कवि का बहता हुआ गद्य, गद्य की समस्त संभावनाओं के साथ एक ऐसी संगीतात्मकता में अभिव्यक्त होता है जो गद्य की सख्त ज़मीन को उन नयी आहटों के लिए तैयार करता है जो उस गद्य में जगह पाकर नए देशकालों को, जो अब तक कहीं गहरे अँधेरे में थे, जन्म देकर कई तरह से आलोकित करता है। साथ ही, कवि का गद्य रचना के मर्म से छिटकी, जड़ विचारों से आक्रांत आलोचना की बाड़ को तोड़ते हुए उसे लगातार और अधिक रचनात्मक होने की अति संवेदनशील महत्वाकांक्षा से भरता है। 'काव्य-प्रसंग' पर कुछ ऐसे ही जादुई गद्य के नमूने प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। सबसे पहले कवि मलयज का गद्य :
शब्द में रहकर अब कुछ सिद्ध न होगा, संभावना शब्द के बाहर ही है.
शब्द के बाहर तुम्हारा सामना पत्थर, गोली और झंडे से होगा. वे तुम्हें दबोच लेंगे, पर उससे डरो नहीं. अब तुम निहत्थे हो, जैसे कि लाखों-करोड़ों लोग हैं. केवल शब्द के साथ होने से तुम इन लाखों-करोड़ों लोगों से अलग थे और उन जड़ों से चिपके थे जो क्रमशः सूखती जा रही थी। तुमने इन जड़ों का जाल कला के आलीशान भग्न शिखरों तक फैले हुए देखा था, तुम्हें याद है न ? जब भी जड़ों की तरफ लौटने का आह्वान तुमसे किया गया (आह्वान करने वाले वे लोग कौन थे ?) तुम सिर्फ शब्द की तरफ लौटे थे, उस शब्द की तरफ जो धरती पर पड़ा-पड़ा सूख रहा था।
तुम शब्द के बहार आ गए हो, पर भूलो मत, शब्द की नैतिकता से तुम स्वतंत्र नहीं हो। तुम्हें पत्थर, गोली और झंडा, तीनों को झेलना है, इनके आपसी रिश्ते के कथ्य को भोगना है, इनके अलग-अलग अस्तित्व के रंगों की पहचान रखनी है, पर लौटना है तुम्हें शब्द की और ही। शब्द की तरफ पुनः लौटने के लिए तुम्हें शब्द के बाहर आना ही होगा। शब्द में लौटने की सम्भावना शब्द के बाहर है.
याद रखो, शब्द के बाहर सिर्फ पत्थर, गोली और झंडा ही नहीं है। परिभाषाहीन बहुत कुछ तुम्हारे आसपास घाट रहा है, तुम इस घटने में शरीक भी हो, चुप और धैर्ययुक्त। उसे देखो : उस घटने में रत आपने शारीर और मन को, वह जो घाट रहा है, तुम उसे छू सकते हो, वह कितना वास्तव है और जीवंत और शब्द का मोहताज नहीं। न वह प्रतीक है, न बिम्ब। उसे तुम उठाओ और शब्द और शब्द के बीच सामान दूरी पर इस तरह रख दो कि शब्द सिर्फ उसका ताप महसूस करे, स्पर्श नहीं।
गर्मी की एक शाम ... हवा बंद, खालीपन में चिड़ियाएँ तक नहीं। मेरे समय का खण्डित यथार्थ एक बिन्दु पर आकर असह्य हो चला था। एक ही रास्ता था कि मैं स्मृति के चोर दरवाजे से होकर कला के उस पुष्ट और क्लासिक सौन्दर्यलोक में पहुँच जाऊँ जहाँ कोई हड़बड़ी नहीं है, जहाँ सब कुछ निथरा हुआ है, द्वंद्वरहित शान्ति स्फटिक और समयसिद्ध। वहाँ अनुभूतियों का चिर वसन्त है और इतना प्रामाणिक है कि पेड से पत्ते टूटते हैं तो मन में बजते हैं, रंगों के बुलबुले फूटते हैं और कोमल मुहावरों की तरह संवेदना पर सज जाते हैं। वहाँ मिट्टी पर लीक छोड ता कोई अर्थ आकाश तक उठ गया है, कोई संस्कृति अपनी पार्थिव उपस्थिति को अपनी अमरता के स्पर्श से अनुपस्थित करती चली गयी है। वहाँ आदमी एक मूल्य है, एक सौन्दर्य मूल्य। वह आदमी तुम्हारे साथ चलता-फिरता हुआ होकर भी तुम्हारा नहीं है, वह तुम्हारी पकड से बाहर है, वह एक अमूर्त्तन है, वह मानव-राग है जो तुम्हारी तंत्री को धुनता है और उसमें से फूटता है, तुम्हें विह्वल करता है, पर उलटकर तुम उस चेहरे को देखना चाहो तो तुम पर झुकता चला आ रहा है तो कहीं कुछ नहीं। कहीं कुछ नहीं। न टूटती हुई नसें, न उधड ते हुए रेशे, न पछाड खाती बाँहें, न डगमगाते पाँव, न घूरता हुआ संशय। एक रेखा है जो घूम-फिरकर केवल एक वृत्त में समाप्त हो जाती है, न कहीं से कटती है, न कहीं से खण्डित होती है, न कहीं से जुड ती है। उस वृत्त के भीतर सब कुछ समाहित है : सुख और दुख, अच्छा और बुरा, गति और अगति, पाप और पुण्य, स्वर्ग और नरक सब, सब एक तर्क, एक नियम, एक व्यवस्था के अन्तर्गत है, प्रश्न भी और उत्तर भी, आस्था भी और अनास्था भी, द्वंद्व भी, अद्वंद्व भी सब, सब उस वृत्त के भीतर है और महान् वृत्त क्या है ? कहीं हमारी भारतीय संस्कृति तो नहीं ?
जैसे-जैसे गरमी की वह शाम गहराने लगी मैं महसूस करने लगा कि मेरी स्मृति का सौन्दर्यलोक विषाद के नीले रंग में रँगता जा रहा है। जितना ही वह अनुभूतियों के पास आता-जाता है, उतना ही वह दृष्टि से दूर होता जाता है। संवेदना का मालूम नहीं, वह कौन-सा बिन्दु है, कौन-सा स्तर कि जहाँ वह जितना ही यथार्थ लगता जाता है, हकीकत में वह उतना ही अयथार्थ होता जाता है। नीला रंग शायद अयथार्थ का रंग है - यथार्थ की अतिक्रान्ति का : जैसे चोट का निशान पीड़ा की असह्यता और समय के साथ मिल-जुलकर नीला पड जाए, सुन्न, अवास्तविक, महज एक स्थिति। समृति के क्लासिक सौन्दर्य ने मुझे इस स्थिति तक लाकर छोड दिया है, एक तलछट की तरह। और यह भी उतना ही असह्य है, यह अयथार्थ, जितना कि वह यथार्थ कभी था।
यथार्थ और अयथार्थ दोनों की असह्यता को मैं झेलता हूँ। मैं दोनों में कहीं भी नहीं हूँ। शायद मैं दोनों में ही कहीं हूँ। दोनों के बीच कहीं कुछ घटित हो गया और बीच में एक खाई पैदा हो गयी है, अनुलंघ्य खाई।
मैं चाहता हूँ कि शब्द इस खाई को महसूस करे, उससे आँख न फेरे, इस यथार्थ या उस अयथार्थ के मुकम्मिल हवाले न हो जाए, दोनों के बीच एक धड कती हुई सत्ता की तरह मौजूद रहे, एक काँपते हुए पुल की तरह झूलता रहे ...
रात। यह पलायन नहीं है, न शब्द की आरामगाह। रात वह जमीन है जहाँ तुम्हें आग जलानी है, जिसमें तुम्हारे शब्द तपेंगे। शब्द के बाहर आकर तुम तपोगे, क्योंकि आग है। रात आग के लिए है। इस आग को उठाओ और शब्द और शब्द के बीच समान दूरी पर इस तरह रख दो कि शब्द सिर्फ उसका ताप महसूस करे, उसका स्पर्श नहीं - ओ स्पर्श ! / मुझे क्षमा करना / कि तुम मुझी में होकर मुझी से परे हो। /ओ माध्यम ! / क्षमा करना/ कि मैं तुम्हारे पार जाना चाहता रहा हूँ। (शमशेर)
(राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित मलयज की पुस्तक 'हँसते हुए मेरा अकेलापन' से साभार)
शब्द के बाहर तुम्हारा सामना पत्थर, गोली और झंडे से होगा. वे तुम्हें दबोच लेंगे, पर उससे डरो नहीं. अब तुम निहत्थे हो, जैसे कि लाखों-करोड़ों लोग हैं. केवल शब्द के साथ होने से तुम इन लाखों-करोड़ों लोगों से अलग थे और उन जड़ों से चिपके थे जो क्रमशः सूखती जा रही थी। तुमने इन जड़ों का जाल कला के आलीशान भग्न शिखरों तक फैले हुए देखा था, तुम्हें याद है न ? जब भी जड़ों की तरफ लौटने का आह्वान तुमसे किया गया (आह्वान करने वाले वे लोग कौन थे ?) तुम सिर्फ शब्द की तरफ लौटे थे, उस शब्द की तरफ जो धरती पर पड़ा-पड़ा सूख रहा था।
तुम शब्द के बहार आ गए हो, पर भूलो मत, शब्द की नैतिकता से तुम स्वतंत्र नहीं हो। तुम्हें पत्थर, गोली और झंडा, तीनों को झेलना है, इनके आपसी रिश्ते के कथ्य को भोगना है, इनके अलग-अलग अस्तित्व के रंगों की पहचान रखनी है, पर लौटना है तुम्हें शब्द की और ही। शब्द की तरफ पुनः लौटने के लिए तुम्हें शब्द के बाहर आना ही होगा। शब्द में लौटने की सम्भावना शब्द के बाहर है.
याद रखो, शब्द के बाहर सिर्फ पत्थर, गोली और झंडा ही नहीं है। परिभाषाहीन बहुत कुछ तुम्हारे आसपास घाट रहा है, तुम इस घटने में शरीक भी हो, चुप और धैर्ययुक्त। उसे देखो : उस घटने में रत आपने शारीर और मन को, वह जो घाट रहा है, तुम उसे छू सकते हो, वह कितना वास्तव है और जीवंत और शब्द का मोहताज नहीं। न वह प्रतीक है, न बिम्ब। उसे तुम उठाओ और शब्द और शब्द के बीच सामान दूरी पर इस तरह रख दो कि शब्द सिर्फ उसका ताप महसूस करे, स्पर्श नहीं।
गर्मी की एक शाम ... हवा बंद, खालीपन में चिड़ियाएँ तक नहीं। मेरे समय का खण्डित यथार्थ एक बिन्दु पर आकर असह्य हो चला था। एक ही रास्ता था कि मैं स्मृति के चोर दरवाजे से होकर कला के उस पुष्ट और क्लासिक सौन्दर्यलोक में पहुँच जाऊँ जहाँ कोई हड़बड़ी नहीं है, जहाँ सब कुछ निथरा हुआ है, द्वंद्वरहित शान्ति स्फटिक और समयसिद्ध। वहाँ अनुभूतियों का चिर वसन्त है और इतना प्रामाणिक है कि पेड से पत्ते टूटते हैं तो मन में बजते हैं, रंगों के बुलबुले फूटते हैं और कोमल मुहावरों की तरह संवेदना पर सज जाते हैं। वहाँ मिट्टी पर लीक छोड ता कोई अर्थ आकाश तक उठ गया है, कोई संस्कृति अपनी पार्थिव उपस्थिति को अपनी अमरता के स्पर्श से अनुपस्थित करती चली गयी है। वहाँ आदमी एक मूल्य है, एक सौन्दर्य मूल्य। वह आदमी तुम्हारे साथ चलता-फिरता हुआ होकर भी तुम्हारा नहीं है, वह तुम्हारी पकड से बाहर है, वह एक अमूर्त्तन है, वह मानव-राग है जो तुम्हारी तंत्री को धुनता है और उसमें से फूटता है, तुम्हें विह्वल करता है, पर उलटकर तुम उस चेहरे को देखना चाहो तो तुम पर झुकता चला आ रहा है तो कहीं कुछ नहीं। कहीं कुछ नहीं। न टूटती हुई नसें, न उधड ते हुए रेशे, न पछाड खाती बाँहें, न डगमगाते पाँव, न घूरता हुआ संशय। एक रेखा है जो घूम-फिरकर केवल एक वृत्त में समाप्त हो जाती है, न कहीं से कटती है, न कहीं से खण्डित होती है, न कहीं से जुड ती है। उस वृत्त के भीतर सब कुछ समाहित है : सुख और दुख, अच्छा और बुरा, गति और अगति, पाप और पुण्य, स्वर्ग और नरक सब, सब एक तर्क, एक नियम, एक व्यवस्था के अन्तर्गत है, प्रश्न भी और उत्तर भी, आस्था भी और अनास्था भी, द्वंद्व भी, अद्वंद्व भी सब, सब उस वृत्त के भीतर है और महान् वृत्त क्या है ? कहीं हमारी भारतीय संस्कृति तो नहीं ?
जैसे-जैसे गरमी की वह शाम गहराने लगी मैं महसूस करने लगा कि मेरी स्मृति का सौन्दर्यलोक विषाद के नीले रंग में रँगता जा रहा है। जितना ही वह अनुभूतियों के पास आता-जाता है, उतना ही वह दृष्टि से दूर होता जाता है। संवेदना का मालूम नहीं, वह कौन-सा बिन्दु है, कौन-सा स्तर कि जहाँ वह जितना ही यथार्थ लगता जाता है, हकीकत में वह उतना ही अयथार्थ होता जाता है। नीला रंग शायद अयथार्थ का रंग है - यथार्थ की अतिक्रान्ति का : जैसे चोट का निशान पीड़ा की असह्यता और समय के साथ मिल-जुलकर नीला पड जाए, सुन्न, अवास्तविक, महज एक स्थिति। समृति के क्लासिक सौन्दर्य ने मुझे इस स्थिति तक लाकर छोड दिया है, एक तलछट की तरह। और यह भी उतना ही असह्य है, यह अयथार्थ, जितना कि वह यथार्थ कभी था।
यथार्थ और अयथार्थ दोनों की असह्यता को मैं झेलता हूँ। मैं दोनों में कहीं भी नहीं हूँ। शायद मैं दोनों में ही कहीं हूँ। दोनों के बीच कहीं कुछ घटित हो गया और बीच में एक खाई पैदा हो गयी है, अनुलंघ्य खाई।
मैं चाहता हूँ कि शब्द इस खाई को महसूस करे, उससे आँख न फेरे, इस यथार्थ या उस अयथार्थ के मुकम्मिल हवाले न हो जाए, दोनों के बीच एक धड कती हुई सत्ता की तरह मौजूद रहे, एक काँपते हुए पुल की तरह झूलता रहे ...
रात। यह पलायन नहीं है, न शब्द की आरामगाह। रात वह जमीन है जहाँ तुम्हें आग जलानी है, जिसमें तुम्हारे शब्द तपेंगे। शब्द के बाहर आकर तुम तपोगे, क्योंकि आग है। रात आग के लिए है। इस आग को उठाओ और शब्द और शब्द के बीच समान दूरी पर इस तरह रख दो कि शब्द सिर्फ उसका ताप महसूस करे, उसका स्पर्श नहीं - ओ स्पर्श ! / मुझे क्षमा करना / कि तुम मुझी में होकर मुझी से परे हो। /ओ माध्यम ! / क्षमा करना/ कि मैं तुम्हारे पार जाना चाहता रहा हूँ। (शमशेर)
(राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित मलयज की पुस्तक 'हँसते हुए मेरा अकेलापन' से साभार)
बहुत आभार पढ़वाने का.
जवाब देंहटाएंPramendra ji ,aapko hardik badhaiya,is nek kaam ki.Wakai aapka aabhar manana hi hoga .sneh banayerakhiye aur sahitya ki sewa karte rahiye/thanks and best wishes,
जवाब देंहटाएंyours,
dr.bhoopendra
jeevansandarbh.blogspot.com
जादुई गद्य !!!!
जवाब देंहटाएंmalyaj yaad ho aaye. bahut sateek ansh ka chayan
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