सोमवार, जनवरी 02, 2012

कोई भी अन्त अन्तिम नहीं


वर्ष - 2012 क्या शुरू हुआ, कुछ अजीब-अजीब सी बातें सुनने को मिलीं .. माया कैलेंडर वगैरह-वगैरह ... मुझे तो लगता है कि ‘दुनिया रोज बनती है’ और ‘रोज नष्ट होती है’। लेकिन ... जीवन बचा रहता है। इसीलिए आज अपनी एक पुरानी कविता को पोस्ट पर लगा रहा हूँ।

कोई भी अन्त अन्तिम नहीं
प्रलय के बाद भी
बचे रहेंगे कुछ लोग
असीम लहरों को
अपने हाथों से काटते हुए
कि कोई भी अन्त अन्तिम नहीं

एक सूर्य बुझने से पहले
टाँक दिया जाएगा
नया सूर्य क्षितिज पर
सिर्फ एक इतराते सूर्य पर
नहीं टिकी दुनिया

खेतों से फिर उठेगी हरी गंध
बिखेरेंगी रंग तितलियाँ
अमराइयों में गाएगी कोयल अमरत्व

फिर
फिर-फिर
गौरवपूर्ण थकान
और
चिंथी हुईं उँगलियों के बीच से
फूटेंगे कई सूर्य।

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