(अनुवाद एवं प्रस्तुति यादवेन्द्र पाण्डेय)
माफ़ीनामा
माफ़ी चाहती हूँ
कि ज्यादा लिखना मुमकिन नहीं
स्याही ख़तम हो गयी है...
पिछली रात मैंने खुरच दिया था
आसमान पर ही तुम्हारा नाम।
बाथरूम का दिवास्वप्न
अच्छा हो यदि हम न रखें
जीवन का हिसाब किताब
लिख लिख कर डायरी के पन्नों में
कई बार ऐसा हो जाता है
कि हम उसको पढने लगते हैं उसी कोमलता से
जो पगी हुई थी उसमें उस पुरानी तारीख में..
ऐसे में हो सकता है मन खट्टा
और संभव है उस पर लग जाये
भुलाए न भूलने वाली ठेस.
इस से तो यही अच्छा
जीवन के पन्ने पलटने हों तो
हम घुस जाएँ दबे पाँव बाथरूम के अन्दर
फिर कोई शर्मिंदगी नहीं होगी
कर लो चाहे जो जो याद
मुस्कुराओ या रो ही क्यों न पड़ो
बाद में फ्लश चला कर बहा दो सब कुछ
इसके बाद नए सिरे से खुद को तैयार करो
पहले से बेहतर और स्वादिष्ट
नए खाने के लिए।
गुड मार्निंग ,प्रभु
खिड़की खोलती हूँ
तो ईश्वर करता है मेरा स्वागत:
बेटी , बोलो आज तुम्हे क्या चाहिए?
बोल पड़ती हूँ--
आजाद कर डालो प्रभु
सृष्टि के तमाम दबे कुचलों को..
गुलाबों की खुशबू के बीच
मुस्कुराता है ईश्वर
मेरे तोते को खूब भाती है ये सुगंध
मैं खोल देती हूँ उसका पिंजरा
डाल कर अन्दर अपना हाथ
प्यार से सहलाने लगती हूँ उसको
संदेह के साथ मुझे पहले तो वह घूरता है
पर मैं सिर हिला कर दिलाती हूँ
उसको भरोसा
फिर वह आश्वस्त हो कर
भर देता है उड़ान नीले अम्बर में..
गुड मार्निंग, प्रभु...
आपका बहुत बहुत शुक्रिया.
तुम्हे प्रेम करने के कारण
तुम्हारी आँखें निहारती हैं मेरी आँखें
तुम्हारी उँगलियाँ छूती हैं मेरी उँगलियाँ
तुम मुस्कुराते हो, वारी वारी जाती हूँ मैं...
प्रेम की बस मामूली सी शुरुआत
क्योंकि तुम्हारा प्रेम
उस सुबह के सिवा कुछ और नहीं
जो हमेशा जगाता है मुझे.
तुम खोल दिया करते हो मेरे दिल का खजाना
ढाल देते हो मदिरा मेरी प्याली में
थोड़ी सी -- तली से 2 सेंटीमीटर ऊपर तक
और फिर कहते हो:
नहीं चाहता कि तुम निढाल हो जाओ
नशेड़ियों की तरह..
क्यों कि तुम्हारा प्रेम
उस उजाले के सिवा कुछ और नहीं
जो गुंथा रहता है रात के साथ साथ.
शब्दों की मायावी माला नहीं बनाती मैं
पर तुम्हारे आलिंगनों के बीच डूब जाते हैं मेरे शब्द
मेरे आस पास यहाँ वहां बिखर जाते हैं
तुम्हारे शब्द
तुम्हारी धडकनें गुनगुनाने लगती हैं मेरे सीने के अन्दर
पक के फूट पड़ती हैं
पर दिखती नहीं एक भी खरोंच तक
लहराती हैं
पर बनती नहीं हिलोरें
हौले हौले फिसलती हैं कोमलता से
मुंड जाती हैं मेरी ऑंखें
और तुम्हारी ऑंखें भी
ऐसी खूबसूरती के साथ
कि कहीं होती नहीं कोई आहट भी....
क्यों कि तुम्हारा प्रेम
उस तसल्ली के सिवा कुछ और नहीं
जो आ जाती है प्यासे को पानी पी लेने के बाद.
तुम मेरे दुःख को बनने नहीं देते चीख
तुम मेरी हंसी को बनने नहीं देते लापरवाही
तुम लगाते नहीं कभी बंदिश मेरी टांगों पर
कि मेरा चलना भागना हो जाये दुश्वार
तुम कभी जंजीरों में बांधते नहीं मेरे हाथ
कि उम्मीदों को सचाई में बदलने की कोशिश में
धरती ही न आ पाए मेरी पकड़ में....
क्यों कि तुम्हारा प्रेम है
एक गर्म मुलायम कम्बल की मानिंद
जो देता है मुझे अपार दिलासा और सुकून.
तुम आने जाने देते हो मुझे
अपनी कविताओं के अन्दर बाहर
और जैसे मैं चाहूँ चुनने देते हो मुझे मेरे गीत
अपनी राम कहानी कहने के लिए
क्यों कि तुम्हारा प्रेम
खुली हवा सरीखा है
जो दिखाता चलता है मुझे रास्ते
तुम्हारे आजाद पंछी की तरह मुझे मुक्त छोड़ देने के बाद....
यही कारण है
कि मैं तुमसे करती हूँ इतना टूट कर प्रेम...
और सचमुच करती हूँ...
पिछली रात मैंने खुरच दिया था
जवाब देंहटाएंआसमान पर ही तुम्हारा नाम।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। लाजवाब चयन। एक से बढकर एक।
अच्छा लगा राइके को पढ़ना।
जवाब देंहटाएंराईके दिया पितालोका की कवितायें संवेदना पूर्ण और सहज अभिव्यक्ति की हैं अच्छी लगीं बधाई.
जवाब देंहटाएंएक नयी कवियत्री से परिचय कराने का आभार्…हालांकि कविताओं ने बहुत प्रभावित नहीं किया
जवाब देंहटाएंपक्षियों के उडने का ढब।
जवाब देंहटाएंमतलब मुजफ्फरनगरियत हावी है।
बेहतरीन कविताएँ हैं, जीवन की उलझनों का बड़ा ही सुन्दर चित्रण हुआ है। भाव-प्रवणता और जीवन की प्रासांगिकता को बखूबी दिखाया गाया है। अच्छी कविता के लिए आपकों बधाई।
जवाब देंहटाएंमाफ़ी चाहती हूँ
जवाब देंहटाएंकि ज्यादा लिखना मुमकिन नहीं
स्याही ख़तम हो गयी है...
पिछली रात मैंने खुरच दिया था
आसमान पर ही तुम्हारा नाम।
बहुत खूब ......!!
सारी की सारी नज्में दिल को छूती हुई .....
यादवेन्द्र जी का अनुवाद मूल और अनुवाद में फर्क नहीं होने देता .....
शुक्रिया परमिंदर जी ....
यादवेन्द्र जी का भी शुक्रिया ये नज्में हम तक पहुँचाने के लिए .....!!
बेहतर...
जवाब देंहटाएंtumhen prem krne ke karan ,kavita aacchi lgi.
जवाब देंहटाएं