शुक्रवार, अप्रैल 29, 2011

साइकिल रिक्शा : दो कविताएँ (प्रस्तुति - यादवेन्द्र)

27 मार्च 2011 को नागपुर से प्रकाशित प्रतिष्ठित दैनिक लोकमत समाचार की रविवारी पत्रिका लोकरंग ने रिक्शों के ऊपर मेरा शीर्ष लेख प्रकाशित किया जिसमें हमारे देश के पूंजीवादी विकास के वर्तमान माडल में कारों के बर्बर कब्जे और रिक्शों के हाशिये पर धकेलते जाने की चर्चा की गयी है.मानव श्रम से बिना इंधन के चलने वाला यह वाहन पूरे एशिया में मध्यवर्गीय समाज का अभिन्न अंग रहा है और धीरे धीरे सभी बड़े एशियाई नगरों से इसको धकेलने कीतय्यारी की जा रही है. लेख लिखने के दौरान मुझे समाज की नब्ज पर हाथ रखने वाले दो महत्वपूर्ण कवियों की कविताएँ याद आयीं...हिंदी के दो शीर्ष कवियों ने रिक्शे को लेकर चर्चित कवितायेँ लिखी हैं..स्व.नागार्जुन और स्व. रघुवीर सहाय ने...बहुत मुमकिन है अन्य कवियों ने भी उल्लेखनीय रचनाएँ लिखी हों जो मुझ जैसे पाठक की निगाहों से छूट गयी हों...इसके लिए क्षमाप्रार्थी होते हुए यहाँ प्रस्तुत है ये दो कविताएँ :

खुरदुरे पैर
- नागार्जुन (1961)
खुब गए दूधिया निगाहों में फटी बिवाइयों वाले खुरदुरे पैर
धंस गए कुसुम कोमल मन में गुट्टल घट्ठों वाले कुलिश कठोर पैर
दे रहे थे गति रबर विहीन ठूंठ पैडलों को
चला रहे थे एक नहीं दो नहीं तीन तीन चक्र
कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को
नाप रहे थे धरती का अनहद फासला
घंटों के हिसाब से ढोए जा रहे थे .
देर तक टकराए उस दिन इन आँखों से वो पैर
भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयाँ ....
खुब गयी दूधिया निगाहों में
धंस गयी कुसुम कोमल मन में.

साईकिल रिक्शा
- रघुवीर सहाय (1989)
यह महज सुनने में लगता है साम्यवाद
हम अपने घोड़े को इंसान भी समझें
ख़ास तौर से जब वह सचमुच इंसान हो .
ग्लानि से भर कर रिक्शे से उतर पड़ें
पछ्ताएं क्यों उसकी रोजी ली
फिर तरस खा कर बख्शीश दें .
तीनों परिस्थितियों में हम हैं लदे हुए ,वह हमें ढ़ोता है.
सिर्फ ढुलाई पर दोनों झगड़ते हैं
हैसियत उनकी बराबर हो जाती है.
आओ इक्कीसवीं सदी के इंजीनियर
ईजाद साईकिल रिक्शा ऐसी करें
जिस में सवारी और घोड़ा अगल बगल
तफरीहन बैठे हों.
मगर आप पूछेंगे इस से क्या फायदा ?
वह यह कि घोड़े को कोई मतभेद हो
पीछे मुँह मोड़ कर पूछना मत पड़े .
प्रस्तुति; यादवेन्द्र

गुरुवार, अप्रैल 21, 2011

ट्रैफ़िक के नये क़ानून - कुमार विकल

(और अब उदयन के बाद सीधे कुमार विकल ...)

यह कौन है—जो अल सुबह
अख़बार के पन्नों में मुझको दीख जाता है
जो चाय की पहली प्याली से
रात की अंतिम क्रिया तक
मेरी दिनचर्या में लगभग दनदनाता है।

यह कौन है जो—
नित नई मुद्रा में मुझको
नित नये आदेश देता है
और ट्रैफ़िक के नये नियम सिखाता है
कि दायें मत चलो
कि बायें मत चलो
सड़क के बीच में साइकिल चलाना ही सुरक्षित है।
मगर मैं जन्म से बायाँ—
जो बायें हाथ से खाता हूँ
बायें हाथ से लिखता हूँ
बायें हाथ से जीवन के सारे काम करता हूँ
और बायें ही किनारे आज तक साइकिल को चलाया है।
यह संभव है,बिना अभ्यास के मैं जब कभी सड़क के बीच में साइकिल चलाऊंगा,
किसी फौजी गाड़ी के तले कुचला जाऊंगा।

ये कौन है जो इस तरह के ट्रैफ़िक की आड़ ले
साधारण आदमी के क़त्ल की साज़िश बनाता है
मगर मातम-सभाओं में झूठे आँसू बहाता है।

यह कौन है—
यह किनका पक्षधर है
मैं सब कुछ जानता हूँ
मैं इसके तेवरों को ठीक पहचानता हूँ
मगर मैं अपने कत्ल से डरता हूँ
और खामोश रहता हूँ।
मगर कोई तो बोलेगा।
भयानक मौत के जंगल का सन्नाटा कोई तो तोड़ेगा
जो अपने होंठ खोलेगा।
आदमी के होंठ जब लंबे समय तक बंद रहते हैं
तो ऐसा वक़्त आता है
कि अपने दाँतों से वह अपने होंठ काट खाता है।
घायल होंठ का वह दर्द तब निश्चय ही बोलेगा—
यह जो नागरिक कपड़ों में फौजी ट्रक चलाता है
उस साज़िश में शामिल है
जो चाहती है
कि पूरी आदमियत से कोई ऐसी बात घट जाए
कि जिससे आदमी का बायाँ हाथ ही कट जाए।

सोमवार, अप्रैल 11, 2011

सांत्वना: उदयन वाजपेयी


कुछ दिनों पहले उदयन वाजपेयी मुजफ्फरनगर में आयोजितमलयज स्मृति व्याख्यानदेने के लिए पधारे थे। इस अवसर पर उनकी कविताओं का रसास्वादन जमकर लिया गया। उनकी एक कवितासांत्वनायहाँ उनके स्वर सहित प्रस्तुत है -

सांत्वना
अपने एक दिन रह जाने के ख्याल में इतनी सांत्वना थी कि मैंने अपने एक दिन रह जाने के ख्याल में ही रहना शुरू कर दिया। अब मेरे घर के सामने का पेड़ मेरी मृत्यु के बाद का पेड़ है जिस पर धूप पड़ रही है। अब मेरी हर यात्रा मेरी मृत्यु के बाद की यात्रा है। मेरा यह शरीर अपनी मृत्यु के बाद मेरी स्मृति में अटका रहा आया कोई तिनका है। अब अन्तरिक्ष के फैलाव में उलझी यह पृथ्वी मेरे जाने के बाद बची रही आयी पृथ्वी है जिस पर मेरे बेटे अपने ढेरों बल्लों से क्रिकेट खेल रहे हैं और जिसकी एक छत पर बैठी तुम मेरे आने की प्रतीक्षा कर रही हो।