निजार कब्बानी (1923 -1998 )
मेरे वश में नहीं
कि बदल पाऊं तुम्हारा रास्ताया कि समझ ही पाऊं क्या चाहती हो तुम..
कभी भरोसा मत करो
कि कोई आदमी बदल सकता है किसी स्त्री को.
यह आदमी की खुशफहमी है
कि वो सोचता है उसने निर्मित की स्त्री
अपनी पसलियों के अंदर से...
स्त्री किसी आदमी की पसली से नहीं निकली
न निकलेगी कभी
ये तो आदमी ही है
जो निकलता है स्त्री की कोख के अंदर से
जैसे निकलती है मछली
सागर की अतल गहराइयों से
और जैसे निकलते हैं सोते नदियों से फूट कर
आदमी है कि चक्कर मारता रहता है
स्त्री की आँखों के सूरज के इर्द गिर्द
और मुगालते में रहता है
कि टिक कर खड़ा है स्थिर अपनी जगह पर ही
........
मुझमें कूबत नहीं कि
बाँध लूँ अपने साथ तुमको
या घरेलू बना लूँ तुम्हें
या साध लूँ तुम्हारी आदिम इच्छाएं...
यह पूरी तरह से ना मुमकिन काम है
मैंने अपना सारा सयानापन आजमा कर देख लिया
और अपना विस्मित मौन भी दाँव पर लगा के देख लिया
तुम्हारे ऊपर इनका कुछ भी असर नहीं
मेरी कोई सलाह/हिदायत भी कामयाब नहीं...
न ही प्रलोभन
तुम उतनी ही आदिम अनगढ़ बनी रहो
जितनी हो इस वक्त.
..........................
मेरी औकात नहीं कि बदल दूँ
तुम्हारी आदतें
जो बनीं तीस सालों में
ऐसी ही रहीं तुम दरमियान के
तीन सौ सालों में भी
बंद बोतल में उमड़ता रहा एक तूफ़ान
आदतन आदमी के बदन की गंध भांप लेने वाली स्त्री
लपकती है उस ओर आदतन ही
और उसको कब्जे में कर लेती है
आदतन
..............
कभी यकीन मत करो आदमी पर
कि अपने बारे में वो क्या कहता है
कि वो रचता है कवितायेँ
और पैदा करता है बच्चे...
दरअसल स्त्री है जो रचती है कवितायेँ
और आदमी उनपर लिख देता है अपना नाम
स्त्री है जो जानती है बच्चे
और आदमी अस्पताल के रजिस्टर में
दर्ज कर देता है नाम अपना
पिता के तौर पर.
..................
मैं नहीं बदल सकता तुम्हारा स्वभाव
मेरी किताबें तुम्हारे किसी काम की नहीं
और मेरे विचार बनाते नहीं तुम्हें कायल
न ही मेरी सयानी हिदायतों का कोई असर तुमपर
तुम तो अराजकता की मलिका हो
और उन्मत्तता की सिरमौर...
कोई कैसे तुमपर लगाये अंकुश
ऐसी ही रहो...
तुम नारीत्व का गदराया दरख़्त हो
जो फलता फूलता है अँधेरे में
न चाहिए उसको धूप और न ही पानी...
तुम सागरकन्या हो जिसको सभी मर्द प्रिय हैं
और कोई भी मर्द प्यारा नहीं
जो सोयी हर अदद आदमी के साथ
और सोयी नहीं किसी के भी साथ
तुम रेगिस्तान की घुमक्कड़ कबाइली स्त्री हो
जो हर एक कबीले के साथ घूमती फिरती है
पर जब भी लौटती है
तो लौटती कुँवारी ही है...
ऐसी ही रहो...बिलकुल ऐसी ही...
(अनुवाद एवं प्रस्तुति: यादवेन्द्र)
वाह्………तारीफ़ के लिये शब्द भी खोजने पडेंगे।
जवाब देंहटाएंबौत उम्दा!
जवाब देंहटाएं