शुक्रवार, जुलाई 15, 2011

स्वामीनाथन का झल्ला: विशाल

विशाल की यह कविता उन दिनों की याद में जब हम मित्र मुजफ्फरनगर में स्वामीनाथन को लेकर एक कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारी में थे। जे. स्वामीनाथन की कविताओं ने उनके चित्रों में एक नया संसार देखने का सूत्र हमें दिया। परिणाम यह हुआ कि कुछ ऐसी भावभूमि बनी कि कार्यक्रम का आयोजन मात्र औपचारिकता बनकर रह गया और स्वामीनाथन का झल्ला तो (बकौल तुलसी रमण, सम्पादक ‘विपाशा’) विशाल की कविता में आकर बैठ गया।
दृश्य: एक
दुनिया की उन
सभी प्यारी चीजों ने
अपने खत्म होते-होते ही
बना लिए थे घर
प्रतीकों में
जो अर्थां से छिपने की
कामयाब जगह मानी जाती है
बिन्दु में
जो कोई जगह तक नहीं घेरता
रेखाओं में
जिसकी कोई मोटाई तक नहीं होती
रंगों में
जो छिपकर लगातार बदलते हैं
अपने रंग
उन शब्दों में
जिन्हें अपने गलत इस्तेमाल का
डर नहीं होता
और जो निर्जीव पत्थर-से
ऐंठे पड़े रहते हैं
अक्सर तब भी
जब वे खूब गर्म हो रहे हों।

दृश्य: दो
दृश्य दो में दृश्य एक के
सभी विस्थापित आश्रय
सन्दर्भहीन सन्दर्भ में हैं
इसे गलत संदर्भ कहने का अधिकार
अभी आपको है मुझे नहीं

बेरोक-टोक छुट्टे घूम रहे
वाचाल असदंर्भित भालों की नोकों पर
अश्लील लिखावट में
नारों से लहराते हैं
सभी प्रतीक रंग रेखाएँ
और शब्द।

दृश्य: तीन
इस दृश्य का नायक -
एक दिन उसकी आह उठती है
गूँज बनने से पहले ही डूब जाती है

उसी की भीतरी घुटन में
और धड़कन एक धड़ाम में फटती है

अब दृश्य का नायक
गलत संदर्भ-सा टंगा है
संदर्भित दीवार पर।

दृश्य: चार
इस दृश्य में
तीनों दृश्यों के बाहर
ज. स्वामीनाथन का झल्ला बैठा है
जिसकी आँखों से सूरज अक्सर
चुरा ले आता है
चमकने का रहस्य।

* ज. स्वामीनाथन की कविताओं के लिए यहाँ क्लिक करें। विशाल की यह कविता ‘विपाशा’ के नवीनतम अंक में प्रकाशित हुई है। आभार।

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