शुक्रवार, दिसंबर 30, 2011

नये साल की शुभकामनाएँ!

नये साल की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की यह कविता -

शुभकामनाएँ / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

नये साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की भेड़ों पर धूल-भरे पाँव को,
कुहरे में लिपटे उस छोटे-से गाँव को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

जाते के गीतों को, बैलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं के जाल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

इस पकती रोटी को, बच्चों के शोर को,
चौंके की गुनगुन को, चूल्हे की भोर को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

वीराने जंगल को, तारों को, रात को,
ठण्डी दो बन्दूकों में घर की बात को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को,
सिगरेट की लाशों पर फूलों-से ख्याल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को,
हर नन्ही याद को, हर छोटी भूल को,
नये साल की शुभकामनाएँ!

उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे,
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे,
नये साल की शुभकामनाएँ!

सोमवार, दिसंबर 26, 2011

जीवन



चलती है हवा
हिलते हैं पेड़
गिरते हैं सूखे पत्ते

बहती है हवा
झूमते हैं पेड़
कि झरते हैं पीले पत्ते।

रविवार, दिसंबर 18, 2011

अदम गोंडवी नहीं रहे

अदम गोंडवी

22 अक्तूबर 1947 - 18 दिसंबर 2011

अदम गोंडवी का निधन स्तब्ध कर गया। उनकी आवाज साम्प्रदायिकता और राजनीतिक छद्म को उजागर करती आवाज थी। उनकी गजलें क्रान्ति की पुकार करती ग़ज़लें थीं। हिन्दी ग़ज़ल को वर्तमान स्वरूप देने में उनका अप्रतिम योगदान रहा। अदम गोंडवी जी को विनम्र श्रद्धांजलि के साथ प्रस्तुत हैं उनकी तीन ग़ज़लें -

1

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धिखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.

2

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

3

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

गुरुवार, दिसंबर 15, 2011

एक हाशिया जो मुख्यभूमि है - मंगलेश डबराल (कवि का गद्य)

......कितना अच्छा होता कि मैं सचमुच एक कवि की तरह कोई कविता लिख सकता। कुछ शब्द इस तरह लिखे जैसे कोई नौकर लिखता है या कभी सड़क पार करते हुए बची हुई जान की तरह लिखा जिसे हर वक्त अपने सर पर एक गठरी का अहसास रहता है और बार-बार पलटकर अपना घर देखना चाहता है। कभी इस तरह लिखा जैसे अपने शरीर से विच्छिन्न कोई अकेला हाथ लिखता है या जैसे कोई पत्ता पेड़ से गिरने से पहले अपना रंग छोड़ता है। गनीमत यह है कि यह सब मैंने मनुष्य के रूप में ही लिखा और मनुष्य होने में कोई आत्मदया है और आत्महीनता। मैं यह भी जान सका कि कविता सिर्फ एक हाशिये की कार्रवाई रह गयी है, उसकी बहुत जरूरत नहीं महसूस की जाती और शायद कभी नहीं की जाती थी और कवि लोग इस व्यवस्था के नियंता नहीं नहीं हैं। हालांकि उन्हें उसका शिकार होने से भी हमेशा इनकार करना चाहिए और यह हाशिया ही हमारी मुख्यभूमि हमारा मोर्चा है क्योंकि यह हाशिया एक निरीह, लाचार, कलपती, रिरियाती जगह नहीं है। मेरे पूर्वज, संस्कृत के अनेक महाकवि और फिर रीतिकालीन लोग जो राज्याश्रयों में रहे, कविता के बदले स्वर्णमुद्राएँ पाते थे और उनका काफी समय सम्राटों की उदारता और वीरता के गुणगान में बीता। लेकिन तब भी उनकी रचनाओं में कहीं वह अंतद्र्वंद्व दर्ज है जो सत्ता प्रतिष्ठान और सच्चे रचनाकार के बीच हमेशा रहता है। सत्तातंत्र और रचना के उद्देश्य ही एक-दूसरे के विपरीत हैं.......
(आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित मंगलेश डबराल की पुस्तक ‘लेखक की रोटी’ से सादर, चित्र यहाँ से साभार)