(निज़ार कबानी की नई कविता) जिस देश में चिंतकों को मौत के घाट उतार दिया जाता हो और लेखकों को समझा जाता हो अनीश्वरवादी ...किताबें कर दी जाती हों जहाँ आग के हवाले...जिस समाज में दूसरे सब को सिरे से नकारने का रिवाज हो और जहाँ बोलने वाले मुंहों पर चस्पाँ कर दी जाती हो चुप्पी...विचारों पर जहाँ लगा दी जाती हों पाबंदियाँ...सवाल करना जहाँ सबसे बड़ा गुनाह घोषित कर दिया जाये...आप मेरी गुस्ताखी माफ़ करें...क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं अपने बच्चों की परवरिश वैसे करूँ जैसी करना चाहता हूँ ..जहाँ आप अपना कोई फ़रमान और मर्ज़ी मुझ पर न थोपें?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपने बच्चों को सिखा पाऊं कि धर्म का वास्ता सीधे खुदा से है, न कि मौलवियों से...और न ही उस्तादों से और न ही लोगों से?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि नन्ही बिटिया को सबसे पहले तो ये बताऊँ कि धर्म के मायने होते हैं अच्छा बर्ताव, अच्छा आचरण, अच्छा चालचलन, ईमानदारी और सच्चाई ...बाकी बातें बाद में जैसे कि गुसलखाने में पहले कौन सा पैर दाखिल करना है..या खाना किस हाथ से खाना है?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपनी बेटी को कहूँ कि खुदा प्रेम का ही दूसरा रूप होता है...और वो जब चाहे सीधे उस से बातें कर सकती है...जो मन में आए उस से पूछ सकती है..चाहे उसके मन में आया विचार किसी और के उपदेशों से कितना भी अलहदा क्यों न हो?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपने बच्चों के सामने कब्रों के अन्दर दी जाने वाली यातनाओं का कोई जिक्र न करूँ क्यों कि उन्हें तो अबतक इसका भी ज्ञान नहीं है कि मौत आखिर होती क्या है?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपनी बेटी को सबसे पहले धर्म ,संस्कृति और आचार विचार की खास खास बातें बताऊँ...और इस से पहले उस पर हिजाब (बुरका) की बंदिशें न लगाऊँ ?
क्या आप इसकी इजाज़त मुझे देंगे कि मैं अपने बेटे को ये समझाऊँ कि राष्ट्रीयता, चमड़े के रंग और मजहब का आधार बना कर किसी व्यक्ति को अपमानित करना या नुकसान पहुँचाना खुदा के खिलाफ गुनाह है?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं अपनी बेटी को ये नसीहत दूँ कि खुदा की निगाह में अपना होम वर्क पूरा करना और मन लगा कर ध्यान से सबक याद करना ज्यादा जरुरी और महत्व पूर्ण है...बनिस्बत इसके कि कुरान की आयतें जुबानी तो याद कर ली जाएँ पर उनके मायने न मालूम हों?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं अपने बेटे को पैगम्बर मुहम्मद के पदचिन्हों पर चलने का सबसे पहला मतलब बतलाऊं ईमानदारी, निष्ठा और सच्चाई के साथ आगे कदम बढ़ाना... दाढ़ी कितनी बड़ी रखनी चाहिए..या..लबादा कितना लम्बा होना चाहिए,ये सभी बातें बाद में?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं उसको सिखाऊं कि अपनी इसाई सखी को वो अनीश्वरवादी न माने और इस बात से घबरा कर रोने पीटने न लगे कि सखी को तो नरक में ही जगह मिलेगी?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं तर्क कर के लोगों को ये बताने की कोशिश करूँ कि पैगम्बर के बाद खुदा ने इस धरती पर किसी को भी अपने प्रतिनिधि के तौर पर किसी तरह का फ़रमान जारी करने का अधिकार नहीं बख्शा है...न ही किसी को अपराधों से मुक्ति दिलाने की कोई शक्ति सौंपी है?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं ये बात लोगों को बताऊँ कि खुदा मानवीय मूल्यों की हत्या करने वालों को माफ़ी नहीं बख्शता...उसकी निगाह में बिना किसी कारण के किसी इंसान का क़त्ल करने के मायने सम्पूर्ण मानव जाति का संहार होता है...और जहाँ तक मुसलमानों का सवाल है एक मुसलमान दूसरे किसी मुसलमान को डराए धमकाए इसका हक़ उसको बिलकुल नहीं है?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे कि मैं अपने बच्चों को सिखाऊं कि धरती के तमाम धार्मिक विद्वान् मिल कर भी उतने महान, न्यायपूर्ण और दयालु नहीं हो सकते जितना कि अकेले खुदा है?और ये भी कि सभी मामलों में उसका पैमाना धर्म का धंधा करने वाले तमाम लोगों से अलग है...और उसकी जिम्मेदारी में पलने वाले सभी इंसानों के ऊपर उसकी कृपा दृष्टि है..इतना ही नहीं वो खूब क्षमाशील भी है?
क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे????
अनुवाद, चयन एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र पाण्डेय
धार्मिक सीमाओं के अंतर्गत ही उसका अतिक्रमण...
जवाब देंहटाएंआभार...एक बेहतर कविता के लिए....
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपने बेहतरीन कविता से अवगत कराया। सामाजिक यथार्थ के धरातल से उपजी इस अच्छी कविता को पोस्ट करने के लिए आपको बधाई। उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में भी आप ऐसी ही कविताओं से परिचय कारते रहेंगे।
जवाब देंहटाएंप्रेम कविताओं के बाद कब्बानी की सामाजिक संदर्भों से जुड़ी एक शानदार कविता। खूबसूरत अनुवाद, नदी की तरह बहती भाषा .....। आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया !
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