गुरुवार, मार्च 31, 2011

मैं हूँ भी और नहीं भी हूँ: कुमार अम्बुज

धूप में रहना है
यदि मैं ओस जैसा हूँ तो ओस की तरह ही ठीक से रह सकता हूँ
लेकिन जीवन ऐसा है कि धूप में रहना ही पड़ता है
अब मैं तेज धूप में हूं और रहना इस तरह जैसे ओस के संग रह रहा हूं
यह सचमुच मुश्किल है और लोग कहते हैं कि तुम्हें जीवन में रहना नहीं आता
मैं कुछ नहीं कह सकता केवल रहने की कोशिश कर सकता हूं
ज्यादा तरकीबें भी नहीं हैं मेरे पास सिर्फ कोशिश कर सकता हूं बार-बार
हालांकि यह अभिनय जैसा भी कुछ लग सकता है

अगर मैं ओस जैसा हूं
तो मैं चाह कर भी इसमें बहुत तब्दीली कर नहीं सकता
आलस, क्रांति, मेहनत या दुनियादारी की इसमें बहुत भूमिका नहीं
जैसा कि होता है आपके होने और मेरे होने में ही मेरी सीमा हो जाती है
और इससे असीम तकलीफें पैदा होती हैं और अपार प्रसन्नताएं भी

यह जो हताशा है, असहायता है, नाटक है
यह जो ठीक तरह न रह पाने की बदतमीजी, बदमजगी या मजबूरी है
और ये मुश्किलें जो घूरे की तरह इकट्ठा हैं मेरे आसपास
दरअसल यह सब मेरे ओस जैसा होने की मुश्किलें भी हैं
जिस पर किसी का कोई वश नहीं
लेकिन इतना असंभव तो मैं कर ही पा रहा हूं
कि तमतमाती धूप के भीतर रहे चला जा रहा हूं

हर कोई धूप के भीतर ओस को रहते देख नहीं सकता
इस तरह मैं हूं भी और नहीं भी हूं
आप मुझे सुविधा से, मक्कारी से या आसानी से नजरअंदाज कर सकते हैं।

अपमान
वह नियमों में शामिल है और सड़क पर चलने में भी
सबसे ज्यादा तो प्यार करने के तरीकों में
वह रोजी-रोटी की लिखित शर्त है
और अब तो कोई आपत्ति भी नहीं लेता
सब लोग दस्तखत कर देते हैं
मुश्किल है रोज-रोज उसे अलग से पहचानना
वह घुलनशील है हमारे भीतर और पानी के रंग का है
वह हर बारिश के साथ होता है और अक्सर हम
आसमान की तरफ देखकर भी उसकी प्रतीक्षा करते हैं

आप देख सकते हैं : यदि आपके पास चप्पलें या स्वेटर नहीं हैं
तो कोई आपको चप्पल या कपड़े नहीं देगा सिर्फ अपमानित करेगा
या इतना बड़ा अभियान चलायेगा और इतनी चप्पलें, इतने चावल और इतने कपड़े
इकट्ठे हो जायेंगे कि अपमान एक मेला लगाकर होगा

कहीं-कहीं वह बारीक अक्षरों में लिखा रहता है
और अनेक जगहों पर दरवाजे के ठीक बाहर तख्ती पर
ठीक से अपमान किया जा सके इसके लिए बड़ी तनख्वाहें हैं
हर जगह अपमान के लक्ष्य हैं
कुछ अपमान पैदा होते ही मिल जाते हैं कुछ न चाहने पर भी
और कुछ इसलिए कि तरक्की होती रहे

वह शास्त्रोक्त है
उसके जरिये वध भी हो जाता है
और हत्या का कलंक भी नहीं लगता।

बचाव
कई जगहें हैं जहाँ मैं फँस जाता हूँ
जैसे अभी शाम साते बजे के धूमिल प्रकाश में यहाँ बैठा हूँ पार्क में
और खुद को नहीं बचा पा रहा हूँ सायंकाल के आसमान से
ऐसे ही परसों घिर गया था कविता के शब्दों से

जीवन में कभी-कभी हर कोई इस तरह घिर जाता है
कि बचाव नहीं कर पाता

मैं बच नहीं सकता कि मैं चुम्बनों को माया नहीं मानता
स्पर्श को और घास के फूलों को माया नहीं मानता
हर गलत पर मुझे क्रोध आता है और मेरे मुँह से निकलता है झाग
कभी लगता है जैसे मैं किसी दूसरे संसार में हूँ जहाँ
मारे जा चुके हैं मेरे पिता और घर पर पड़ोसियों की निगाह है
मैं अपनी माँ को नहीं बचा पाया
बहन, पत्नी को नहीं और बच्चों को भी नहीं
और इस तरह खुद को भी नहीं

मैं फँस गया हूँ किसी दलदली युद्ध में
जो मेरे उस मित्र को भी नहीं दिखता
जो रोज मेरे घर आता है, चाय पीता है
और रोज ही मुझे गले लगाता है

मुझे बचाया भी नहीं जा सकता कि मेरे पक्ष में
सिर्फ मेरी गवाही है
जो बचा सकते हैं खुद को भागकर या जमीन पर गिरकर
अभिनय से, ताकत से या रिरियाकर
उनकी वजह से ही तो बात यहाँ तक आई है
कि दोहरी मुश्किल है: शिकारी होना होगा या शिकार

यह कोई याचना या तर्क नहीं
मौका-ए-वारदात से एक सूचना है
जानते हुए भी कि मैं खुद को बचा नहीं सकता
लड़ाई में अकेला पड़ गया हूँ
शर्मिन्दा नहीं हूँ
इसका भार मैंने दूसरे जीवितों पर भी छोड़ दिया है।

(कुमार अम्बुज की ये कविताएँ ‘वागर्थ’ के मार्च 2011 अंक से साभार)

बुधवार, मार्च 23, 2011

नाजिम हिकमत का वसीयतनामा : प्रस्तुति - यादवेन्द्र

नाजिम हिकमत ने जेल में रहते हुए अपनी पत्नी और बेटे के लिए ढेर सारी नायाब कवितायेँ लिखी हैं. कुछ समय पहले बेटे को लिखी ऐसी ही एक कविता मैंने साथी पंकज पाराशर के ब्लॉग khwabkadar.blogspot.com के लिए प्रस्तुत की थी.इसी कड़ी में यहाँ प्रस्तुत है बेटे के लिए लिखी गयी एक अन्य कविता :
(प्रस्तुति : यादवेन्द्र)
मैं इस वक्त एक किताब पढ़ रहा हूँ
तुम इसके अंदर घुस कर बैठे हो.
मैं एक गीत सुन रहा हूँ
तुम इसके अंदर भी विराजमान हो.
मैं रोटी खाने बैठा हूँ
तुम मेरे सामने बैठे साक्षात् दिख रहे हो.
मैं काम में जुट जाता हूँ
तुम कहीं से आ कर मेरे सामने बैठ जाते हो..
तुम हर जगह मौजूद हो
मेरे सर्वव्यापी प्यारे...
पर हम एक दूसरे से बात नहीं कर सकते
न ही हम एक दूसरे की आवाज सुन सकते हैं...
जैसे तुम मेरी विधवा हो
महज आठ साल की उम्र वाली.

मैंने हाल में नाजिम हिकमत की कवितायेँ पढ़ते हुए उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की कोशिश कर रहा था तभी उनका वसीयतनामा पढने को मिला.इस विश्व कवि के लिखे इस मार्मिक पर अद्भुत दस्तावेज को पढ़ कर मैं इतना उत्तेजित हूँ कि इसे आप सब के साथ साझा करने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ...

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कामरेड, यदि मैं उस दिन तक जीवित नहीं बचा....मेरा मतलब है कि देश को आज़ादी मिलने से पहले ही यदि मैं मर गया तो मुझे ले जा कर अनातोलिया के किसी गाँव की कब्रगाह में दफ़न कर देना.
हसन बे ने जिस मजदूर उस्मान को गोली से उड़ाने का हुकुम दिया था उसको मेरे बगल में एक तरफ और शहीद आयशा को दूसरी तरफ लिटा देना जिसने बच्चे को जन्म देने के चालीस दिन बाद दम तोड़ दिया था.
इस कब्रगाह के समीप से होकर सुबह के झुटपुटे में ट्रेक्टर निकलेंगे और गीत गूंजेंगे-वहां होंगे नए नए लोग बाग़,जले हुए पेट्रोल की गंध, दूर दूर तक फैले खेत,पानी से लबालब भरी नहरें और अकाल और आतंक से मुक्त उल्लास...
मैंने तो कागज पर उतारने से पहले ही गाये थे ऐसे गीत और ट्रेक्टरों के उत्पादन के नक़्शे बनें इस से पहले ही सूंघ ली थी जले हुए पेट्रोल की गंध...
मेरे पड़ोसियों--मजदूर उस्मान और शहीद आयशा-- को जीने की बहुत ललक थी,हांलाकि इसका भान शायद उन्हें ठीक से नहीं था...
कामरेड,यदि मैं उस दिन तक जीवित नहीं बचा--अब मेरे मन में ये धारणा धीरे धीरे जड़ जमाती जा रही है--तो मुझे ले जा कर अनातोलिया के किसी गाँव के कब्रिस्तान में दफ़न कर देना...यदि मेरे सिर से लगा कर कोई सीधा तना हुआ वृक्ष रोपा जा सके तो वहां रखने के लिए न तो मुझे पत्थर चाहिए ... न ही कुछ और...
(२७ अप्रैल १९५३,मास्को)

बुधवार, मार्च 16, 2011

हम उत्सव के रंग हैं

स्कूल का आखिरी दिन...वह भी परीक्षा का। मेरे बेटे सहज की पूरी तैयारी थी ... स्कूल की पाबंदी के बावजूद होली खेलने की ... जब स्कूल से लौटा तो उसे देखकर अपनी एक पुरानी कविता याद गयी - ‘उत्सव के रंग और पिछली होली पर खींचे गये कुछ चित्र ... होली की शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत हैं -

उत्सव
के रंग

चाहता हूँ
होली खेलने से पहले
नहाकर, सारा मैल धोकर
स्वयं को चमका लूँ
कि हर रंग
बहुत गहरे उतरे
और मन में अंकित कर दे
जीवन का इन्द्रधनुषी पहलू।

चाहता हूँ
होली खेलते वक्त
पहनूँ सफेद कपड़े
कि जन्म हो कैनवास पर
उत्सव की अनूठी कलाकृति का।


चाहता हूँ
होली खेलने के बाद
सँभालकर रखूँ इस कृति को
कि जब भी उदास होऊँ
हर रंग याद दिलाए
कि हम
उत्सव के रंग हैं
तुम्हारे आँसू हमें धुँधला नहीं सकते।

मंगलवार, मार्च 01, 2011

मेरा मन पानी था : सार्थक

उस दिन जब विशाल के घर जाना हुआ तो उनके पुत्र सार्थक की कविताएँ उसके भाई संज्ञान के स्वर में सुनने को मिलीं। इस दौरान सार्थक संकोच में था। बेहद शर्मीले नोनी (सार्थक) की ये कविताएँ सहसा चैंकाती हैं, क्योंकि इस मई में वह उम्र के केवल दस बरस पूरे करेगा। असमय इतनी प्रौढ़ता....। यह ओढ़ी हुई प्रौढ़ता तो नहीं है। उसके प्रिय लेखक निर्मल वर्मा हैं। वर्तमान शिक्षा-पद्धति से पिता की गहरी नाराजगी और असहमति के चलते पिछले तीन बरस से घर पर ही अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। अपनी कविताओं को उसने अपने बनाए स्कैचों से भी सजाया था। उसके स्कैच भी दर्शनीय हैं, फिर कभी उसकी कविताओं साथ उन्हें भी आपके समक्ष प्रस्तुत करूँगा। फिलहाल प्रस्तुत हैं सार्थक की ये कविताएँ -

घर और झूला

घर और झूला एक हो गये
पेड़ में दोनों ही समा गये थे
गिलहरियों के लिए एक ढलान
जिस पर वे कूदती-भागती रहीं
रुकने का कोई निश्चित लक्ष्य नहीं
खेल में।


आमने-सामने शीशे

आमने-सामने शीशे
कई सारी गहराइयाँ खोद जाते हैं एक-दूसरे में
और अपनी छवियाँ छोड़ जाते हैं उन गहराइयों में
अनन्तता तक।


घर तक सीढ़ियाँ

घर तक सीढ़ियाँ थीं
पेड़ों ने भी दर्शाया था
वे सीढ़ियाँ तब तक थीं जब तक मैं उन्हें समझता
पाँच साल तक इन्तजार और डर का परिचित बना रहा
इनके अनुभवों से परिचित होने से इनका राजा भी बन गया
मेरा मन पानी था जब वे रंग बनकर उसमें घुले
धीरे-धीरे वह पानी जमा
और वह रंग बर्फ की धुँधलाहट में मर गये।