जीवन, मंचीय सांस्कृतिक विधाओं और साहित्य
के पारंपरिक ढाँचे और शैली के साथ खिलवाड़ करती रहने वाली सीमा शफ़क अक्सर कुछ
नया काम करके मित्रों को चौंकाती रहने वाली शख्सियत हैं...और उन्हें सबसे ज्यादा
मजा तब आता है जब वे अपनी पिछली किसी रचना को बिलकुल किनारे रखते
हुए कहीं और प्रस्थान करती हैं जैसे पिछला किया हुआ उनका न होकर किसी और का
हो...उसके बारे में वही जाने,वही बात
करे...पिछले कुछ दिनों से वे घर से पहला कदम बाहर निकालने वाले बच्चों की दुनिया
में रमी हुई हैं...उनके बारे में सीमाजी के पास इतना कुछ कहने को है कि बच्चों को
रोज रोज की मामूली बात समझने का मुगालता पाले हुए लोगों को अपनी तंगखयाली पर शर्म महसूस होने लगती है.पर यह बिलकुल तय है की उनकी हर
छोटी से छोटी बात और काम में गहरी संवेदना, निष्ठा और
काम न करने वाली व्यवस्था को बदल डालने का घनघोर जज्बा दिखाई देता है...ज्यों की
त्यों धर दीनी चदरिया की उनकी जीवन शैली यहाँ बहुत कारगर ढंग से नतीजे में बदलती
हुई दिखाई देती है...नए पड़ाव पर पहुंचना जितना आसान लगता है उतना ही मुश्किल है
पुराने पड़ाव की नाकामी को स्वीकार करते हुए ज्यूँ का त्यूँ छोड़ कर आगे बढ़
जाना..सीमाजी को इसमें महारत हासिल है.वे आजकल अपना समय हरिद्वार और शिमला के बीच विभाजित करते हुए बिताती हैं.
बच्चों के साथ उनके अन्तरंग और गहरे संवाद ने कई ऐसी रचनाओं को जन्म दिया है
जिनमें दशकों से चली आ रही घिसीपिटी परिपाटी को तोड़ने और नयी परिपाटी का आगाज
दिखाई देता है और मुझे ऐसी अनेक रचनाओं को ताज़ा ताज़ा सुनाने
का सौभाग्य प्राप्त हुआ है...यह कविता भी उसी कड़ी का एक
नमूना है.दैनिक जीवन में बिलकुल हमारे आस पास उपस्थित अमिया,इत्र,ईश्वर,उम्मीद,ऊसर,ओस ,ऋतु और अंतस
जैसे शब्दों को उन्होंने जिस तरह प्रारंभिक वर्णमाला में पिरोया है उस से बच्चों
के सामने एक नयी व्यावहारिक दुनिया का द्वार खुलता है. और जो शिक्षक बच्चों को इन शब्दों को देखने ,छूने और
सूंघने के लिए तैयार करेंगे निश्चित ही उनको पहले उनके भौतिक अर्थ और भाव की गहराई
तक उतरना पड़ेगा तभी बच्चों के मन की अनगढ़ गीली मिट्टी के मानस पटल पर उनको स्थायी
तौर पर शिलालेख की तरह दर्ज करना संभव होगा.मेरा मानना है कि ऐसी कवितायेँ नयी
दुनिया गढ़ने के लिए नयी शब्दावली ही नहीं बल्कि नयी इच्छाएं और संकल्प भी पैदा
करेंगी.
अक्षर ज्ञान के लिए जो विशिष्ट तत्व शिक्षाशास्त्रियों ने
सर्वप्रमुख माने हैं वे हैं उनके नाम,आकार और
ध्वनि. और पश्चिम
के देशों में किये गये ऐसे अध्ययनों की कमी नहीं जिनमें निष्कर्ष निकाला गया है कि जिन बच्चों का अक्षर ज्ञान अपेक्षित स्तर तक नहीं
पहुँचता वे आगे चलकर पढाई में सामान्य तौर पर पिछड़ जाते हैं.कुछ अध्ययन ऐसे भी
सामने आए हैं जो बचपन की इस उपेक्षा से वयस्क काल तक को प्रभावित मानते हैं.कुछ
विशेषज्ञ तो यहाँ तक कहते हैं कि दसवीं कक्षा में बच्चों का भाषा ज्ञान किस स्तर
का होगा इसकी भविष्यवाणी उनके किंडरगार्टेन के वर्णमाला ज्ञान के आधार पर बड़े
भरोसे के साथ किया जाना संभव है.
तीन चार साल के अमेरिकी बच्चों पर किये गये
अध्ययन बताते हैं कि आर्थिक सामाजिक स्थितियों का बच्चों की
शब्द सम्पदा के साथ अनिवार्य सम्बन्ध है
जो उनके बड़े होने पर भी तब तक बरकरार रहता है जबतक विशेष प्रयास करके हस्तक्षेप न
किया जाये.आम तौर पर एक अमेरिकी प्रोफेशनल परिवार में तीन साल के बच्चे महीने भर
की बातचीत में 1100 शब्द सुनते हैं पर कम पढ़े लिखे
मजदूरी करने वाले परिवार में शब्दों की यह औसत संख्या घट कर 700 रह जाती
है...सरकारी अनुदान कूपन( गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले भारतीय परिवारों के समकक्ष) पर जीवन यापन करने वाले परिवार
के बच्चे तो महीने भर की बातचीत में 500 शब्द ही सुन
पाते हैं.ऐसे सामाजिक विभाजन के कारण बच्चों की नए शब्दों को सीखने की क्षमता भी
प्रभावित होती है...इनके बीच एक साल में 750 नए शब्दों से लेकर 3000 शब्दों का
फासला होता है.ये सामाजिक स्थापनाएं भारतीय समाज पर भी बखूबी लागू होती हैं.
सीमाजी की ऐसी कवितायेँ बच्चों को देश का भावी जिम्मेदार नागरिक मानते
हुए संभावनाओं के अनंत आकाश तक लेजाने का संकल्प पूर्वक यत्न करती हैं...यह कहा
जाना चाहिए कि सामाजिक आर्थिक विषमता से हाशिये पर डाले जा रहे बच्चों के लिए लिखी
जाने वाली ऐसी कवितायेँ दरअसल उनके सकारात्मक सशक्तीकरण का बयान है...विषम समाज को बेहतर भविष्य प्रदान करने
के लिए नौनिहालों के हाथ में रुपये पैसे से ज्यादा धारदार हथियार शब्द थमाने का
आग्रह किया भी जाना चाहिए. (प्रस्तुति: यादवेन्द्र)
नयी वर्णमाला
अ अनार ही क्यूँ होता है?
आ से सदा क्यूँ होता आम?
अमिया आलू दुखी बहुत थे ,उनका कोई न लेता नाम..
इ पर इमली का है कब्ज़ा,
ई से ईख सदा की बात..
इत्र ये बैठा सोच रहा था,थके हुए ईश्वर के साथ..
उ उल्लू की बना बपौती ये भी भला हुई कुछ बात..
डाल पात क्यूँ उल्लू की शह,उम्मीदों की ठहरी मात.
ऊ से ऊन और ए से एँड़ी
नया कहाँ सब वही पुराना..
ऊसर जीवन,एकाकीपन..किसने चीन्हा किसने जाना
ऐ ऐनक फिर चिढ कर बोली..
ऐ,ऐसे ही चलती दुनिया--
ऋ से ऋषि का तोड़ नहीं कुछ
हँसी ऋतु और बोली गुनिया
ओ से ओस भी तो होती है..
आशाएँ की तब ये जाना ...
औ से औरत हो या औघड़...सब बदले हैं भेस पुराना
अं अंगूर में क्या रखा है?
अं से तो अंतस होता है,मन जिसको कहते हैं हम तुम...
जो हँसता है जो रोता है...
अः सुनता था सब बातें,खाली तनहा
बहुत उदास...
काश कोई उसकी भी सुनता,वो भी कहता मन की बात.
सटीक प्रश्न है ..
जवाब देंहटाएंअ से अनार और आ से आम ही क्यों ..
एक एक अक्षर को हम अपने ढंग से शब्द देंगे ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
बहुत बढ़िया ॥ यह नयी वर्ण माला बहुत अच्छी लगी ॥
जवाब देंहटाएंसचमुच, अच्छी कविता बन गई है।
जवाब देंहटाएंThanks for sharing, nice post! Post really provice useful information!
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