सोमवार, जनवरी 16, 2012

मछलियाँ : नरेश सक्सेना

हिन्दी कविता में नरेश सक्सेना की उपस्थित के मायने कविता में कोमल संवेदना का बचा रहना है। जब तक ऐसी कविताएँ लिखी जाती रहेंगी, कविता जिन्दा रहेगी। उनके जन्मदिन पर शुभकामनाओं के साथ आपके साथ साझा करने का मन है उनकी यह प्यारी सी कविता -

मछलियाँ
एक बार हमारी मछलियों का पानी मैला हो गया था
उस रात घर में साफ पानी नहीं था
और सुबह तक सारी मछलियाँ मर गयी थीं
हम यह बात भूल चुके थे

एक दिन राखी अपनी कापी और पेंसिल देकर
मुझसे बोली
पापा, इस पर मछली बना दो
मैंने उसे छेड़ने के लिए कागज पर लिख दिया - मछली
कुछ देर राखी उसे गौर से देखती रही
फिर परेशान होकर बोली - यह कैसी मछली !
पापा, इसकी पूँछ कहाँ और सिर कहाँ
मैंने उसे समझाया
यह मछली का म
यह छ, यह उसकी ली
इस तरह लिखा जाता है - म...छ...ली
उसने गम्भीर होकर कहा - अच्छा ! तो जहाँ लिखा है मछली
वहाँ पानी भी लिख दो
तभी उसकी माँ ने पुकारा तो वह दौड़कर जाने लगी
लेकिन अचानक मुड़ी और दूर से चिल्लाकर बोली
साफ पानी लिखना पापा।

10 टिप्‍पणियां:

  1. सशक्त और प्रभावशाली रचना|

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  2. नरेश जी की लेखनी सचमुच कमाल की.

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  3. यह कविता नहीं बल्कि हमारे समय का आख्‍यान है। और इसे इस तरह नरेश जी ही लिख सकते हैं।

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  4. साफ पानी सब को मयस्सर हो, यह बड़ा सपना है, भला है कि यह सपना नई आँखों में है। नरेश सक्सेना की कविता इन्हीं सपनों को टिकाने और उसके लायक दुनिया के होने की ख़्वाहिशों की कविता है। छोटी आँखों के बड़े सपने..... पवित्र इच्छाएँ.....

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  5. कविता में विज्ञान के साथ जान डालने का अद्भुत काम सिर्फ नरेश सक्सेना ही कर सकते हैं.

    देवेन्द्र सुरजन ,शिकागो

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  6. la-jawab......itihas ko darj karti hui kavita.

    yadvendra

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  7. बहुत दिन बद आज आप का ब्लॉग खुला. और इतना धीरज रखने का फल भी स्व्च्छ जल सा मिला रिफ्रेशिंग........ इतनी बड़ी त्रासदी को इतने रिएफ्रेशिंग मूड मे एक बड़ा कवि ही लिख सकता है.

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  8. Ashwani Khandelwal : काश हम भी बच्चों जितने संवेदनशील हो पाते संभव भी है अगर बड़े होते जाने की ज़िद के बीच दिलो-दिमाग़ मेकहीं बचपना सहेज सकें तो

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