सोमवार, अगस्त 30, 2010

कवि का गद्य : मलयज

कवि का बहता हुआ गद्य, गद्य की समस्त संभावनाओं के साथ एक ऐसी संगीतात्मकता में अभिव्यक्त होता है जो गद्य की सख्त ज़मीन को उन नयी आहटों के लिए तैयार करता है जो उस गद्य में जगह पाकर नए देशकालों को, जो अब तक कहीं गहरे अँधेरे में थे, जन्म देकर कई तरह से आलोकित करता हैसाथ ही, कवि का गद्य रचना के मर्म से छिटकी, जड़ विचारों से आक्रांत आलोचना की बाड़ को तोड़ते हुए उसे लगातार और अधिक रचनात्मक होने की अति संवेदनशील महत्वाकांक्षा से भरता है 'काव्य-प्रसंग' पर कुछ ऐसे ही जादुई गद्य के नमूने प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा हैसबसे पहले कवि मलयज का गद्य :

शब्द में रहकर अब कुछ सिद्ध होगा, संभावना शब्द के बाहर ही है.

शब्द के बाहर तुम्हारा सामना पत्थर, गोली और झंडे से होगा. वे तुम्हें दबोच लेंगे, पर उससे डरो नहीं. अब तुम निहत्थे हो, जैसे कि लाखों-करोड़ों लोग हैं. केवल शब्द के साथ होने से तुम इन लाखों-करोड़ों लोगों से अलग थे और उन जड़ों से चिपके थे जो क्रमशः सूखती जा रही थी तुमने इन जड़ों का जाल कला के आलीशान भग्न शिखरों तक फैले हुए देखा था, तुम्हें याद है ? जब भी जड़ों की तरफ लौटने का आह्वान तुमसे किया गया (आह्वान करने वाले वे लोग कौन थे ?) तुम सिर्फ शब्द की तरफ लौटे थे, उस शब्द की तरफ जो धरती पर पड़ा-पड़ा सूख रहा था

तुम शब्द के बहार गए हो, पर भूलो मत, शब्द की नैतिकता से तुम स्वतंत्र नहीं हो तुम्हें पत्थर, गोली और झंडा, तीनों को झेलना है, इनके आपसी रिश्ते के कथ्य को भोगना है, इनके अलग-अलग अस्तित्व के रंगों की पहचान रखनी है, पर लौटना है तुम्हें शब्द की और ही शब्द की तरफ पुनः लौटने के लिए तुम्हें शब्द के बाहर आना ही होगा शब्द में लौटने की सम्भावना शब्द के बाहर है.

याद रखो, शब्द के बाहर सिर्फ पत्थर, गोली और झंडा ही नहीं है परिभाषाहीन बहुत कुछ तुम्हारे आसपास घाट रहा है, तुम इस घटने में शरीक भी हो, चुप और धैर्ययुक्त उसे देखो : उस घटने में रत आपने शारीर और मन को, वह जो घाट रहा है, तुम उसे छू सकते हो, वह कितना वास्तव है और जीवंत और शब्द का मोहताज नहीं। वह प्रतीक है, बिम्ब उसे तुम उठाओ और शब्द और शब्द के बीच सामान दूरी पर इस तरह रख दो कि शब्द सिर्फ उसका ताप महसूस करे, स्पर्श नहीं

गर्मी की एक शाम ... हवा बंद, खालीपन में चिड़ियाएँ तक नहीं। मेरे समय का खण्डित यथार्थ एक बिन्दु पर आकर असह्य हो चला था। एक ही रास्ता था कि मैं स्मृति के चोर दरवाजे से होकर कला के उस पुष्ट और क्लासिक सौन्दर्यलोक में पहुँच जाऊँ जहाँ कोई हड़बड़ी नहीं है, जहाँ सब कुछ निथरा हुआ है, द्वंद्वरहित शान्ति स्फटिक और समयसिद्ध। वहाँ अनुभूतियों का चिर वसन्त है और इतना प्रामाणिक है कि पेड से पत्ते टूटते हैं तो मन में बजते हैं, रंगों के बुलबुले फूटते हैं और कोमल मुहावरों की तरह संवेदना पर सज जाते हैं। वहाँ मिट्टी पर लीक छोड ता कोई अर्थ आकाश तक उठ गया है, कोई संस्कृति अपनी पार्थिव उपस्थिति को अपनी अमरता के स्पर्श से अनुपस्थित करती चली गयी है। वहाँ आदमी एक मूल्य है, एक सौन्दर्य मूल्य। वह आदमी तुम्हारे साथ चलता-फिरता हुआ होकर भी तुम्हारा नहीं है, वह तुम्हारी पकड से बाहर है, वह एक अमूर्त्तन है, वह मानव-राग है जो तुम्हारी तंत्री को धुनता है और उसमें से फूटता है, तुम्हें विह्‌वल करता है, पर उलटकर तुम उस चेहरे को देखना चाहो तो तुम पर झुकता चला आ रहा है तो कहीं कुछ नहीं। कहीं कुछ नहीं। न टूटती हुई नसें, न उधड ते हुए रेशे, न पछाड खाती बाँहें, न डगमगाते पाँव, न घूरता हुआ संशय। एक रेखा है जो घूम-फिरकर केवल एक वृत्त में समाप्त हो जाती है, न कहीं से कटती है, न कहीं से खण्डित होती है, न कहीं से जुड ती है। उस वृत्त के भीतर सब कुछ समाहित है : सुख और दुख, अच्छा और बुरा, गति और अगति, पाप और पुण्य, स्वर्ग और नरक सब, सब एक तर्क, एक नियम, एक व्यवस्था के अन्तर्गत है, प्रश्न भी और उत्तर भी, आस्था भी और अनास्था भी, द्वंद्व भी, अद्वंद्व भी सब, सब उस वृत्त के भीतर है और महान्‌ वृत्त क्या है ? कहीं हमारी भारतीय संस्कृति तो नहीं ?

जैसे-जैसे गरमी की वह शाम गहराने लगी मैं महसूस करने लगा कि मेरी स्मृति का सौन्दर्यलोक विषाद के नीले रंग में रँगता जा रहा है। जितना ही वह अनुभूतियों के पास आता-जाता है, उतना ही वह दृष्टि से दूर होता जाता है। संवेदना का मालूम नहीं, वह कौन-सा बिन्दु है, कौन-सा स्तर कि जहाँ वह जितना ही यथार्थ लगता जाता है, हकीकत में वह उतना ही अयथार्थ होता जाता है। नीला रंग शायद अयथार्थ का रंग है - यथार्थ की अतिक्रान्ति का : जैसे चोट का निशान पीड़ा की असह्यता और समय के साथ मिल-जुलकर नीला पड जाए, सुन्न, अवास्तविक, महज एक स्थिति। समृति के क्लासिक सौन्दर्य ने मुझे इस स्थिति तक लाकर छोड दिया है, एक तलछट की तरह। और यह भी उतना ही असह्य है, यह अयथार्थ, जितना कि वह यथार्थ कभी था।

यथार्थ और अयथार्थ दोनों की असह्यता को मैं झेलता हूँ। मैं दोनों में कहीं भी नहीं हूँ। शायद मैं दोनों में ही कहीं हूँ। दोनों के बीच कहीं कुछ घटित हो गया और बीच में एक खाई पैदा हो गयी है, अनुलंघ्य खाई।

मैं चाहता हूँ कि शब्द इस खाई को महसूस करे, उससे आँख न फेरे, इस यथार्थ या उस अयथार्थ के मुकम्मिल हवाले न हो जाए, दोनों के बीच एक धड कती हुई सत्ता की तरह मौजूद रहे, एक काँपते हुए पुल की तरह झूलता रहे ...

रात। यह पलायन नहीं है, न शब्द की आरामगाह। रात वह जमीन है जहाँ तुम्हें आग जलानी है, जिसमें तुम्हारे शब्द तपेंगे। शब्द के बाहर आकर तुम तपोगे, क्योंकि आग है। रात आग के लिए है। इस आग को उठाओ और शब्द और शब्द के बीच समान दूरी पर इस तरह रख दो कि शब्द सिर्फ उसका ताप महसूस करे, उसका स्पर्श नहीं - ओ स्पर्श ! / मुझे क्षमा करना / कि तुम मुझी में होकर मुझी से परे हो। /ओ माध्यम ! / क्षमा करना/ कि मैं तुम्हारे पार जाना चाहता रहा हूँ। (शमशेर)

(राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित मलयज की पुस्तक 'हँसते हुए मेरा अकेलापन' से साभार)


सोमवार, अगस्त 23, 2010

माफ़ीनामा : राइके दिया पितालोका की कविताएँ

1974 में पश्चिमी जावा में जनमी राइके दिया पितालोका इंडोनेशिया की लोकप्रिय युवा कवयित्री तो हैं ही, अभिनेत्री, गायिका, एक्टिविस् और सांसद भी हैं. इंडोनेशिया में सरकारी तंत्र की हिंसा पर व्यापक शोध, जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो कर एक प्रतिष्ठित सन्दर्भ ग्रन्थ का स्थान ले चुकी है. कई संकलन भी प्रकाशित। यहाँ प्रस्तुत हैं की चार कविताएँ
(
अनुवाद एवं प्रस्तुति यादवेन्द्र पाण्डेय)

माफ़ीनामा
माफ़ी चाहती हूँ
कि ज्यादा लिखना मुमकिन नहीं
स्याही ख़तम हो गयी है...
पिछली रात मैंने खुरच दिया था
आसमान पर ही तुम्हारा नाम।

बाथरूम का दिवास्वप्न
अच्छा हो यदि हम न रखें
जीवन का हिसाब किताब
लिख लिख कर डायरी के पन्नों में
कई बार ऐसा हो जाता है
कि हम उसको पढने लगते हैं उसी कोमलता से
जो पगी हुई थी उसमें उस पुरानी तारीख में..
ऐसे में हो सकता है मन खट्टा
और संभव है उस पर लग जाये
भुलाए न भूलने वाली ठेस.
इस से तो यही अच्छा
जीवन के पन्ने पलटने हों तो
हम घुस जाएँ दबे पाँव बाथरूम के अन्दर
फिर कोई शर्मिंदगी नहीं होगी
कर लो चाहे जो जो याद
मुस्कुराओ या रो ही क्यों न पड़ो
बाद में फ्लश चला कर बहा दो सब कुछ
इसके बाद नए सिरे से खुद को तैयार करो
पहले से बेहतर और स्वादिष्ट
नए खाने के लिए।

गुड मार्निंग ,प्रभु
खिड़की खोलती हूँ
तो ईश्वर करता है मेरा स्वागत:
बेटी , बोलो आज तुम्हे क्या चाहिए?
बोल पड़ती हूँ--
आजाद कर डालो प्रभु
सृष्टि के तमाम दबे कुचलों को..
गुलाबों की खुशबू के बीच
मुस्कुराता है ईश्वर
मेरे तोते को खूब भाती है ये सुगंध
मैं खोल देती हूँ उसका पिंजरा
डाल कर अन्दर अपना हाथ
प्यार से सहलाने लगती हूँ उसको
संदेह के साथ मुझे पहले तो वह घूरता है
पर मैं सिर हिला कर दिलाती हूँ
उसको भरोसा
फिर वह आश्वस्त हो कर
भर देता है उड़ान नीले अम्बर में..
गुड मार्निंग, प्रभु...
आपका बहुत बहुत शुक्रिया.

तुम्हे प्रेम करने के कारण
तुम्हारी आँखें निहारती हैं मेरी आँखें
तुम्हारी उँगलियाँ छूती हैं मेरी उँगलियाँ
तुम मुस्कुराते हो, वारी वारी जाती हूँ मैं...
प्रेम की बस मामूली सी शुरुआत
क्योंकि तुम्हारा प्रेम
उस सुबह के सिवा कुछ और नहीं
जो हमेशा जगाता है मुझे.
तुम खोल दिया करते हो मेरे दिल का खजाना
ढाल देते हो मदिरा मेरी प्याली में
थोड़ी सी -- तली से 2 सेंटीमीटर ऊपर तक
और फिर कहते हो:
नहीं चाहता कि तुम निढाल हो जाओ
नशेड़ियों की तरह..
क्यों कि तुम्हारा प्रेम
उस उजाले के सिवा कुछ और नहीं
जो गुंथा रहता है रात के साथ साथ.
शब्दों की मायावी माला नहीं बनाती मैं
पर तुम्हारे आलिंगनों के बीच डूब जाते हैं मेरे शब्द
मेरे आस पास यहाँ वहां बिखर जाते हैं
तुम्हारे शब्द
तुम्हारी धडकनें गुनगुनाने लगती हैं मेरे सीने के अन्दर
पक के फूट पड़ती हैं
पर दिखती नहीं एक भी खरोंच तक
लहराती हैं
पर बनती नहीं हिलोरें
हौले हौले फिसलती हैं कोमलता से
मुंड जाती हैं मेरी ऑंखें
और तुम्हारी ऑंखें भी
ऐसी खूबसूरती के साथ
कि कहीं होती नहीं कोई आहट भी....
क्यों कि तुम्हारा प्रेम
उस तसल्ली के सिवा कुछ और नहीं
जो आ जाती है प्यासे को पानी पी लेने के बाद.
तुम मेरे दुःख को बनने नहीं देते चीख
तुम मेरी हंसी को बनने नहीं देते लापरवाही
तुम लगाते नहीं कभी बंदिश मेरी टांगों पर
कि मेरा चलना भागना हो जाये दुश्वार
तुम कभी जंजीरों में बांधते नहीं मेरे हाथ
कि उम्मीदों को सचाई में बदलने की कोशिश में
धरती ही न आ पाए मेरी पकड़ में....
क्यों कि तुम्हारा प्रेम है
एक गर्म मुलायम कम्बल की मानिंद
जो देता है मुझे अपार दिलासा और सुकून.
तुम आने जाने देते हो मुझे
अपनी कविताओं के अन्दर बाहर
और जैसे मैं चाहूँ चुनने देते हो मुझे मेरे गीत
अपनी राम कहानी कहने के लिए
क्यों कि तुम्हारा प्रेम
खुली हवा सरीखा है
जो दिखाता चलता है मुझे रास्ते
तुम्हारे आजाद पंछी की तरह मुझे मुक्त छोड़ देने के बाद....
यही कारण है
कि मैं तुमसे करती हूँ इतना टूट कर प्रेम...
और सचमुच करती हूँ...

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

यह उन दिनों की बात थी: विशाल की कविता


यह उन दिनों की बात थी
जब मकान और बारिश में भीगी दीवारें
बोला करती थीं और
पेड़ों का तो कहना क्या

यह उन दिनों की बात थी जब
पशु-पक्षियों और मनुष्यों का सारा संसार
मटियाले स्मृति-टीलों पर
रंगों सा बिखरा था

यह उन दिनों की भी बात थी जब
जीवन का सोता
शब्दों के तटों से दूर-दूर बहता था
जे तटों के प्यासे बुलावे पर
अक्सर अपनी भीगी बयार भेजा करता था

यह उन दिनों की भी बात थी जब
धरती पर ठंडी हवा
बहते हुए प्यासे पानी के होठों को चूमकर
गर्म हो जाया करती थी

हाँ, यह उन दिनों की बात रही होगी जब
सूरज समय देखकर नहीं निकलता होगा और
रात
रात-भर रहस्य बुनती हुई
दिन की शान्त गोद में सो जाया करती होगी

यह उन दिनों की बात थी
जब धरती होगी
और उससे कहीं अधिक बड़ा कुछ
उसे घेरे रहा होगा

नहीं,
यह उन दिनों की भी बात थी
जब आसमान नहीं बँटा था
आसमान जो ऊपर में पसरा था
ठीक वैसा ही धान के खेत में डूबा था
और धरती अपने पेड़ों के हाथों से
आसमान के सर में गुदगुदी कुरेल किया करती होगी

यह उन दिनों की बात थी
कि धरती रही होगी
कभी !

विशाल युवा कवि एवं आलोचक हैं। एक कविता संग्रह ‘आज भी अनादि से’ प्रकाशित हो चुका है। मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) में रहते हैं। साहित्य एवं आलोचना के गम्भीर अध्येता हैं। पूर्व मंे जनसत्ता एवं ‘राष्ट्रीय सहारा में अनेक आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। ‘कथादेश’ के अगस्त अंक में हुसैन प्रसंग में उनका एक आलेख देखा जा सकता है।

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

पुरुषोत्तम की जनानी : लीलाधर जगूड़ी

एक पेड़ को छोड़कर फिलहाल और कोई जिन्दगी मुझे
याद नहीं आ रही
जो जिस समय डरी हो और उसी समय मरी न हो

जिसने मरने का पूरा उपाय रचे जाते देखा हो
और न जी पाने वालों के बाद भी जिन्दा रहना और बढ़ना न छोड़ा हो
जो न कह पाते हुए भी न भूल पाने का हवाला देकर
फाँसी के फन्दे की याद दिला देता हो

भले ही ऐसे और जो ऐसे नहीं हैं वैसे पेड़ अँधेरे में भूत नजर आते हों
पर वे रातों को घरांे में
खिड़कियों के सींखचे पार करके आ पहुँचते हैं
और घर की सब चीजों को छूकर
नाक से फेफड़ों में चले जाते हैं
और बालों, नाखूनों तक से वापस होकर
रोशनदानों से बाहर निकलकर फिर सींकचों से अंदर चले आते हैं

वैसे वे पेड़ अँधेरे में भ्ूतों से और उजाले में देवदूतों से नज़र आते हैं
कि जैसे अलग-अलग किस्म का दरबार लगाते हुए हों
कुछ उत्पादन का कुछ व्यक्तित्व की छाया का
कुछ अपने छोटेपन का कुछ अपनी ऊँचाइयों का ... दरबार...
पर जो पेड़ खेत किनारे पगडंडी से थोड़ा ऊँचाई पर दिखते हैं
जैसे जन्म से ही सिंहासनारूढ़ हों
भले ही कुछ तो सिपाहियों जैसे दिखते हैं
पर एक जो सयाना सा बीच में कुछ ज्यादा उचका हुआ नेता-सा दिखता है
उससे पता नहीं पुरुषोत्तम की जनानी ने
कब, क्या और कैसे कोई आश्वासन ले लिया कि बेचारी ने वह योजना
बना डाली
सारे विकल्प बेकार हो जाने पर जिसका नम्बर आता है

पुरुषोत्तम की जनानी द्वारा आत्महत्या के अनजाने कारणों वाली रात से
वह नेताओं वाली शैली में नहीं बल्कि एक पेड़ वाली खानदानी शैली में
लाश के साथ टूटने की हद तक झुका रहा काफी दिन
जैसे मनुष्य मूल्यों के अनुसार अटूट सहारा देना चाह रहा हो
जो मनुष्य होकर पुरुषोत्तम नहीं दे सका अपनी जनानी को

बकौल लोगों के इस जनानी मंे धीरज न था
और पेड़ की चुप्पी कहती है कि उसमें उतना वजन न था
कि टहनी फटकर टूट जाती या इतना झुक जाती
कि मरने से पहले ही वह जमीन छू लेती और बच जाती

मकानों मंे जो घर होते हैं और घरों में जो लोग रहते हैं
और लोगों में जो दिल होते हैं और दिलों में जो रिश्ते होते हैं
और रिश्तों में जो दर्द होते हैं
और दर्द में जो करुणा और साहस रहते हैं
और उनसे मनुष्य होने के जो दुस्साहस पैदा होते हैं
वे सब मिलकर इस टीले वाले पेड़ तक आये थे रात
पुरुषोत्तम की अकेली बीवी का साथ निभाने या उसका साथ छोड़ने
एक व्यक्ति के निजी कर्त्तव्य या दुखी निर्णयों ने भी
अंतिम क्षण तक कितनी पीड़ा से उसका साथ छोड़ा था यहाँ पर,
चरमराया पेड़ मारे घबराहट के कभी बता न सकेगा

पूरे इलाके में छह महीने से एक मनुष्य की मृत्यु टँगी हुई है
उस पेड़ पर
जो कैसे और क्यों जिन्दा रहने पर पछताया हुआ दिख रहा है
मजबूत समझकर पुरुषोत्तम की जनानी ने उस पर फंदा डाला होगा
जो पहली बार डरा होगा उसकी कमजोरी और अपनी मजबूती से
कई दिन तक रोज जुटने वाली भीड़ के बावजूद उसकी निस्तब्धता तो
यही बताती थी

अब इस पेड़ के सिवा पुरुषोत्तम की जनानी की जिन्दगी के बारे में
कोई दूसरी जिन्दगी मुझे फिलहाल याद नहीं आती
जो किसी के सामने जिस समय डरी हो और उसी समय मरी न हो ...

बाकायदा फंदा डालते हुए उसने
कुछ तो और समय करने की तैयारी में लगाया होगा
पहले बिल्ली की तरह चिपककर, तने पर वहाँ तक पहुँची होगी
जहाँ से पेड़ चैराहे की तरह कई शाखाओं में बँट गया है
फिर कमर से रस्सी खोलने के बाद टहनी पर फंदा बनाया होगा
तब एक छोर गले में बाँधकर कूदने का इरादा किया होगा
तब सुनिश्चित होकर अनिश्चित मंे छलाँग लगायी होगी
मरने से कुछ देर पहले वह जीवित झूली होगी

उसकी कोई झिझकी या ठिठकी मुद्रा बची रह गयी हो
तो पेड़ की अँधेरी जड़ों में होगी
आसमान में कहीं कुछ अंकित नहीं है

पता नहीं पेड़ और पुरुषोत्तम की जनानी में जीने के बदले
मरने का यह रिश्ता कैसे बना ?
जिस पर मरने वाले के बजाय जीने वाला पेड़ होकर भी शर्मिन्दा है
इसी शर्मिन्दगी में से पैदा होने हैं इस साल के फूल-फल और पत्ते
पर इस देश में बसंत पर शर्मिन्दगी का संवाद सुनने-पढ़ने की परम्परा नहीं है।

सोमवार, अगस्त 09, 2010

क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे : निज़ार कबानी

(निज़ार कबानी की नई कविता)
जिस देश में चिंतकों को मौत के घाट उतार दिया जाता हो और लेखकों को समझा जाता हो अनीश्वरवादी ...किताबें कर दी जाती हों जहाँ आग के हवाले...जिस समाज में दूसरे सब को सिरे से नकारने का रिवाज हो और जहाँ बोलने वाले मुंहों पर चस्पाँ कर दी जाती हो चुप्पी...विचारों पर जहाँ लगा दी जाती हों पाबंदियाँ...सवाल करना जहाँ सबसे बड़ा गुनाह घोषित कर दिया जाये...आप मेरी गुस्ताखी माफ़ करें...क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं अपने बच्चों की परवरिश वैसे करूँ जैसी करना चाहता हूँ ..जहाँ आप अपना कोई फ़रमान और मर्ज़ी मुझ पर न थोपें?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपने बच्चों को सिखा पाऊं कि धर्म का वास्ता सीधे खुदा से है, न कि मौलवियों से...और न ही उस्तादों से और न ही लोगों से?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि नन्ही बिटिया को सबसे पहले तो ये बताऊँ कि धर्म के मायने होते हैं अच्छा बर्ताव, अच्छा आचरण, अच्छा चालचलन, ईमानदारी और सच्चाई ...बाकी बातें बाद में जैसे कि गुसलखाने में पहले कौन सा पैर दाखिल करना है..या खाना किस हाथ से खाना है?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपनी बेटी को कहूँ कि खुदा प्रेम का ही दूसरा रूप होता है...और वो जब चाहे सीधे उस से बातें कर सकती है...जो मन में आए उस से पूछ सकती है..चाहे उसके मन में आया विचार किसी और के उपदेशों से कितना भी अलहदा क्यों न हो?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपने बच्चों के सामने कब्रों के अन्दर दी जाने वाली यातनाओं का कोई जिक्र न करूँ क्यों कि उन्हें तो अबतक इसका भी ज्ञान नहीं है कि मौत आखिर होती क्या है?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपनी बेटी को सबसे पहले धर्म ,संस्कृति और आचार विचार की खास खास बातें बताऊँ...और इस से पहले उस पर हिजाब (बुरका) की बंदिशें न लगाऊँ ?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपने बेटे को ये समझाऊँ कि राष्ट्रीयता, चमड़े के रंग और मजहब का आधार बना कर किसी व्यक्ति को अपमानित करना या नुकसान पहुँचाना खुदा के खिलाफ गुनाह है?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं अपनी बेटी को ये नसीहत दूँ कि खुदा की निगाह में अपना होम वर्क पूरा करना और मन लगा कर ध्यान से सबक याद करना ज्यादा जरुरी और महत्व पूर्ण है...बनिस्बत इसके कि कुरान की आयतें जुबानी तो याद कर ली जाएँ पर उनके मायने न मालूम हों?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं अपने बेटे को पैगम्बर मुहम्मद के पदचिन्हों पर चलने का सबसे पहला मतलब बतलाऊं ईमानदारी, निष्ठा और सच्चाई के साथ आगे कदम बढ़ाना... दाढ़ी कितनी बड़ी रखनी चाहिए..या..लबादा कितना लम्बा होना चाहिए,ये सभी बातें बाद में?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं उसको सिखाऊं कि अपनी इसाई सखी को वो अनीश्वरवादी न माने और इस बात से घबरा कर रोने पीटने न लगे कि सखी को तो नरक में ही जगह मिलेगी?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं तर्क कर के लोगों को ये बताने की कोशिश करूँ कि पैगम्बर के बाद खुदा ने इस धरती पर किसी को भी अपने प्रतिनिधि के तौर पर किसी तरह का फ़रमान जारी करने का अधिकार नहीं बख्शा है...न ही किसी को अपराधों से मुक्ति दिलाने की कोई शक्ति सौंपी है?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं ये बात लोगों को बताऊँ कि खुदा मानवीय मूल्यों की हत्या करने वालों को माफ़ी नहीं बख्शता...उसकी निगाह में बिना किसी कारण के किसी इंसान का क़त्ल करने के मायने सम्पूर्ण मानव जाति का संहार होता है...और जहाँ तक मुसलमानों का सवाल है एक मुसलमान दूसरे किसी मुसलमान को डराए धमकाए इसका हक़ उसको बिलकुल नहीं है?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं अपने बच्चों को सिखाऊं कि धरती के तमाम धार्मिक विद्वान् मिल कर भी उतने महान, न्यायपूर्ण और दयालु नहीं हो सकते जितना कि अकेले खुदा है?और ये भी कि सभी मामलों में उसका पैमाना धर्म का धंधा करने वाले तमाम लोगों से अलग है...और उसकी जिम्मेदारी में पलने वाले सभी इंसानों के ऊपर उसकी कृपा दृष्टि है..इतना ही नहीं वो खूब क्षमाशील भी है?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे????

अनुवाद, चयन एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र पाण्डेय

शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

सीरियाई कविता : निज़ार कब्बानी


निजार कब्बानी आधुनिक अरब संवेदना में प्रेम के प्रतिनिधि कवि माने जातेहैं।१९२३ में सीरिया की राजधानी दमिश्क में एक खाते पीते प्रबुद्ध परिवार में उनका जन्म हुआ-उनके पिता की चाकलेट की फैक्ट्री थी।तत्कालीन प्रतिरोधी आन्दोलनकारियों की मदद करते रहने के कारण कई बार उनको जेल की हवा भी खानी पड़ी।जब निजार १५ वर्ष के हुए तो उनकी बहन की शादी जबरदस्ती बड़ी उम्र के किसी व्यक्ति के साथ की जाने लगी तो उन्होंने विरोध स्वरुप आत्महत्या का वरण कर लिया-इस घटना ने निजार का सम्पूर्ण कवि कर्म निर्धारित कर दिया और जीवन पर्यन्त वे स्त्रियों के मन की आवाज को शब्ददेने कोशिश करते रहे।एक बार उन्होंने कहा भी:अरबी समाज में प्रेम एक कैदी जैसा है और मैं इसको आजाद कर देना चाहता हूँ।मैं अपनी कविता के माध्यम से अरबी आत्मा,संवेदना और शरीर को मुक्ति की राह पर ले जाना चाहता हूँ।
१९ साल की कच्ची उम्र में उनका पहला कविता संकलन प्रकाशित हुआ और अपनी उन्मुक्त रूमानियत के कारण पारंपरिक सीरियाई समाज में खूब विवादास्पद भी रहा ,पर इसके बाद निजार ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपनी जीविका के तौर पर वे सीरियाई राजनयिक के रूप में काहिरा, इस्ताम्बुल, बेरुत, मेड्रिड,लन्दन और बीजिंग में रहे। बेरुत में रहते हुए लेबनानी गृह युद्ध में उनकी पत्नी की एक बम धमाके में हत्या हो गयी-इस से वे इतने आहट हुए कि यूरोप में जा कर बस गए।अपने ५० साल के लेखकीय जीवन में उन्होंने करीब ४० किताबें प्रकाशित कीं।१९९८ में ७५ साल की पक्की उम्र में उनका इंतकाल हुआ। यहाँ प्रस्तुत हैं निजार कब्बानी की कुछ कवितायेँ-चयन और प्रस्तुति यादवेन्द्र पाण्डेय की है :

जब मैं करता हूँ प्रेम
जब मैं करता हूँ प्रेम
लगने लगता है मैं ही हूँ काल का नियंता
अपने ऊपर सारी दुनिया धारण किए हुए
पृथ्वी मेरी मुट्ठी में है
और मैं बढ़ता-बढ़ता सूरज तक चला जाता हूँ
अपने घोड़े का सवार बनकर।

जब मैं करता हूँ प्रेम
मैं बन जाता हूँ
आँखांे की पकड़ में न आने वाला
प्रवाहमान तरल प्रकाश
और मेरी डायरी में लिखी तमाम कविताएँ
भेस बदलकर बन जाती हैं
नशे से उन्मत्त कर देने वाली फूलों की क्यारियाँ।

जब मैं करता हूँ प्रेम
हिलकोरें मारकर निकल पड़ती है जलधारा
मेरी उँगलियों के पोर से
मेरी जिह्वा पर झूमने लगती हैं बाँकी झाड़ियाँ

जब मैं करता हूँ प्रेम
तो बन जाता हूँ
काल से परे का काल

जब मैं करता हूँ प्रेम
किसी स्त्री से
तो दुनिया-भर के वृक्ष
सरपट दौड़कर बढ़ने लगते हैं मेरी ओर
सुधबुध खोए, नंगे पाँव ही।

रोशनी लालटेन से ज्यादा मूल्यवान है
रोशनी लालटेन से ज्यादा मूल्यवान है
जैसे कि कविता डायरी से ज्यादा
और चुम्बन होठों से ज्यादा मूल्यवान हैं।

जब मैं तुम्हें लिखता हूँ चिट्ठियाँ
वे सब हम दोनों से ज्यादा मूल्यवान होती हैं
सिर्फ यही ऐसे दस्तावेजी सबूत हैं
जिनसे लोग जान पाएँगे
कितना अप्रतिम था तुम्हारा लावण्य/सौंदर्य
और कैसी थी इसके लिए
मेरी दीवानगी।

तुम्हारे लिए नये शब्द
मैं गढ़ना चाहता हूँ तुम्हारे लिए अनेकानेक शब्द
केवल तुम्हारे लिए ईजाद करना चाहता हूँ एक नयी भाषा
जिसका नाप बिल्कुल सही आए
तुम्हारे बदन के लिए
और साथ में मेरे प्यार के लिए भी।

शब्दकोश दूर रखकर करना चाहता हूँ यात्राएँ
और परे छोड़ जाना चाहता हूँ अपने होंठ
मैं थक चुका हूँ अपने मुँह से
अब चाहता हूँ अपने लिए दूसरा मुँह
जो तब्दील हो जाए
किसी चेरी वृक्ष में
या फिर माचिस की डिब्बी में -
ऐसा मुँह जिसमें प्रवाहित हों शब्द
जैसे सागर से अवतरित होती है जलपरी
या जादूगर के हैट से यहाँ-वहाँ
छिटककर फैल जाते हैं
सफेद चूजे ही चूजे।

छीन लो मुझसे
बचपन में पढ़ी सारी किताबें
स्कूलों की कापियाँ
बोर्ड पर लिखने वाली खड़िया
और ब्लैकबोर्ड भी ले लो मुझसे छीनकर
बस इतना रहम करो
कि सिखा दो कोई नया शब्द
जो मेरी प्रेमिका के कान में लटक जाए
छुमकते-इतराते झुमकों जैसा।

मुझे कामना है नयी उँगलियांे की
जो लिख सकें इतर ढंग से
जो ऊँची हों जहाज के उन्नत मस्तूल जैसी
जिराफ़ के गर्दन जैसी लम्बी हों
और इनसे सब कुछ इकट्ठा करके
मैं सिल पाऊँ करीने से
अपनी प्रेमिका के लिए
कविता का एक लुभावना परिधान।

मैं तुम्हें बना देना चाहता हूँ एक नायाब पुस्तकालय
जिसमें चाहता हूँ कि शामिल करूँ
बारिश की लय
चाँद की छिटकन
धूसर मेघों की उदासी
और पतझड़ के प्रवाह में
पेड़ों से बिछुड़ गयी पत्तियों का विरह -
सब कुछ एक साथ ! सब कुछ साथ-साथ।

चयन व प्रस्तुति : यादवेन्द्र, रुड़की

मंगलवार, अगस्त 03, 2010

शकेब जलाली की ग़ज़लें


शकेब जलाली उ.प्र. बदायूँ में पैदा हुए, लेकिन बाद में पार्टीशन का दर्द लिये वे पाकिस्तान चले गये। जीवन-भर न जाने कितने अंतर्संघर्षों से जूझते रहे कि आखिर 1964 के आसपास उन्होंने आत्महत्या कर ली। पेश हैं उनकी दो ग़ज़लें -

एक -
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मगर रंग मेरा दिन ढले भी देख

हर चन्द राख होके बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख

आलम में जिसकी धूम थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे कभी वो तबसिरे भी देख

तूने कहा था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब ढाँप मुझे डूबते भी देख

क्या शाख़े-बा-समर है जो तकता है फ़र्श को
नज़रें उठाशकेबकभी सामने भी देख

(शाहकार = अत्युत्तम कृतितबसरे = समीक्षाएंशाखे-बा-समर = फलों से लदी शाखा।)


दो -
हमजिंस अगर मिले कोई आसमान पर
बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर

आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू में तर
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर

पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता
देखा हवा का नक्श कभी बादबान पर

यारो मैं इस नज़र की बलंदी को क्या करूँ
साया भी अपना देखता हूँ आसमान पर

कितने ही ज़ख्म हैं मेरे एक ज़ख्म में छिपे
कितने ही तीर आन लगे एक निशान पर

जल-थल हुईं तमाम ज़मीं आसपास की
पानी की बूँद भी गिरी सायबान पर

मलबूस ख़ुशनुमा है मगर खोखले हैं जिस्म
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर

साया नहीं था नींद का आँखों में दूर तक
बिखरे थे रोशनी के नगीं आसमान पर

हक़ बात आके रुक-सी गयी थी कभी शकेब
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर

(बादबान = जहाज पर बाँधा जाने वाला कपडा, पालमलबूस = वस्त्र।)

सोमवार, अगस्त 02, 2010

उसने कहा : विभूतिनारायण राय

उसने कहा -
‘लेखिकाओं में यह साबित करने की होड़ लगी है कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है..यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है।’’
-श्री विभूतिनारायण राय
‘‘मुझे लगता है इधर एक बहु चर्चित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक हो सकता था- ‘‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’।’
- श्री विभूतिनारायण राय (एक महिला की आत्मकथा पर टिप्पणी करते हुए)
ऐसे शब्द स्त्री जाति के लिए सबसे वीभत्स गाली है। समस्त महिला लेखन का सामान्यीकरण करते हुए साक्षात्कारदाता ने जो फतवा जारी किया है यह बेहद शर्मनाक और विरोध किए जाने योग्य है। सबसे पहले तो यह पूछा जाना जरूरी है कि साक्षात्कारदाता जिस विषय पर साक्षात्कार दे रहे थे क्या वे उस विषय के विशेषज्ञ हैं। पिछले बहुत दिनों से इस पत्रिका ने साक्षात्कार जैसी साहित्यिक विधा को दरकिनार कर रखा था। अचानक संपादक महोदय को क्या सूझा कि इस विषय पर किसी समाजशास्त्री से बातचीत न कराके एक ऐसे लेखक को चुना जो पुलिस अधिकारी भी है। यह भाषा किसी सतर्क लेखक की नहीं बल्कि थर्ड डिग्री देने वाले किसी उदंड़ पुलिस अधिकारी की ही हो सकती है। आज बाज़ारवादी संस्कृति में नया ज्ञानोदय जैसी पत्रिका सस्ती लोकप्रियता बटोरने में लगी हुई हैं प्रतिष्ठित संस्थान /न्यास इस पत्रिका का साहित्य जगत में आदर के साथ नाम लिया जाता है लेकिन यह संस्थान अपने निदेशक-संपादक के (कु) कृत्यों से अपनी 67 वर्षों की उस ज्ञान गरिमा को बचा पाएगा यह सोचना दुख देता है।
- प्रकाश विद्रोही, झारखंड