मंगलवार, अगस्त 03, 2010

शकेब जलाली की ग़ज़लें


शकेब जलाली उ.प्र. बदायूँ में पैदा हुए, लेकिन बाद में पार्टीशन का दर्द लिये वे पाकिस्तान चले गये। जीवन-भर न जाने कितने अंतर्संघर्षों से जूझते रहे कि आखिर 1964 के आसपास उन्होंने आत्महत्या कर ली। पेश हैं उनकी दो ग़ज़लें -

एक -
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मगर रंग मेरा दिन ढले भी देख

हर चन्द राख होके बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख

आलम में जिसकी धूम थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे कभी वो तबसिरे भी देख

तूने कहा था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब ढाँप मुझे डूबते भी देख

क्या शाख़े-बा-समर है जो तकता है फ़र्श को
नज़रें उठाशकेबकभी सामने भी देख

(शाहकार = अत्युत्तम कृतितबसरे = समीक्षाएंशाखे-बा-समर = फलों से लदी शाखा।)


दो -
हमजिंस अगर मिले कोई आसमान पर
बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर

आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू में तर
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर

पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता
देखा हवा का नक्श कभी बादबान पर

यारो मैं इस नज़र की बलंदी को क्या करूँ
साया भी अपना देखता हूँ आसमान पर

कितने ही ज़ख्म हैं मेरे एक ज़ख्म में छिपे
कितने ही तीर आन लगे एक निशान पर

जल-थल हुईं तमाम ज़मीं आसपास की
पानी की बूँद भी गिरी सायबान पर

मलबूस ख़ुशनुमा है मगर खोखले हैं जिस्म
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर

साया नहीं था नींद का आँखों में दूर तक
बिखरे थे रोशनी के नगीं आसमान पर

हक़ बात आके रुक-सी गयी थी कभी शकेब
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर

(बादबान = जहाज पर बाँधा जाने वाला कपडा, पालमलबूस = वस्त्र।)

14 टिप्‍पणियां:

  1. मलबूस ख़ुशनुमा हैं मगर ख़ोख़ले हैं जिस्म। क़ाबिले तारीफ़ गज़ल।

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  2. दोनों ही गज़लें पढ़कर आनन्द आ गया. बहुत आभार आपका प्रस्तुत करने के लिए.

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  3. भाई परमेन्‍द्र जी शकेब जलाली की दोनों रचनाएं जिंदगी को बहुत करीब से दिखाती हैं। आभार। एक आग्रह है । उनके परिचय में शब्‍द आया है कि उन्‍होंने आत्‍महत्‍या कर ली। सच तो यही रहा होगा। पर क्‍या एक रचनाकार के परिचय में इसे कुछ और तरीके से नहीं कहा जा सकता। पता नहीं क्‍यों मुझे यहां यह शब्‍द बहुत ही क्रूर लग रहा है। अब क्रूर तो वह है ही।

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  4. आदरणीय भाई, किसी रचनाकार के लिए भी जीवन उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है, जितना हर इनसान के लिए। हालाँकि जीवन-संघर्षों की घुटन से बाहर आने के लिए रचनात्मकता एक सेफ्टी वाल्व की तरह ही काम करती है। यदि रचनाकार इसके बावजूद आत्महत्या का वरण करता है, तो उसके पीछे कोई न कोई अपरिहार्य परिस्थितियाँ रहती होंगी, या इसे मौजूदा परिस्थितियों में भी जीते रहने की नियति के प्रतिरोध के रूप में लिया जाना चाहिए।

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  5. उम्दा ग़ज़लें...
    कुछ अश्‍आर तो लाज़वाब हैं...

    जीते रहने की नियति के प्रतिरोध के रूप में...क्या बात कही है...

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  6. उम्दा ग़ज़लें...
    कुछ अश्‍आर तो लाज़वाब हैं...
    शाहकार का अर्थ आज जाना, सुना तो बहुत बार था. धन्यवाद अर्थ भी देने के लिये.

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  7. परमेन्‍द्र भाई आपकी बात से सहमति है। मेरा आश्‍य था आत्‍महत्‍या शब्‍द की जगह कुछ और कहा जाता। यानी उन्‍होंने खुद को खत्‍म कर लिया। अपनी इहलीला समाप्‍त कर ली। यह सही है कि उससे संदर्भ नहीं बदलता न ही हकीकत।

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  8. दोनो ही गज़लें बेहतरीन ज़िन्दगी की तल्ख सच्चाईयों से रु-ब-रु कराती हुयी।

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  9. Shakeb Jalaali (marhoom) sahab ki gazaleiN
    har haal meiN "amar-kaavya" ka
    darjaa rakhti haiN
    unhei padhvaane ke liye
    aapka bahut bahut shukriyaa .

    'daanish' bhaarti

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