रविवार, जुलाई 24, 2011

राजेश रेड्डी की ग़ज़लें



1

शाम को जिस वक्त खाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं

जानता हूँ रेत पर वो चिलचिलाती धूप है
जाने किस उम्मीद में फिर भी उधर जाता हूँ मैं

सारी दुनिया से अकेले जूझ लेता हूँ कभी
और कभी अपने ही साये से भी डर जाता हूँ मैं

ज़िन्दगी जब मुझसे मजबूती की रखती है उमीद
फैसले की उस घड़ी में क्यूँ बिखर जाता हूँ मैं

आपके रस्ते हैं आसाँ, आपकी मंजिल करीब
ये डगर कुछ और ही है जिस डगर जाता हूँ मैं

2
मिट्टी का जिस्म लेके मैं पानी के घर में हूँ
मंज़िल है मेरी मौत, मैं हर पल सफ़र में हूँ

होना है मेरा क़त्ल ये मालूम है मुझे
लेकिन ख़बर नहीं कि मैं किसकी नज़र में हूँ

पीकर भी ज़हरे-ज़िन्दगी ज़िन्दा हूँ किस तरह
जादू ये कौन-सा है, मैं किसके असर में हूँ

अब मेरा अपने दोस्त से रिश्ता अजीब है
हर पल वो मेरे डर में है, मैं उसके डर में हूँ

मुझसे न पूछिए मेरे साहिल की दूरियाँ
मैं तो न जाने कब से भँवर-दर-भँवर में हूँ

3
मेरी ज़िंदगी के मआनी बदल दे
खु़दा इस समुन्दर का पानी बदल दे

कई बाक़ये यूँ लगे, जैसे कोई
सुनाते-सुनाते कहानी बदल दे

न आया तमाम उम्र आखि़र न आया
वो पल जो मेरी ज़िंदगानी बदल दे

उढ़ा दे मेरी रूह को इक नया तन
ये चादर है मैली- पुरानी, बदल दे

है सदियों से दुनिया में दुख़ की हकूमत
खु़दा! अब तो ये हुक्मरानी बदल दे

शुक्रवार, जुलाई 15, 2011

स्वामीनाथन का झल्ला: विशाल

विशाल की यह कविता उन दिनों की याद में जब हम मित्र मुजफ्फरनगर में स्वामीनाथन को लेकर एक कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारी में थे। जे. स्वामीनाथन की कविताओं ने उनके चित्रों में एक नया संसार देखने का सूत्र हमें दिया। परिणाम यह हुआ कि कुछ ऐसी भावभूमि बनी कि कार्यक्रम का आयोजन मात्र औपचारिकता बनकर रह गया और स्वामीनाथन का झल्ला तो (बकौल तुलसी रमण, सम्पादक ‘विपाशा’) विशाल की कविता में आकर बैठ गया।
दृश्य: एक
दुनिया की उन
सभी प्यारी चीजों ने
अपने खत्म होते-होते ही
बना लिए थे घर
प्रतीकों में
जो अर्थां से छिपने की
कामयाब जगह मानी जाती है
बिन्दु में
जो कोई जगह तक नहीं घेरता
रेखाओं में
जिसकी कोई मोटाई तक नहीं होती
रंगों में
जो छिपकर लगातार बदलते हैं
अपने रंग
उन शब्दों में
जिन्हें अपने गलत इस्तेमाल का
डर नहीं होता
और जो निर्जीव पत्थर-से
ऐंठे पड़े रहते हैं
अक्सर तब भी
जब वे खूब गर्म हो रहे हों।

दृश्य: दो
दृश्य दो में दृश्य एक के
सभी विस्थापित आश्रय
सन्दर्भहीन सन्दर्भ में हैं
इसे गलत संदर्भ कहने का अधिकार
अभी आपको है मुझे नहीं

बेरोक-टोक छुट्टे घूम रहे
वाचाल असदंर्भित भालों की नोकों पर
अश्लील लिखावट में
नारों से लहराते हैं
सभी प्रतीक रंग रेखाएँ
और शब्द।

दृश्य: तीन
इस दृश्य का नायक -
एक दिन उसकी आह उठती है
गूँज बनने से पहले ही डूब जाती है

उसी की भीतरी घुटन में
और धड़कन एक धड़ाम में फटती है

अब दृश्य का नायक
गलत संदर्भ-सा टंगा है
संदर्भित दीवार पर।

दृश्य: चार
इस दृश्य में
तीनों दृश्यों के बाहर
ज. स्वामीनाथन का झल्ला बैठा है
जिसकी आँखों से सूरज अक्सर
चुरा ले आता है
चमकने का रहस्य।

* ज. स्वामीनाथन की कविताओं के लिए यहाँ क्लिक करें। विशाल की यह कविता ‘विपाशा’ के नवीनतम अंक में प्रकाशित हुई है। आभार।

बुधवार, जुलाई 13, 2011

नये इलाके में: अरुण कमल

इन नये बसते इलाकों में
जहाँ रोज बन रहे हैं नये-नये मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ

धोखा दे जाते हैं पुराने निशान
खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और जमीन का खाली टुकड़ा जहाँ से बायें
मुड़ना था मुझे
फिर दो मकान बाद बिना रंग वाले लोहे के फाटक का
घर था इकमंजिला

और मैं हर बार एक घर पीछे
चल देता हूँ
या दो घर आगे ठकमकाता

यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं
एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे वसन्त का गया पतझड़ को लौटा हूँ
जैसे बैशाख का गया भादों को लौटा हूँ

अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो -
क्या यही है वो घर ?

समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।

* कवि का फोटो hindilekhak.blogspot.com/2007/12/blog-post_4259.html से साभार