गुरुवार, सितंबर 23, 2010

समय के साथ गुमा गयीं बहुत-सी चीजें...

(आज अपनी एक पुरानी कविता को बांटने का मन है, जो मेरे कुछ दोस्तों को भी बेहद पसंद है...)

समय के साथ
गुमा गयीं बहुत-सी चीजें...

समय के साथ
गुमा गया वह जंगल
जिससे आसमान दिखायी नहीं देता था
गुमा गया
बुरे दिनों का उजाला
जिसकी जगह ले ली
उजले दिनों के अँधेरों ने

गुमा गया बेरी का वह बाग
वह कुआँ
जिसमें सारी पोथियाँ फेंक दी थीं
अनुभव के शास्त्र तले दबी
उस बच्चे की सिसकियाँ
गूँजती हैं
दिमाग के खोखलेपन में

समय के साथ
गुमा गयीं छोटी-छोटी चिन्ताएँ
उनकी जगह ले ली बड़ी-बड़ी चिन्ताओं ने
जो लगातार खाती हैं
और लुभाती हैं

समय के साथ
गुमा गयीं
माँ-बाप की हिदायतें
बुजुर्गों की नसीहतें
और
अपने एकान्त में बड़बड़ाती घर की देहरी

समय के साथ
गुमा गया
मेरा चेहरा, जिसे मैं पहचानता था
उसकी जगह है ऐसा चेहरा
जिसे दुनिया पहचानती है

समय के साथ गुमा गया वह सुख
जो उदासी से जन्मा था
अब चारों ओर से घिरा हूँ
सुख से उपजी उदासी से

समय के साथ
गुमा गयीं बहुत-सी चीजें
यात्रा में पीछे छूटे
सहयात्रियों की विदाई की मुसकान की तरह।

गुरुवार, सितंबर 16, 2010

मेरे जीवन का आखिरी दिन : कवि का गद्य - फेलिपे ग्रानाडोस

कवि का बहता हुआ गद्य, गद्य की समस्त संभावनाओं के साथ एक ऐसी संगीतात्मकता में अभिव्यक्त होता है जो गद्य की सख्त ज़मीन को उन नयी आहटों के लिए तैयार करता है जो उस गद्य में जगह पाकर नए देशकालों को, जो अब तक कहीं गहरे अँधेरे में थे, जन्म देकर कई तरह से आलोकित करता हैसाथ ही, कवि का गद्य रचना के मर्म से छिटकी, जड़ विचारों से आक्रांत आलोचना की बाड़ को तोड़ते हुए उसे लगातार और अधिक रचनात्मक होने की अति संवेदनशील महत्वाकांक्षा से भरता है '
काव्य-प्रसंग' पर कुछ ऐसे ही जादुई गद्य के नमूने प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। इस श्रृंखला में आप पढ़ चुके हैं कवि मलयज का गद्य. अब प्रस्तुत है कोस्टा रिका के कवि फेलिपे ग्रानाडोस का गद्य (चयन, अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र पाण्डेय) :

फेलिपे ग्रानाडोस लातिन अमेरिकी देश कोस्टा रिका के लोकप्रिय और सम्भावनापूर्ण कवि लेखक थे,जो पिछले वर्ष 33 वर्षों की अल्पायु में हमसे विदा हो गए.उनका पहला कविता संकलन संगीत के प्रति उनके गहरे अनुराग का परिचय देता है,दूसरे संकलन के प्रकाशन की तय्यारी में थे कि दुनिया से कूच कर गए. अपनी मृत्यु से साल भर पहले उन्होंने गद्य का एक मार्मिक टुकड़ा लिखा था,जिसने प्रकाशित होते ही देश के साहित्यिक जगत में हलचल मचा दी थी.यहाँ प्रस्तुत है कवि का वही गद्यांश -


एक कांपती हुई आवाज मुझसे सवाल करती है कि यदि विकल्प का अवसर दिया जाये तो मैं किस तरह का जीव बनना पसंद करूँगा..मैं तो खूब मखमली गद्देदार नन्हा खरगोश बनना चाहूँगा जिसको एक आँख अपने मालिक के बेइन्तहां प्यार के चलती गंवानी पड़ी...और वो प्रेमी मालिक होगा 6 साल का जुआन (कवि के बेटे का नाम है जुआन).

इसके बाद आस पास पाँव पसार कर ठहर गयी ख़ामोशी में समायी हुई हैं जाने कितनी कितनी बातें...इसी बीच फ़ोन की घंटी बजती है और फ़ोन के दूसरे सिरे पर उपस्थित मुझे खूब प्यार और मेरी फ़िक्र करने वाला व्यक्ति बड़ी सावधानी से इन बातों को शब्द देने की कोशिश करता है... मुमकिन बिलकुल ही नहीं लगता...इन बातों को दरअसल खूबसूरत अंदाज में बयान करना संभव ही नहीं है.

मैं अब मरने की तय्यारी कर रहा हूँ.

मेरे जीवन का आखिरी दिन सुबह जल्दी शुरू होना चाहिए...खूब जल्दी...मैं कोशिश करता हूँ कि जीवन एक तरतीब में बंधे...साथ ही व्यावहारिक भी लगे...पर सच तो ये है कि असल जीवन में इन दो प्रवृत्तियों से मेरी नजदीकी कभी नहीं रही...चलो फिर से एक बार कोशिश कर के देखता हूँ...एक बार और...आखिरी बार .

7.30 सुबह :

लिख कर दर्ज रहा हूँ कि मेरे लिए कोई भी ऐसा पारंपरिक अनुष्ठान आयोजित न किया जाये जिसमें शामिल हो किसी ज्ञात देवता का हाथ ...उन्हें ये मालूम होना चाहिए कि जिस रात मैंने ईश्वर की हत्या कर दी उस रात मेरा मन बहुत शांत और निश्चिन्त हो गया ...मैं किसी बच्चे की तरह सरल बन कर रात भर सोया ...मुझे न तो नरक का खौफ था और न ही स्वर्ग का...मेरे लिए तो साहित्य -या यूँ कहें कि किताबें और लेखन -वो सब कुछ देने और तृप्त कर देने वाला साधन है जो दूसरे तमाम लोगों को लगता है कि सिर्फ ईश्वर ही दे सकने में सक्षम है...चाहे सुख हो या उम्मीद या फिर दंड ही क्यों न हो...इससे कम से कम ये तो बखूबी समझाया जा सकता है कि जीवन कितना निरर्थक बीता. .

8.00 सुबह :

मैं अपनी अंत्येष्टि की तय्यारी करता हूँ...मेरे शरीर को तीन भागों में विभाजित कर के वैसे तीन स्थानों पर डाल दिया जाये जहाँ जा कर मैं हमेशा ख़ुशी महसूस करता था:इराजू ज्वालामुखी पर,उस जगह पर जहाँ धरती पर जन्म लेते ही मैं पहले पहल घर में रहा और तीसरा बंदरगाह पर.

8.20 सुबह :

एक कप काफी और कई कई सिगरेट...मैं अपने आप से वायदा करता हूँ कि आज ठीक ग्यारह बजे मैं सिगरेट पीना छोड़ दूंगा...अपना ये वायदा मैं निभाऊंगा जरुर..मैं अनेकानेक चीजों के बारे में सोचना ही छोड़ दूंगा..चाहे वो काफी का प्याला हो या सिगरेट..किसी ने कहा भी है: अतीत के सुहाने ख्यालों में खोये रहना एक बेहूदा सा शौक है.

8.30 सुबह :

मुझे रुलाई छूट रही है...बार बार..पर मैं अपने सारे काम किये जा रहा हूँ...बाथरूम में शावर के नीचे नहाते हुए,शेव करते हुए,अंतिम बार साफ सुथरी अंडरवीअर पहनने का सुख भोगते हुए भी मैं निरंतर रोते जा रहा हूँ...साथ साथ सामने रखे आईने में देखते हुए ये महसूस करने की कोशिश कर रहा हूँ कि देखूं मरा हुआ आदमी जब रोता है तो उसका चेहरा कैसा दिखता है.

9.00 सुबह :

अपना मुंह धोता हूँ..फिर घर से निकल पड़ता हूँ कि नाश्ता अपने बच्चों के साथ करूँगा...जुआन और लूसी के साथ. उन्हें हौले से चूमता हूँ और बाहर निकल पड़ता हूँ.

10.00 सुबह :

बिना भूले अपनी दवाई की गोली खाता हूँ..हांलाकि अब उनका कोई असर नहीं होता...महज एक काम है गोली खाने का सो खा लेता हूँ...ये बिलकुल बेतुका सा फालतू काम है फिर भी इसका करते हुए जाने कैसी ख़ुशी सी महसूस करता रहता हूँ.

10.20 सुबह :

सैन जोस पहुँचता हूँ.धीरे धीरे चलते हुए सेन्ट्रल मार्केट के फूल बाजार तक आता हूँ..इस वक्त कुछ और नहीं सिर्फ फूलों के बारे में सोच रहा हूँ.

10.40 सुबह :

एक अजनबी के पास आ कर बैठ जाता हूँ और बेसिर पैर की बातें छेड़ देता हूँ..उस से पूछता हूँ कि उसको फुटबाल,राजनीति और लातिन अमेरिकी आदर्शपुरुष (आइडल) में से सबसे ज्यादा कौन पसंद है...पर जवाब के अनुसार उसके बारे में कोई राय बनाने के चक्कर में बिलकुल नहीं पड़ता...न ही उसके जवाबों से मुझे कोई ख़ास ख़ुशी होती है...मैं दरअसल कुछ सोचता ही नहीं.

10.45 सुबह :

अपना मनपसंद समुद्री आहार ढूंढ़ता हूँ और मिल जाने पर सूप और श्रिम्प का आर्डर देता हूँ.

11.30 दोपहर :

अपनी माँ को फ़ोन लगाता हूँ और शुक्रिया के दो शब्द बोलता हूँ.

11.45 दोपहर :

अपने वायदे के मुताबिक सिगरेट पीना छोड़ देता हूँ...थोड़ी देर से ही सही पर अंत में अपना वचन पूरा करने का संतोष होता है..अपने घर वापस लौट आता हूँ.

12.00 दोपहर :

ठीक बारह बजे रेडियो पर समाचार लगाता हूँ..उस समय पेरी कोमो का गाया वही गीत बज रहा है जिसको सुनते ही मुझे अपना बचपन याद आ जाता है और ये भी कि मैं स्कूल की ड्रेस पहन के इसको गाया करता था.

12.45 दोपहर :

अपना एक अधूरा छूटा हुआ लेख पूरा करता हूँ.

1.00 दोपहर बाद :

रुक रुक कर फिर छूट रही है रुलाई..अपने काल्पनिक दोस्तों के बारे में सोचते हुए जोर जोर से हँसता हूँ....काश,अपने बिस्तर पर लेटे लेटे जुआन और लूसिया के साथ इस तरह ठहाके लगा पाता.

2.00 दोपहर बाद :

अपने पसंदीदा गाने सुन रहा हूँ.

2.30 दोपहर बाद :

दी लिटिल प्रिंस (एक किताब का नाम) पढता हूँ... नोवेसेन्तो( 1976 में बनी इटली के मशहूर फ़िल्मकार बर्तोलुची की फिल्म) का अंतिम एकालाप (मोनोलाग ) पढता हूँ... दी गाड ऑफ़ स्माल थिंग्स(अरुंधती राय का बहुचर्चित उपन्यास) का अंतिम अध्याय फिर से पढता हूँ.

6.00 शाम :

अपने एक दोस्त को फ़ोन मिलाता हूँ...शुक्रिया के बोल बोलता हूँ.

6.30 शाम :

अपने लिए बढ़िया खाना बनाता हूँ,साफ़ सुथरे अच्छे कपडे पहनता हूँ और खुद को बादशाह मान कर बर्ताव करता हूँ.

7.00 शाम :

अपने दुश्मनों के साथ किसी तरह की नरमी नहीं बरतता..अपने खिलाफ किये कृत्यों के लिए किसी को माफ़ नहीं करता..न ही किसी की खुशामद करता हूँ कि मेरे प्रति किसी तरह की मुरव्वत बरते.

7.30 शाम :

तसल्ली से रात का खाना खाता हूँ..आइसक्रीम भी..थोड़ा ठहर कर एक सिगरेट भी पीता हूँ,पर इसका कोई मलाल नहीं.

8.40 रात :

उस फोन नंबर को मिलाता हूँ जो मुझे बखूबी याद तो रहा है पर सालों साल से कभी जिसको मिलाया नहीं था..आंसरिंग मशीन की आवाज सुनाई देती है...पर मैं जवाब में वो कुछ बोलता नहीं जो कहने की इच्छा मन में है.

9.00 रात :

नीना सिमोन ( अमेरिका की बेहद लोकप्रिय अश्वेत गायिका और एक्टिविस्ट) को सुनता हूँ..बार बार सिर्फ नीना सिमोन..

9.30 रात :

उस ढोंगी अंतरिक्ष यात्री के बारे में सोचने लगता हूँ जिसको देखने के लिए उमड़ी भीड़ में मैं भी कभी शामिल हुआ था...उसके कहे शब्द याद आते हैं: ऐसा बंदा होना जिसको कभी ये दुनिया रहने लायक ही नहीं लगी हो...मुझे लगता है कि मैं ऐसा जीवन फिर से नहीं जी पाऊंगा.

10.00 रात :

अपने फ्रिज के ऊपर रखी वो फोटो हटा देता हूँ जिसमें मैं अपने बच्चों के बगल में खड़ा दिख रहा हूँ.

10.05 रात :

रोते रोते सोने की कोशिश करता हूँ.

11.00 रात :

गहरी नींद सो जाता हूँ.

12.00 मध्यरात्रि :

सपने में एक आँख वाला मखमली गद्देदार खरगोश दिखाई देता है..पर मैं खुश हूँ.

(www .mahmag .org से साभार...मूल स्पानी से अंग्रेजी अनुवाद अन्द्रेस अल्फारो का है)

मंगलवार, सितंबर 14, 2010

हमारी हिंदी : रघुवीर सहाय

सभी पाठकों को हिंदी दिवस की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है रघुवीर सहाय की कविता :


हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीबी है

बहुत बोलने वाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली


गहने गढाते जाओ

सर पर चढाते जाओ


वह मुटाती जाये

पसीने से गन्धाती जाये घर का माल मैके पहुंचाती जाये


पड़ोसिनों से जले

कचरा फेंकने को लेकर लड़े


घर से तो खैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता

औरतों को जो चाहिए घर ही में है


एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी

एक नागिन की स्टोरी बमय गाने

और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र

एक खूसट महरिन है परपंच के लिए

एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें

एक गुचकुलिया-सा आंगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक

बिस्तरों पर चीकट तकिये कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े

फ़र्श पर ढंनगते गिलास

खूंटियों पर कुचैली चादरें जो कुएं पर ले जाकर फींची जाएंगी


घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए

सीलन भी और अंदर की कोठरी में पांच सेर सोना भी

और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है

जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है

और ज़मीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा


कहनेवाले चाहे कुछ कहें

हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है

उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे

और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे

तब तो वह अपनी साध पूरी करे ।