शनिवार, जुलाई 17, 2010

विलिअम स्टेनली मेरविन की कविताएँ


९२७ में जन्मे विलिअम स्टेनली मेरविन अमेरिका के १७ वें राजकवि (पोएटलोरिएट) चुने गए हैं।साठ के दशक में बेहद मुखर युद्ध (विएतनाम) विरोध के लिए तरह तरह की चर्चाओं में आये मेरविन दो बार कविता के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार जीत चुके हैं जिसमें से पहला(१९७१) विएतनाम युद्ध विरोधी अभियानके लिए समर्पित कर दिया।बाद में उनका झुकाव बौद्ध दर्शन की ओर हुआ और इसके प्रभाव में उन्होंने हवाई द्वीप में अपना घर बना लिया...यहाँ रहते हुए प्रकृति के संरक्षण की उनकी चिंता ने मूर्त रूप लिया और वे खुद वर्षावन बचाने के काम में जुट गए।इस दौरान उनकी कविताओं में आधुनिक विकास के बर्बर अभियान के पैरों तले कुचली जा रही बिरासत बचाने की चिंता खूब मुखरहुई है। दो दर्जन से ज्यादा काव्य संकलनों के रचयिता मेरविन की इन्ही चिंताओं को व्यक्त करती हुई चार महत्वपूर्ण और चर्चित कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं। (अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र पाण्डेय)


भाषा
आजकल हमारे इस्तेमाल में आ रहे अनेक शब्द ऐसे हैं जिन्हें हम दोबारा
कभी प्रयोग में नहीं लायेंगे...और न ही हम उन्हें कभी पूरी तरह से
विस्मृत कर पाएंगे.हमें उनकी दरकार है.. किसी चित्र के पृष्ठभाग की तरह
...जैसे हमारे शरीर में हो मज्जा..और रंग जीवित रहें हमारी रगों के
अन्दर.
हम अपनी निद्रा का चिराग जला कर रखते हैं उनकी राहों के बीचों बीच जिससे
ये सुनिश्चित कर पायें कि वे हाजिर हो जायेंगे जब तामील होगी गवाहों
की..कांपते थरथराते हुए ही सही..
हमें जब दफ़न किया जायेगा उनपर भी हमारे साथ ही डाली जाएगी मिट्टी
...पर वे फिर से उठ खड़े होंगे जब उठेंगे बाकी सब के सब.


अभ्यास
सब से पहले यह भूल जाओ
एक घंटे के लिए
कि समय क्या हुआ है
और इसका अभ्यास करना शुरू करो हर दिन.
इसके बाद यह भूलो कि कौन सा दिन है
इसका अभ्यास करते रहो हफ्ता भर
इसके पश्चात् यह भी स्मृति से निकल दो
कि विराजमान हो किस देश में
लोगों के साथ मिल कर
इसका भी रियाज़ करो हफ्ते भर तक.
फिर इन सब को एक साथ जोड़ कर
दुहराते जाओ एक हफ्ता
बीच बीच में थोड़ा विराम दे दे कर.

जब यह लगे कि साध लिया तुमने ये सब
तो जोड़ना और घटाना भूल जाओ
मान लो इनसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला
ऐसे में जब एक हफ्ता गुजर जाए
तो कर डालो इनके क्रम में उलट फेर
इस तरह तुम्हारी स्मृति से चुपके से फिसल जाएगी गिनती.

भूल जाओ गिनती
और इसकी शुरुआत अपनी उम्र से करो
उलटी गिनती से करो
सम संख्याओं से करो
रोमन संख्याओं से करो
रोमन संख्याओं के भिन्नों से करो
पुराने पड़े कलेंडरों से करो
प्राचीन वर्णमालाओं की ओर लौटो
वर्णमालाओं तक लौटो तब तक
जबतक क्रमवार लगने न लगे
सब कुछ सहज पहले जैसा.

भूल जाओ तत्वों को
और इसका शुभारम्भ करो पानी से
इसके बाद चुनो धरती को
फिर पहुँचो आग तक...
यहाँ पहुँच कर आग को पहचानने से इनकार कर दो।


जैसे कोई तितली
ख़ुशी की बड़ी मुश्किल होती है उसका मौका
कुछ बताये बगैर ये अपने घेरे में ले सकती है मुझे
और जब तक चेतूँ ये अंतर्धान भी हो जा सकती है...
ये भी हो सकता है बिलकुल मेरे सामने ही खड़ी हो
और मुझे इसके पहचान न आये
मैं सोचता रह जाऊं किसी और बात की बाबत
यह दूसरा युग हो सकता है या कोई ऐसा इंसान
जिसे न तो बरसों बरस से मैंने देखा हो
और न ही देखने का सबब बने इस जीवन में...
ऐसा लगता है मुझे आह्लादित करने लगी है
ऐसी खुशियाँ जो मंडरा तो मेरे आसपास रही थीं
पर मैं उनसे वाकिफ नहीं था
हाँलाकि इर्द गिर्द होते हुए भी
मेरी पहुँच से बाहर हो सकती थीं वे
फिर इन्हें न तो पकड़ा जा सकता
न ही नाम ले कर पुकारा जा सकता
और न ही वापस बुलाया जा सकता गुहार लगा कर.

मैं अपनी दिली ख्वाहिशों की सुनने लगूँ
और रोक के बिठा लूँ अपने पास
तो मुमकिन है..यह ख़ुशी
हाँ...यही ख़ुशी
रूप बदल कर
बन जाए पीड़ा॥

भूली बिसरी भाषा
वाक्यों को पीछे छोड़ आगे बढ़ चुकी सांस
अब दुबारा कभी नहीं लौटेगी
फिर भी बड़े बूढ़े उन बातों को याद करते ही हैं
जिन्हें कह डालने की इच्छा घुमड़ती रही है उनके मन में
साल दर साल लगातार.

हांलाकि वे अब यह भांप गए हैं कि
लोग उन विस्मृत वस्तुओं का शायद ही यकीन करेंगे
और उन बचे खुचे शब्दों से जुडी तमाम वस्तुएं
बाती लेकर ढूंढे तो भी मिलेंगी कहाँ?

जैसे कोहरे में किसी अभिशप्त वृक्ष से सट कर खड़े होने की संज्ञा
या कि मैं के लिए क्रिया.
बच्चे उन मुहावरों को अब कभी नहीं दुहरा पायेंगे
जिन्हें बोलते बतियाते गुजर गए उनके माँ बाप
घडी घडी..दिन रात.

जाने किसने उन्हें घुट्टी पिला दी
कि हर बात को नए ढंग से कहने में ही
बेहतरी है आजकल
और इसी तरह उन्हें मिलेगी प्रशंसा और प्रसिद्धि
सुदूर देशों में..
जिन्हें कुछ पता ही नहीं हमारी चीजों के बारे में
ऐसे में उनसे भला कह ही क्या पाएंगे हम.

दरअसल हमें गलत और काला समझती है
नए आकाओं की शातिर निगाहें
कुछ समझ नहीं आता
क्या क्या बकता रहता है उनका रेडियो.
जब कभी दरवाजे पर होती है कोई आहट
सामने खड़ा मिलता है कोई न कोई अचीन्हा
सब जगह...कोनों अंतरों में
जहाँ तैरते होते थे हजार हजार चीजों के नाम
अब पसर गयी है झूठ की काली सी चादर .

कोई भी तो नहीं है यहाँ
जिसने अपनी आँखों देखा हुआ यह सब बदलते हुए
न ही आता है याद किसी को कोई खास वाकया
शब्दों को निर्मित ही इसलिए किया गया था
कि बताएं हमें संभावित परिवर्तनों के बारे में तफसील से...

देखो यही होंगे जरुर किसी कोने में पड़े हुए
वो पंख जिन्हें विलुप्त घोषित किया जा चुका
और यहीं तो कहीं होगी
हमारी खूब जानी पहचानी हुई वो मूसलाधार बारिश.

8 टिप्‍पणियां:

  1. परमेन्द्र जी, जितनी तारीफ की जाए उतनी कम होगी। अदभुत कविताएं हैं। 'अभ्यास' कविता तो मुझे शायद ही कभी भूले ! और यादवेन्द्र जी ने बहुत ही अच्छा अनुवाद किया है।

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  2. परमेन्द्र जी…इन बेहद शानदार कविताओं की प्रस्तुति के लिये बहुत-बहुत आभार

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  3. महत्वपूर्ण कविताएं.
    काव्य प्रसंग अब नियमित पढ़ने की चीज़ हो गई है. जारी रहें.

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  4. अशोक जी के फेसबुक लिंक से यहाँ आना हुआ....सुन्दर ब्लॉग ..बेहतर कवितायेँ...

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  5. बहुत अच्छी लगी यह कवितायें । फेसबुक पर लिंक देने के लिये अशोक का आभार ।

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  6. भाई लोग लिंक से यहां आ गये…प्रशंषा करके चले गये और यह शिक़ायत दर्ज़ उस लिंक पर कमेंट में कर गये कि 'कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें'… अब इसे मेरा भी आग्रह मानें

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  7. यादवेन्द्र जी के चयन और अनुवादों को पढ़ना एक सुखद अनुभव है। प्र्स्तुति के लिए आभार।

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