निजार कब्बानी आधुनिक अरब संवेदना में प्रेम के प्रतिनिधि कवि माने जातेहैं।१९२३ में सीरिया की राजधानी दमिश्क में एक खाते पीते प्रबुद्ध परिवार में उनका जन्म हुआ-उनके पिता की चाकलेट की फैक्ट्री थी।तत्कालीन प्रतिरोधी आन्दोलनकारियों की मदद करते रहने के कारण कई बार उनको जेल की हवा भी खानी पड़ी।जब निजार १५ वर्ष के हुए तो उनकी बहन की शादी जबरदस्ती बड़ी उम्र के किसी व्यक्ति के साथ की जाने लगी तो उन्होंने विरोध स्वरुप आत्महत्या का वरण कर लिया-इस घटना ने निजार का सम्पूर्ण कवि कर्म निर्धारित कर दिया और जीवन पर्यन्त वे स्त्रियों के मन की आवाज को शब्ददेने कोशिश करते रहे।एक बार उन्होंने कहा भी:अरबी समाज में प्रेम एक कैदी जैसा है और मैं इसको आजाद कर देना चाहता हूँ।मैं अपनी कविता के माध्यम से अरबी आत्मा,संवेदना और शरीर को मुक्ति की राह पर ले जाना चाहता हूँ।
१९ साल की कच्ची उम्र में उनका पहला कविता संकलन प्रकाशित हुआ और अपनी उन्मुक्त रूमानियत के कारण पारंपरिक सीरियाई समाज में खूब विवादास्पद भी रहा ,पर इसके बाद निजार ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपनी जीविका के तौर पर वे सीरियाई राजनयिक के रूप में काहिरा, इस्ताम्बुल, बेरुत, मेड्रिड,लन्दन और बीजिंग में रहे। बेरुत में रहते हुए लेबनानी गृह युद्ध में उनकी पत्नी की एक बम धमाके में हत्या हो गयी-इस से वे इतने आहट हुए कि यूरोप में जा कर बस गए।अपने ५० साल के लेखकीय जीवन में उन्होंने करीब ४० किताबें प्रकाशित कीं।१९९८ में ७५ साल की पक्की उम्र में उनका इंतकाल हुआ। यहाँ प्रस्तुत हैं निजार कब्बानी की कुछ कवितायेँ-चयन और प्रस्तुति यादवेन्द्र पाण्डेय की है :
जब मैं करता हूँ प्रेम
जब मैं करता हूँ प्रेम
लगने लगता है मैं ही हूँ काल का नियंता
अपने ऊपर सारी दुनिया धारण किए हुए
पृथ्वी मेरी मुट्ठी में है
और मैं बढ़ता-बढ़ता सूरज तक चला जाता हूँ
अपने घोड़े का सवार बनकर।
जब मैं करता हूँ प्रेम
मैं बन जाता हूँ
आँखांे की पकड़ में न आने वाला
प्रवाहमान तरल प्रकाश
और मेरी डायरी में लिखी तमाम कविताएँ
भेस बदलकर बन जाती हैं
नशे से उन्मत्त कर देने वाली फूलों की क्यारियाँ।
जब मैं करता हूँ प्रेम
हिलकोरें मारकर निकल पड़ती है जलधारा
मेरी उँगलियों के पोर से
मेरी जिह्वा पर झूमने लगती हैं बाँकी झाड़ियाँ
जब मैं करता हूँ प्रेम
तो बन जाता हूँ
काल से परे का काल
जब मैं करता हूँ प्रेम
किसी स्त्री से
तो दुनिया-भर के वृक्ष
सरपट दौड़कर बढ़ने लगते हैं मेरी ओर
सुधबुध खोए, नंगे पाँव ही।
रोशनी लालटेन से ज्यादा मूल्यवान है
रोशनी लालटेन से ज्यादा मूल्यवान है
जैसे कि कविता डायरी से ज्यादा
और चुम्बन होठों से ज्यादा मूल्यवान हैं।
जब मैं तुम्हें लिखता हूँ चिट्ठियाँ
वे सब हम दोनों से ज्यादा मूल्यवान होती हैं
सिर्फ यही ऐसे दस्तावेजी सबूत हैं
जिनसे लोग जान पाएँगे
कितना अप्रतिम था तुम्हारा लावण्य/सौंदर्य
और कैसी थी इसके लिए
मेरी दीवानगी।
तुम्हारे लिए नये शब्द
मैं गढ़ना चाहता हूँ तुम्हारे लिए अनेकानेक शब्द
केवल तुम्हारे लिए ईजाद करना चाहता हूँ एक नयी भाषा
जिसका नाप बिल्कुल सही आए
तुम्हारे बदन के लिए
और साथ में मेरे प्यार के लिए भी।
शब्दकोश दूर रखकर करना चाहता हूँ यात्राएँ
और परे छोड़ जाना चाहता हूँ अपने होंठ
मैं थक चुका हूँ अपने मुँह से
अब चाहता हूँ अपने लिए दूसरा मुँह
जो तब्दील हो जाए
किसी चेरी वृक्ष में
या फिर माचिस की डिब्बी में -
ऐसा मुँह जिसमें प्रवाहित हों शब्द
जैसे सागर से अवतरित होती है जलपरी
या जादूगर के हैट से यहाँ-वहाँ
छिटककर फैल जाते हैं
सफेद चूजे ही चूजे।
छीन लो मुझसे
बचपन में पढ़ी सारी किताबें
स्कूलों की कापियाँ
बोर्ड पर लिखने वाली खड़िया
और ब्लैकबोर्ड भी ले लो मुझसे छीनकर
बस इतना रहम करो
कि सिखा दो कोई नया शब्द
जो मेरी प्रेमिका के कान में लटक जाए
छुमकते-इतराते झुमकों जैसा।
मुझे कामना है नयी उँगलियांे की
जो लिख सकें इतर ढंग से
जो ऊँची हों जहाज के उन्नत मस्तूल जैसी
जिराफ़ के गर्दन जैसी लम्बी हों
और इनसे सब कुछ इकट्ठा करके
मैं सिल पाऊँ करीने से
अपनी प्रेमिका के लिए
कविता का एक लुभावना परिधान।
मैं तुम्हें बना देना चाहता हूँ एक नायाब पुस्तकालय
जिसमें चाहता हूँ कि शामिल करूँ
बारिश की लय
चाँद की छिटकन
धूसर मेघों की उदासी
और पतझड़ के प्रवाह में
पेड़ों से बिछुड़ गयी पत्तियों का विरह -
सब कुछ एक साथ ! सब कुछ साथ-साथ।
चयन व प्रस्तुति : यादवेन्द्र, रुड़की
आभार! इतनी अच्छी रचनाओं से रूबरू कराने के लिए।
जवाब देंहटाएंकविताएं अद्भुत रूप से आकर्षित करती हुई हैं
जवाब देंहटाएंएक पंक्ति समझ नहीं आयी
तुम्हारे बदन के लिए
और साथ में मेरे पर के लिए भी.
किशोर जी, एक पंक्ति अशुद्ध छप गयी थी - ठीक कर दी गयी है। अशुद्धि इंगित करने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंपरमेन्द्र जी मैं अशुद्धि नहीं ढूढ़ रहा था, समझना ही चाहता था. आपका बहुत आभार कि इसे ठीक कर दिया है कविता को फिर से पढ़ा. आनंद में हूँ .
जवाब देंहटाएं* निज़ार क़ब्बानी मेरे प्रिय कवियों में से हैं। अच्छा लगा उनकी रचनाओं की यादवेन्द्र जी द्वारा अनुवाद व प्रस्तुति को देखना - पढ़ना।
जवाब देंहटाएं* इस संदर्भ में कविता प्रेमियों के लिए बस एक सूचना भर यह है कि निज़ार क़ब्बानी की बहुत - सी कविताओं के मेरे द्वारा किए गए अनुवाद 'कबाड़खाना', 'कर्मनाशा' , 'अनुनाद'और 'सबद' पर हैं। यदि मन करे तो तो वहाँ जाया जा सकता है। 'कबाड़ख़ाना' पर निज़ार क़ब्बानी की कुछ कछ कविताओं के अनुवाद अशोक पांडे द्वारा किए गए भी हैं।
* साथ ही एक सूचना यह भी कि 'पक्षधर' पत्रिका के ताजा अंक निज़ार क़ब्बानी की दस कविताओं के अनुवादमें भी मेरे द्वारा किए गए दस अनुवाद प्रकाशित हुए हैं।
बेहतरीन कविताएं...
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कवितायें
जवाब देंहटाएंgreat to see your blog!!
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