शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010
नये साल की शुभकामनाएँ !
सभी को नववर्ष की शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत है सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता :
नये साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की भेड़ों पर धूल-भरे पाँव को,
कुहरे में लिपटे उस छोटे-से गाँव को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
जाते के गीतों को, बैलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं के जाल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस पकती रोटी को, बच्चों के शोर को,
चौंके की गुनगुन को, चूल्हे की भोर को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
वीराने जंगल को, तारों को, रात को,
ठण्डी दो बन्दूकों में घर की बात को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को,
सिगरेट की लाशों पर फूलों-से ख्याल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को,
हर नन्ही याद को, हर छोटी भूल को,
नये साल की शुभकामनाएँ!
उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे,
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे,
नये साल की शुभकामनाएँ!
बुधवार, दिसंबर 22, 2010
कल नहीं रहेगी देह
कल
नहीं रहेगी देह
अधूरे स्वप्न भी झर जाएँगे
एक तारा टूटेगा
मगर आकाश भरा रहेगा
आकाशगंगाओं से
अप्रतिहत घूमती रहेगी धरती
अपनी धुरी पर
अक्षाशों और देशान्तरों के माथे पर
एक शिकन तक न आएगी
घर से आखिरी बार निकलेंगे
तैयार होकर
अपनी मौलिक बेचैनियों को
विराम देते हुए।
नहीं रहेगी देह
अधूरे स्वप्न भी झर जाएँगे
एक तारा टूटेगा
मगर आकाश भरा रहेगा
आकाशगंगाओं से
अप्रतिहत घूमती रहेगी धरती
अपनी धुरी पर
अक्षाशों और देशान्तरों के माथे पर
एक शिकन तक न आएगी
घर से आखिरी बार निकलेंगे
तैयार होकर
अपनी मौलिक बेचैनियों को
विराम देते हुए।
बुधवार, दिसंबर 15, 2010
औरतें : नाज़ी कवियानी (अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र)
इरान में जन्मीं नाज़ी कवियानी सैन फ्रांसिस्को में रहती हैं और एक ब्लॉग http://nazykaviani.blogspot.com चलाती हैं। यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक कविता (अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र)
औरतें
मेरे अंदर छुपी हुई है एक मासूम नन्हीं सी बच्ची
औरतें
मेरे अंदर छुपी हुई है एक मासूम नन्हीं सी बच्ची
चटक नाक नक्श वाली और उम्मीदों से लबालब...
इसमें शोखी भरी चाल, ठहाकेदार हंसी और
हरदम थिरकने को आतुर टांगों वाली एक जवान स्त्री बसती है
कभी भनक नहीं लगती
कि उसके अंदर कितनी तेज बह रही है
नए नए लोगों और स्थानों को
देखने की उत्कट जिज्ञासा.
यहाँ एक कामोत्तेजक स्त्री रहती है
मोहपाश में फांस कर भरमा देनेवाली
प्रेमिका और आसक्त अनुरागी
स्पर्श के गहरे भेदों,आमंत्रणपूर्ण निगाहों और स्वागती चुम्बनों की
खूबसूरती परत दर परत उधेड़ने वाली स्त्री भी
रहती है मेरे अंदर.
निरंतर नितांत उदार,पालनहार और भरण पोषण करनेवाली माँ भी
रहती है मेरे शरीर के अंदर .
अनुभवी सयानी, अपने हुनर सिखाने को लालायित,
मुश्किल में दिलासा देने वाली
मुश्किल में दिलासा देने वाली
मार्गदर्शक और भविष्य निर्माता औरत
एकसाथ ही मैं सब कुछ हूँ.
एक प्रेमपगी भरोसेमंद साझेदार, करुणामयी और निष्ठावान पत्नी
सब कुछ समाया है एक मेरे ही भीतर.
मैं ये सब औरतें एकसाथ हूँ
और ये सब समाहित हैं मेरे अंदर एक साथ ही.
जब मैं कामोद्दीप्त दिखती हूँ
तब भी मेरे अंदर करवट लेती रहती है
एक मासूम नन्ही सी बच्ची.
जब मैं छोटी बच्ची दिखती हूँ
तब मेरे अंदर वास करती है एक माँ..
जब मैं जवान दिखती हूँ
तब मेरे अंदर करवटें लेती है
इतिहास की सारी की सारी समझदारी
मुझे इनमें से केवल एक रूप में कभी मत देखो
सिर्फ एक इकहरे रूप में किसी स्त्री को प्यार मत करो...
मेरे अंदर बसी हुई अनेकानेक स्त्रियों की
उपेक्षा अवहेलना कभी मत करो.
जब तुम सो जाते हो नींद में
पसीने से लथपथ
तृप्त संतुष्ट और भरे भरे
भूलना मत हमेशा याद रखना
कि मेरे अंदर बैठी हुई चटक नाक नक्श वाली बच्ची
मांग करेगी जिम्मेवार परवरिश की
मेरे अंदर की अनुभवी सयानी औरत
चाहेगी खुद के लिए भरपूर आदर सम्मान
मुझमें समायी हुई उद्यमी पोषक स्त्री को
सहज अपेक्षा रहेगी उचित कद्रदानी की
मेरे अंदर की जवान स्त्री ढूंढेगी
उन्मत्त करने वाला उत्तेजक उल्लास.
और मुझमें बैठे हुए साझेदार जीवनसाथी को
चाहिए होगा निष्कपट शुद्ध बर्ताव.
अब जब भी तुम आस पड़ोस की
30 ,40 ,50 या 60 साल की किसी स्त्री पर
दिल फेंक मोहित होने लगो
तो सबसे पहले उसके अंदर गहरे झांकना
वहां जरुर बैठी दिख जायेगी तुम्हे
एक मासूम नन्ही सी बच्ची...
शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010
सीढ़ियों पर बैठा पहाड़ : अश्वघोष
(डॉ. अश्वघोष जाने-माने कवि, गीतकार और ग़ज़लकार हैं. उनकी अब तक कविता की दर्ज़न भर किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कविता 'अम्मा का ख़त' आपने दौर की खासी चर्चित कविताओं में से है. उनका कविता-संग्रह 'सीढियों पर बैठा पहाड़' हाल ही में 'मेधा बुक्स' से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से उनकी दो कविताएँ प्रस्तुत हैं :)
सीढ़ियों पर बैठा पहाड़
नींद में डूब जाएगा थका-हारा गाँव
लेकिन रात भर जागेगा पहाड़
बैठा रहेगा सीढ़ियों पर
पहाड़ को पता है कि कभी भी
बुला सकते हैं उसे बच्चे
दोस्त की भाँति
अपने सपनों में
कि रात में किसी भी वक्त
चन्द्रमा माँग सकता है उससे अपनी चाँदनी
पहाड़ को पता है कि चलते-चलते
उसी की जेबों में रख गये हैं
पक्षी अपनी आवाज
फूल अपनी खुशबू
पेड़ अपने फल
झरने अपनी मिठास और
नदियाँ अपनी आँखें
पहाड़ को पता है कि भोर होते ही
सभी को लौटानी होंगी
उनकी धरोहरें।
काठ का घोड़ा
बुधिया ने बनाया
काठ का घोड़ा
घोड़े पर बैठेगा
मंत्री का बेटा
घोड़े को तरसेगा
संतरी का बेटा
घोड़े पर बैठेगा
दरोगा का बेटा
घोड़े को मचलेगा
कैदी का बेटा
घोड़े पर बैठेगा
सेठ का बेटा
घोड़े को रोएगा
मजूर का बेटा
बुधिया ने तोड़ दी
घोड़े की काठी
आरी से काट दी
घोड़े की गरदन
मार दिया पैरों पर
वजनी हथोड़ा
मिट्टी में मिला दिया
काठ का घोड़ा।
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