बहुत दिनों से अश्वघोष के ये गीत ‘काव्य-प्रसंग’ पर लगाने का मन था, लेकिन वही...जाड़े का आलस। खैर, देर से ही सही... प्रस्तुत हैं उनके तीन नवगीत -
शीत
आ रहा है शीत
मैं अभी से,
हो रहा भयभीत
रात भारी-सी
लगेगी बिन
रजाई के,
टूटे हुए
पाए पड़े हैं
चारपाई के
ठंड में
सिकुड़ा रहेगा
कोट बिन ‘नवनीत’
पिछले बरस भी
ऊन को
रोती रही गीता
सारा बरस
मजबूरियों के
नाम पर बीता
सोचता हूँ
किस तरह से हो सकेगा
यह बरस व्यतीत
आ रहा है शीत।
जाड़े की धूप
कल करेंगे
जो भी करना
आज तो बस
धूप से बातें करें
एक मुद्दत
बाद तो
यह लाजवंती
द्वार आई है
बर्फ में
भीगे हुए
कुछ गुनगुने संवाद
अपने साथ लाई है
क्या कहेगा
कल ज़माना
सोचकर हम क्यों डरें
आज तो बस धूप से बातें करें
क्या कभी भी
एक पल
अपनी खुशी से
भोग पाते हैं ?
रोटियों के
व्याकरण में ही
समूचा दिन गँवाते हैं
आज की इस
भूमिका को
कल तलक
सारांश के घर में धरें
आज तो बस धूप से बातें करें।
कोहरा
पता नहीं किस ज़ालिम डर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से
मुख पर हाथ धरे कोलाहल
ढूँढ़ रहा इस जड़ता का हल
पक्षी व्याकुल बुरी ख़बर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से
चूल्हा लेता हैं अँगड़ाई
अभी गोद में आँच न आई
चूक हुई क्या पूरे घर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से
तरस रहे पोथी में आखर
गूँजे नहीं चेतना के स्वर
बंद पड़े हैं खुले मदरसे
उठा नहीं सूरज बिस्तर से
शीत के गीत पढ़कर शीत और बढ़ गई है।
जवाब देंहटाएंगूंजेंगे-गूंजेंगे दद्दा, चेतना के स्वर जरूर गूंजेंगे। गीत पढ़कर मजा आ गया। लेकिन यह ज्यादती है जाड़े का अहसास बढ़ जाता है।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंआपका कार्य बहुत सराहनीय है...
अच्छी कविताओं का जमावड़ा है आपका ब्लॉग..
अच्छा लगा.
अत्यंत सरल भाषा में दुरूह को दर्शा देना अश्वघोष की खूबी है। संुदर अभिव्यक्ति के लिए बधाई!
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