बुधवार, फ़रवरी 19, 2014

और ज्यादा सपने - वेणुगोपाल


जड़ें

हवा
पत्तों की
उपलब्धि है। खूबसूरती
तो सारी जड़ों की है।

सूचना


फूलों के इतिहास में
दिलचस्पी हो जिन्हें
कृपया बगीचे से
बाहर चले जाएँ -

लाइब्रेरी दाईं तरफ है।

दीमक


(नरेश सक्सेना की एक कविता से प्रेरित आभार सहित)
दीमक जानती है
अपने मूलभूत अधिकार के बारे में

और इसीलिए
वह जा रही है
लाइब्रेरी की तरफ।


होने ही वाली थी क्रांति


होने ही वाली थी क्रांति
परदे पर
कि क्रांतिकारी जी ने टी.वी. आॅफ कर दिया
और होती हुई क्रांति
बीच में ही रुक गयी।

(क्रांतिकारी जी उवाच)
‘‘यह भी कोई कम
क्रांति नहीं है कि होती
हुई क्रांति भी इतनी
कंट्रोल मंे रहे
कि हो रही हो और तभी रोक दी जाये’’

‘‘पर यह असली थोड़े ही थी
परदे की थी।’’ - शंका

(पुनः क्रांतिकारी जी उवाच):
‘‘तो क्या हुआ? आज परदे की
तो कल असली भी। और सुनो,
क्रांति में तर्क की प्रतिष्ठा नहीं होती
असली-नकली की शंकाएँ और विवाद
शांति और भ्रांति के लिए छोड़ दो।’’

थोड़ी देर रुककर और लम्बी सांस के साथ -
‘‘क्रांति की शाश्वत कार्यशाला रहा है यह
अपना देश भारत - और आधुनिक कार्यशाला है अब
तो डेमो जरूरी है और परदे के बिना
डेमो नहीं हो सकता और बिना डेमो के
प्रशिक्षण नहीं होता !’’

बात वक्त तो सही लगी
इतिहास को भी

और डेमो इतने ज्यादा हो रहे हैं कार्यशाला में
कि टी.वी. धड़ाधड़ बिक रहे हैं।

* और ज्यादा सपने, वेणुगोपाल,
   दखल प्रकाशन, 104-नवनीति सोसायटी, प्लाट नं. 51, आई.पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92