‘लेखिकाओं में यह साबित करने की होड़ लगी है कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है..यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है।’’
-श्री विभूतिनारायण राय
‘‘मुझे लगता है इधर एक बहु चर्चित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक हो सकता था- ‘‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’।’ - श्री विभूतिनारायण राय (एक महिला की आत्मकथा पर टिप्पणी करते हुए)
ऐसे शब्द स्त्री जाति के लिए सबसे वीभत्स गाली है। समस्त महिला लेखन का सामान्यीकरण करते हुए साक्षात्कारदाता ने जो फतवा जारी किया है यह बेहद शर्मनाक और विरोध किए जाने योग्य है। सबसे पहले तो यह पूछा जाना जरूरी है कि साक्षात्कारदाता जिस विषय पर साक्षात्कार दे रहे थे क्या वे उस विषय के विशेषज्ञ हैं। पिछले बहुत दिनों से इस पत्रिका ने साक्षात्कार जैसी साहित्यिक विधा को दरकिनार कर रखा था। अचानक संपादक महोदय को क्या सूझा कि इस विषय पर किसी समाजशास्त्री से बातचीत न कराके एक ऐसे लेखक को चुना जो पुलिस अधिकारी भी है। यह भाषा किसी सतर्क लेखक की नहीं बल्कि थर्ड डिग्री देने वाले किसी उदंड़ पुलिस अधिकारी की ही हो सकती है। आज बाज़ारवादी संस्कृति में नया ज्ञानोदय जैसी पत्रिका सस्ती लोकप्रियता बटोरने में लगी हुई हैं प्रतिष्ठित संस्थान /न्यास इस पत्रिका का साहित्य जगत में आदर के साथ नाम लिया जाता है लेकिन यह संस्थान अपने निदेशक-संपादक के (कु) कृत्यों से अपनी 67 वर्षों की उस ज्ञान गरिमा को बचा पाएगा यह सोचना दुख देता है।
- प्रकाश विद्रोही, झारखंड
विभूति नारायण राय जी एक ऐसे जिम्मेदार व्यक्ति हैं , मैं उन्हें थोडा जानती हूँ लेकिन इतना जानती हूँ कि वो एक सहृदय मदद करने वाले व्यक्ति हैं । मैं और मेरे पति ट्रेन से लखनऊ से काठगोदाम आ रहे थे , हमारी और उनकी बर्थ साथ साथ थीं , मेरे पति की अस्वस्थता की वजह से उन्हें मैंने निचली बर्थ दी थी , मुझे ऊपर वाली बर्थ पर सोना था , रायसाहब ने खुद से ही मुझे कहा कि आप निचली बर्थ ले लें । हमने उन्हें धन्यवाद दिया , और क्योंकि हमने ये देख लिया था कि उनके साथ एक भीड़ ट्रेन में चढ़ी थी , मैंने अरोरा साहेब से ये कहा कि कल जो रामगढ़ में गोष्ठी है शायद ये सब लोग वहां भाग लेने जा रहे हैं ,मुझे भी न्योता था । उन्होंने राय साहेब से बात की तो पता चला कि गोष्ठी उनके निर्देशन में ही हो रही है , उनका परिचय भी मिला । उनके आचार व्यवहार में कहीं भी कुछ भी दोषपूर्ण नहीं था । क्योंकि मैं भी अवसर वादी नहीं हूँ , मुझे किसी से कुछ भी लेना देना नहीं है , मेरी राय में पिक्चर का ट्रेलर बहुत कुछ कह देता है । राय साहेब जिस मुकाम पर खड़े हैं , निश्चय ही उनके बहुत सारे आलोचक भी होंगे , कौन जानता है उन्होंने किस सन्दर्भ में क्या कहा और उसे किस तरह तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया । इसलिए मैं तो आसानी से इस कथन पर विश्वास नहीं कर पा रही ।
जवाब देंहटाएंजो कुछ है वह लिखित में है, ज्ञानोदय में छपा है…राय साहब ने इसका कोई खण्डन भी नहीं किया है…इसका जितना विरोध हो कम है
जवाब देंहटाएंsamajh nahi pa raha, ye baaten kis sandarbh me kahi gayee........jo bhi ho, thora bura sa to lag raha hai.....!!
जवाब देंहटाएंsamant achhe hote hain aur aisa bol hi dete hain
जवाब देंहटाएंविभूतिनारायण राय जी से मेरा भी परिचय रहा है। इस नाते कि वे चकमक के बहुत प्रशंसक रहे हैं।
जवाब देंहटाएंबहरहाल अगर उन्होंने ऐसी कोई टिप्पणी की है तो यह बहुत खेदजनक बात है। सबको इसकी भर्त्सना करनी ही चाहिए। मैं भी करता हूं। पर मैं एक बात जानना चाहता हूं। संयोग से हाल ही की एक यात्रा के दौरान मैंने नया ज्ञानोदय का सुपर महाबेवफाई अंक का भाग एक,जुलाई,2010 खरीदा है। उसमें तो मुझे कहीं किसी का भी साक्षात्कार दिखाई नहीं दिया। इसी अंक में अगस्त की सामग्री की घोषणा भी है। पर उसमें भी राय साहब का नाम कहीं नहीं है। संभव है अब तक अंक बाजार में आ गया हो और उसमें कहीं अंदर किसी साक्षात्कार में नाम हो। अगर किसी के पास यह जानकारी है कि ज्ञानोदय के किस अंक में यह साक्षात्कार है तो कृपया वह भी सबसे बांटने का कष्ट करें,ताकि उसे देखकर बात को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सके। जहां तक मैं समझ पाया हूं जनसत्ता में भी किसी और के हवाले से ही यह बात कही गई है।
Aadmi ki kahi hui halki baaten log pacha lete hain, lekin aurat jab apni bhavnayen khul kar kah ya likh deti hai to use samaj 'Chinal' jaise visheshanon se saja deta hai.Angreji ki prasiddh ukti - hum me se jyadatar MCP hain.....khair jisne bhi yeh sab kaha, nindneeya hi hai.
जवाब देंहटाएंकिसी और ब्लाग पर मुझे यह जानकारी मिल गई है कि यह साक्षात्कार नया ज्ञानोदय के अगस्त,2010 अंक में प्रकाशित हुआ है। विभूतिजी ने जो कहा है वह उनकी निजी राय ही होगी। पर वह एक साहित्यकार की जबान पर तो शोभा नहीं देती। उसे इस तरह महामंडित करके छापने के लिए रवीन्द्र कालिया भी इसी तरह की निंदा के अधिकारी हैं। एक संपादक के नाते उन्हें इस साक्षात्कार को प्रकाशित नहीं करना चाहिए था। सब सुधीजनों को यह मांग भी करनी चाहिए कि भारतीय ज्ञानपीठ के कर्त्ता धर्त्ता भी क्यों कान में तेल डालकर बैठे हैं। अगर उनकी ज्ञानपीठ पर ऐसे ही संपादक सवार रहे तो उसकी मिट्ठी पलीद होने में भी ज्यादा समय नहीं लगेगा।
जवाब देंहटाएंहाथ कंगन को आरसी क्या,जब सब कुछ भारतीय ज्ञानपीठ की चिर-परिचत एवं प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ के अगस्त 2010 के सुपर बेवफाई विशेषंक में प्रकाशित है। तो फिर कुछ गुजाईश ही कहाँ बचती है। श्रीमतीशारदा अरोरा जी से मैं इतना ही कहूँगा कि हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के कुछ और होते हैं। पत्रिका को भी तो ऐसे साक्षात्कार को छापने से पहले कुछ सोचना चाहिए था न्यास एवं अपनी की प्रतिष्ठिा को बचाने के संबंध में। ऐसी पुलिसवादी टिप्पणी स्त्री सशक्तिकरण के समय में करना अपराध के अलावा कुछ नहीं हैं। इसकी जितनी निंदा की जाए उतनी ही कम है। यह कुछ लेखिकाओं का ही अपमान नहीं बल्कि समस्त महिला लेखन पर एक तरह का घोर निंदनीय प्रश्न चिह्न है।
जवाब देंहटाएंबेशक़ विभूति नारायण अपराधी हैं
जवाब देंहटाएंवी. एन. राय जी शरमनाक है आपका ब्यान.
जवाब देंहटाएंयादवेन्द्र पाण्डेय ने कहा -
जवाब देंहटाएंनया ज्ञानोदय ने एक गौरवशाली प्रकाशन संस्थान से बेवफाई जैसे विषय पर विशेषांक निकल कर जैसे कोई बहुत बड़ा तीर मार लिया हो...संपादक की कुर्सी पर बैठ कर हिंदी समाज के सामने आने वाली सबसे बड़ी समस्या के रूप में इस विषय का चयन--यही अपने आपमें एक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अध्ययन का विषय होना चाहिए.
मैंने ये अंक देखा नहीं,पर सबसे पहले इस बारे में इतवार के इंडियन एक्सप्रेस में मुखपृष्ठ पर खबर पढ़ी.मालूम नहीं हिंदी के किन किन अख़बारों में इस बेहद शर्मनाक घटना का जिक्र है,पर जिक्र न भी हो तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए----जाने किस तरह की दया दृष्टि मिल जाये हिंदी विश्वविद्यालय की और जीवन भी तर जाये,जेब भी भर जाये.
बिना नाम लिए पूरी रचनाशील स्त्री जाति पर ऐसे कुत्सित और दंडनीय आरोप लगाने वाले सिपाही की तो भर्त्सना की ही जानी चाहिए,साथ साथ इन मंतव्यों को महिमा मंडित करने वाले प्रकाशन का भी बहिष्कार किया जाना चाहिए.जैसे हिन्दू संप्रदायवादियों ने मुस्लिम लेखकों,कवियों और कलाकारों को हाशिये पर रखने की कोशिश की,उसी तरह अद्भुत अनुभूतियों और संवेदनाओं को शब्दों के जामे पहनाने वाली हिंदी की रचनाशील स्त्री प्रतिनिधियों की भारी भरकम धमक से घबराये हुए आतंकितों के समुदाय के प्रवक्ता बन गए हैं सिपाही जी.हिम्मत हो तो नाम ले कर क्यों नहीं कहते,और साथ ही उनको ये भी दर्शाना होगा कि पुरुष लेखकों की तुलना में बिस्तरों का जिक्र स्त्रियों ने ज्यादा किया है.हिंदी विश्विद्यालय को इस पर एक विस्तृत शोध भी प्रकाशित करना चाहिए.
इस विषय को उठाने के लिए धन्यवाद मित्र,
यादवेन्द्र, रूडकी