस तक और
थूक दिया था उसके मुँह पर

हम याद करें उस हँसमुख
आॅट्टर टैनों को जिसने की थी कोशिश
रोकने की कोलम्बस की राह जिसे
उठा ले जाया गया था बतौर गुलाम के
फिर नहीं देख पाये जिसे हम फिर कभी।

स्कूल में सुने थे हमने बहादुराना
खोजों के किस्से
गढ़े थे जिन्हें झूठे और मक्कारों ने
लाखों सुशील और सच्चे लोगों के
साहस के कभी नहीं बनाये गये स्मृति-चिह्न।

आओ जब आज ऐलान करें
एक छुट्टी का अपने लिए और
निकालें एक जुलूस/शुरूआत हो
जिसकी कोलंबस के शिकारों से
और जो चले हमारे नाती-पोतों तक
जिनके किये जाएँगे नामकरण
उनके सम्मान में।

क्या नहीं है सच यह कि
बसंत की घास तक इस धरती की
लेती है आहिस्ते से उनके नाम
और हर चट्टान ने ली है जिम्मेदारी
गाने की उनकी गाथा
और कौन रोक सकता है
हवा को गुँजाने से उनके नाम
स्कूलों के कानों में ?

नहीं तो क्यों गाते यहाँ के पंछी
इतने सुरीले गीत
कहीं अधिक है जिनकी मिठास
दूसरी जगहों के
पंछियों के गाने से।

* पहल पुस्तिका से साभार, अनुवाद: वीरेन्द्र कुमार बरनवाल

रविवार, अक्तूबर 17, 2010

खण्डहर



जिस ओर से और जिस छोर से तुम देख रहे हो वह छाया है किसी खंडहर की जो तुम्हें किसी मुकुट धारे/सँभाले धीरोदात्त की लग रही है। रोशनी का कोण बदला तो हो सकता है कि उसका एक हाथ तलवार की मूठ थामे और दूसरा मूँछ ऐंठता दिखाई दे जाए। छायाओं में इतने विवरण की गुंजाइश नहीं रहती, तभी तो कल्पना की संभावना बनी रहती है और कल्पना की क्या कहें, कई बार तो कल्पनाएँ कभी मिथक और कभी-कभी तो इतिहास तक बन जाती हैं और फिर उस इतिहास के खंडहर भी कहीं न कहीं ढूँढ़ लिए जाते हैं। खण्डहरों की छाया से कतई दिखायी नहीं देता गाँवों का जलना और हाथों का कटना। इतिहास के खंडहर इतिहास से उतने ही अलग हैं जितनी अलग हैं खंडहर से उसकी छायाएँ जो कल्पना की सम्भावनाओं से भरी हैं। अक्सर ऐसा होता है कि हम पुष्ट इतिहास उपलब्ध न होने से खंडहर से काम चला लेते हैं और यदि थोड़ी जल्दी है तो परछाई जिस कोण से हम देख रहे हों, हमारे लिए पर्याप्त रहती है। हालाँकि रोशनी का कोण बदलते ही बड़ी-बड़ी इमारतों की छायाएँ भी बौनी लगने लगती हैं।

सोमवार, अक्तूबर 11, 2010

वैज्ञानिक और धर्म: निराला (कवि का गद्य)

(प्रस्तुति : यादवेन्द्र, रुड़की)
पुरुष और प्रकृति, दोनों पड़ोसी हैं, उनका परस्पर अभिन्न सम्बन्ध है। प्रकृति रहस्यमयी है, अतः चंचला है, लावण्यपूर्णा है, अवगुण्ठनवती है, अतः पुरुष इसे देखने के लिए सदा लालायित रहता है। पुरुष प्रकृति को समझना चाहता है, उसके रहस्य से परिचित होने के लिए प्रयत्न करता है। प्रकृति कभी कभी उसकी ओर कनखियों से देख, किंचित मुस्कुराकर फिर अपने अवगुण्ठन में मुँह छिपा लेती है। पुरुष प्रकृति के घूँघट को हटा देना चाहता है, परन्तु प्रकृति सलज्जा नवोढ़ा की भाँति अपना घूँघट और भी बढ़ा देती है। प्रकृति जितना चाहे अपना रहस्य छिपाने का प्रयास करती है, पुरुष उतना ही उसे जानने के हेतु व्यग्र हो उठता है, बेचैन हो जाता है। पुरुष और प्रकृति की इस लुकी-लुकौवल से ही धर्म और विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। धर्म पुरुष और प्रकृति के पारस्परिक सम्बन्ध का द्योतक है, विज्ञान इस सम्बन्ध का आलोचक। एक व्यवहार पर ध्यान देता है, दूसरा प्रतिक्रिया पर। दोनों ही सत्य के अन्वेषक हैं, दोनों ही प्रकृति के रहस्य का उद्घाटन करते हैं। परन्तु प्रकृति का विषम व्यंग्य यह है कि दोनों ही एक दूसरे के विरोधी समझे जाते हैं। वैज्ञानिक समझता है कि प्रकृति का महत्त्व उसी पर प्रकट है, धर्मप्रेमी कहता है कि वैज्ञानिक ओसकण से पिपासा शान्ति चाहता है जो असम्भव है। वह अपने को सीमित देखता है, अतः वह असीम को सीमा देना अयुक्त जान उसे असीम ही कह सन्तुष्ट रहता है।
विज्ञान और धर्म में परस्पर विरोध हो या न हो, यह तो निश्चित है कि सृष्टि के सम्बन्ध में दोनों यह स्वीकार करते हैं कि सृष्टि के उपरान्त स्थिति और संहार फिर संहार स्वयंसिद्ध है।

सृष्टि, स्थिति और संहार, नियति का यही सनातन चक्र है। सभी पदार्थों का यही अनुक्रम है, इससे किसी की भी मुक्ति नहीं। इसी नियम के कारण जो आता है, वह जरूर जाता है, जो उत्पन्न होता है, वह कालकवलित अवश्य होता है, जो पुष्पित होता है, वही मुरझाता है। इसी चक्र के फेरे से कहीं आनन्द है तो कहीं हाय-हाय! कही हँसना है, तो कही रोना! कहीं जागृति है, तो कहीं सुषुप्ति! उत्पत्ति, विकास और अवसान, यही विश्व की कहानी हैं, यही जैविक विकास का कारुणिक इतिहास है, यही विज्ञान और धर्म की पुकार है, यही इनके अनुसंधानों का एक निष्कर्ष, एक निर्णय है।

सृष्टि, स्थिति और संहार इसके भीतर कितना रहस्य निहित है, यही समझने की धर्म और विज्ञान चेष्टा करते हैं और इसी चेष्टा में लगे रहने से इन पर भी नियति का आक्रमण हो जाता है। ये भी उत्पत्ति और अवसान के चक्कर में जा पड़ते हैं। एक समय में धर्म की अभिवृद्धि होती है, दूसरे में विज्ञान की। कभी एक का विकास होता है, तो कभी दूसरे का अवसान। आधुनिक युग में धर्म के प्रति बहुतों की अश्रद्धा हो चली है और बहुत से तो धर्म को धकियाकर ईश्वर का भी बहिष्कार करने के हेतु तत्पर हैं। इस धर्म और ईश्वर के बायकाट की आवाज इधर रूस से उठी है। यों तो नास्तिकों का प्रादुर्भाव बहुत पहले हो चुका है, पर इधर कुछ वर्षों से नास्तिकता की लहरें बहुत ऊँची उठ रही हैं। रूस ने जहाँ राजनीतिक विचारों में तूफान उठा दिया है, वहाँ वह धर्म के समुद्र को भी उद्वेलित करने से नहीं चूका। वह पुराने सामाजिक आधारों को चित्त करके ही सन्तुष्ट नहीं है, वह धर्म को इन सामाजिक बन्धनों का जनक और आलम्ब समझ इसे ही चैपट करने पर तुला बैठा है। ईश्वर की सर्वज्ञता और व्यापकता को वह नहीं समझता। यदि समझता भी है, तो पण्डे, पुजारियों को धर्मान्धों की वंचकता समझता है। सम्भवतः रूस की दृष्टि में ईश्वर विषमता का द्योतक है, अतः साम्यवाद, घोर साम्यवाद के इस युग में ईश्वर की स्थिति पर वह भला कैसे विश्वास कर सकता है?

आधुनिक नास्तिकवाद के विकास में वैज्ञानिकों का भी बहुत कुछ हाथ है, ऐसा अधिकांश जनता का विश्वास है। धार्मिकों ने खुदा की ढूँढ़ की थी, वैज्ञानिकों ने खुदाई की ढूँढ की थी इनकी खोजों ने मनुष्य के अहभाव को बहुत कुछ बढ़ा दिया है। परन्तु अभी यह भाव वहाँ तक नहीं पहुँचा है, जहाँ वेदान्ती पहुँच चुके हैं। धार्मिकों की खोज वेदान्तियों के सिद्धान्तों के साथ, विशेषतः अद्वैतमतानुयायियों के सिद्धान्तों के साथ पूरी हो चुकी है और वैज्ञानिकों की खोज अभी जारी है। धार्मिकों ने ईश्वर की सत्ता को माना है, अद्वैतवादियों ने उस सत्ता को अपने से अभिन्न समझा है। वे खुदा से खुद में आये हैं, उनके लिए खुदाई कोई दूसरी वस्तु नहीं, खुदी ही खुदाई है। वैज्ञानिकों ने खुदाई की परीक्षा प्रारम्भ कर दी है। वे खुदी की ओर बढ़ रहे हैं या खुदा की ओर, यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। हाँ, यह जानने को सब उत्सुक अवश्य रहते हैं कि वैज्ञानिक खुदा को मानते हैं या नही?
हाल में विलायत की एक संस्था ने, जिसका नाम क्रिश्चिन एविडेंस सोसाइटी है, यह जानने के लिए कि वैज्ञानिकों के धर्म के प्रति क्या विचार हैं, कुछ प्रश्न संसारविख्यात राॅयल सोसाइटी के सदस्यों के पास भेजे थे और उनसे यह प्रार्थना की थी कि वे निर्भीकतापूर्वक अपने विचार प्रकट करें। वैज्ञानिकों ने उन प्रश्नों के जो उत्तर दिए हैं, वे बड़े ही मनोरंजक हैं।

पहला प्रश्न था - ‘क्या आप ईश्वरीय साम्राज्य पर विश्वास करते हैं?’ इसके उत्तर में कुछ वैज्ञानिकों ने ‘हाँ’ कहा, कुछ ने ‘नहीं’। परन्तु मजे की बात यह है कि ‘नहीं’ कहनेवालों से ‘हाँ’ कहनेवालों की संख्या दस गुना अधिक थी।
दूसरा प्रश्न था - ‘क्या मनुष्य किसी अंश में स्वकार्यों के लिए उत्तरदायी है?’ इसके उत्तर में अधिकतर सदस्यों का यह मत था कि ‘मनुष्य अपने कृत्यों के लिए पूर्णतया उत्तरदायी है।’

तीसरा प्रश्न था - ‘सृष्टिवाद और विकासवाद में परस्पर समन्वय है, या दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं?’ इसके उत्तर में रोंयल सोसाइटी के अधिकांश सदस्यों का मत है कि, दोनों में असंगति नहीं, विकास रीति या प्रक्रिया का द्योतन करता है, सृष्टि कर्तृत्वक्रम को लक्षित करती है।’

चैथा प्रश्न था- ‘क्या भौतिक विज्ञान संसार और सगुण ईश्वर की भावना का तिरस्कार करता है?’ इसके उत्तर में आधे से अधिक सदस्य कहते हैं कि ‘नहीं’, यह बात नहीं है।’

पाँचवाँ प्रश्न था - ‘क्या आप मृत्यु के उपरान्त भी जीव की स्थिति मानते हैं?’ इस प्रश्न पर बहुत से सदस्यों ने तो यह लिख भेजा कि ‘इस विषय में वे न ‘हाँ’ कह सकते हैं, न ‘ना’ क्योंकि उनके पास कुछ अनुभूत प्रमाण नहीं।’ पर कई सदस्यों ने निर्भीकता से यह उत्तर दिया कि ‘वे मृत्यु के उपरान्त भी जीव की स्थिति मानते हैं।’

छठा और अन्तिम प्रश्न था- ‘क्या वैज्ञानिक धार्मिक होते हैं?’ इसके उत्तर में बहुत से सदस्यों ने कहा, ‘वे उतने ही धार्मिक हैं, जितना और मनुष्य।’

इस प्रश्नोत्तरी से यह पता चलता है कि आधुनिक वैज्ञानिक धर्म के विरोधी नहीं हैं, पाखण्ड के विरोधी भले ही हों।
अतः जनता में जो यह मत फैला है कि वैज्ञानिक नास्तिकवाद के फैलाने में बहुत कुछ सहायक हुए हैं, भ्रमपूर्ण है। आजकल जिस दिशा में विज्ञान बढ़ रहा है, वह धार्मिक भावनाओं के लिए हानिकारक नहीं, प्रत्युत सहायक है। आधुनिक वैज्ञानिकों की ‘ततः किं’ - वृत्ति उन्हें उस अनन्त के परिज्ञान की ओर खींच रही है, जो धर्म का प्राण है। अणु, परमाणु, जीवाणु की व्याख्या धर्म भी कर चुका है, ऐटम, मोलीक्यूल, इलेक्ट्राॅन को लेकर वैज्ञानिक भी तर्कणा करते हंै। इलेक्ट्राॅन की व्याख्या प्रो0 आइंस्टाइन ने ‘सेंटर फार डिस्टरबेंस’ कहकर की है, परन्तु इतने से वे सन्तुष्ट नहीं हुए। वास्तव ने अनन्त की जिज्ञासा भी अनन्त ही की भाँति असीमित है, इसके विभिन्न क्षेत्र हैं। साधारण मनुष्य के लिए जिस प्रकार दार्शनिक के भाव समझने कठिन हैं, उसी प्रकार वैज्ञानिक के भी। वह केवल यही समझता है कि सृष्टि, स्थिति और संहार नियति के चक्र का परिचय देते हैं। वह अधिक जानने का न प्रयास करता है, न जानना ही चाहता है। क्योंकि इस विषय में अधिक खोज करने से उसका सुखमय स्वप्न टूट जाता है। वह इतना ही जानता है कि संसार में ऐसे भी शुभ व्यसनी हैं, जो प्रकृति से उसके सुख के नये नये उपहारों को प्राप्त किया करते हैं और ऐसे भी विश्वप्रेमी हैं, जो उसके लिए आनन्द और समृद्धि की सदिच्छाएँ प्रकट करते रहते हैं और इसी से सन्तुष्ट रहते हैं। उनके लिए वैज्ञानिक और धार्मिक, प्रकृति के परीक्षक और प्रभु के पर्यालोचक, दोनों एक ही सन्देश भेजते हैं और वह सन्देश सरल होते हुए भी गहन है, छोटा होते हुए भी महत्त्वपूर्ण हंै, सहज होते हुए भी असाधारण है। सृष्टि, स्थिति और लय, आदि, मध्य, अवसान, उत्पत्ति, पालन और संहार- यही तो विधाता का खेल है जिसे धर्म लीला कहता है, आधुनिक विकासवाद में भी इसी की प्रतिध्वनि हो रही है, ज्ञान और विज्ञान दोनों परस्पर निकट आ रहे हैं - दोनों का क्षेत्र बहुत कुछ एक हो चला है। पुरातनकाल में दार्शनिक भी वैज्ञानिक होते थे। जो ऋषि थे, जो प्रभु को देखते थे, वे ही प्रकृति को भी समझते थे। इस युग में भी वह समय आ रहा है, जब प्रकृति को समझनेवाले वैज्ञानिक ही प्रभु के देखनेवाले दार्शनिकों में परिवर्तित हो जाएँगे। ज्ञान और विज्ञान में ‘वि’- मात्र का भेद है, यह ‘वि’ अब विलुप्त होना चाहती है। इसके विनष्ट होते ही ज्ञान की शुभ्र छवि स्पष्ट हो जाएगी, इसमें सन्देह नहीं। यह स्वर्ण अवसर जितना ही शीघ्र आवे, उतना ही अच्छा।

रविवार, अक्तूबर 03, 2010

सात फटकार: खलील जिब्रान

(अनुवाद बी.एस. त्यागी)

मैंने अपनी आत्मा को सात बार फटकार लगायी
पहली बार - उस समय जब कमजोर लोगों का शोषण कर
स्वयं को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया
दूसरी बार - जब मैंने उन तमाम लोगों के सामने पंगु होने का स्वांग किया
जो सचमुच पंगु थे
तीसरी बार - जब मुझे चयन करने का अवसर मिला
और कठिन को छोड़कर सरल को अपना लिया
चैथी बार - जब मैंने गलती की और दूसरों की गलती से
स्वयं को सांत्वना दी
पाँचवीं बार - जब मैं भय के कारण विनम्र हो गया था
और दावा किया था धैर्यवान होने का
छठी बार - जब कीचड़ से बचने के लिए मैंने
अपना लबादा ऊपर उठा लिया था
सातवीं बार - जब मैं प्रार्थना की पुस्तक लेकर
ईश्वर के सामने आ खड़ा हुआ और प्रार्थनागान को ही महान गुण समझ बैठा।