शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010
नये साल की शुभकामनाएँ !
सभी को नववर्ष की शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत है सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता :
नये साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की भेड़ों पर धूल-भरे पाँव को,
कुहरे में लिपटे उस छोटे-से गाँव को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
जाते के गीतों को, बैलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं के जाल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस पकती रोटी को, बच्चों के शोर को,
चौंके की गुनगुन को, चूल्हे की भोर को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
वीराने जंगल को, तारों को, रात को,
ठण्डी दो बन्दूकों में घर की बात को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को,
सिगरेट की लाशों पर फूलों-से ख्याल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को,
हर नन्ही याद को, हर छोटी भूल को,
नये साल की शुभकामनाएँ!
उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे,
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे,
नये साल की शुभकामनाएँ!
बुधवार, दिसंबर 22, 2010
कल नहीं रहेगी देह
नहीं रहेगी देह
अधूरे स्वप्न भी झर जाएँगे
एक तारा टूटेगा
मगर आकाश भरा रहेगा
आकाशगंगाओं से
अप्रतिहत घूमती रहेगी धरती
अपनी धुरी पर
अक्षाशों और देशान्तरों के माथे पर
एक शिकन तक न आएगी
घर से आखिरी बार निकलेंगे
तैयार होकर
अपनी मौलिक बेचैनियों को
विराम देते हुए।
बुधवार, दिसंबर 15, 2010
औरतें : नाज़ी कवियानी (अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र)
औरतें
मेरे अंदर छुपी हुई है एक मासूम नन्हीं सी बच्ची
मुश्किल में दिलासा देने वाली
शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010
सीढ़ियों पर बैठा पहाड़ : अश्वघोष
सीढ़ियों पर बैठा पहाड़
नींद में डूब जाएगा थका-हारा गाँव
लेकिन रात भर जागेगा पहाड़
बैठा रहेगा सीढ़ियों पर
पहाड़ को पता है कि कभी भी
बुला सकते हैं उसे बच्चे
दोस्त की भाँति
अपने सपनों में
कि रात में किसी भी वक्त
चन्द्रमा माँग सकता है उससे अपनी चाँदनी
पहाड़ को पता है कि चलते-चलते
उसी की जेबों में रख गये हैं
पक्षी अपनी आवाज
फूल अपनी खुशबू
पेड़ अपने फल
झरने अपनी मिठास और
नदियाँ अपनी आँखें
पहाड़ को पता है कि भोर होते ही
सभी को लौटानी होंगी
उनकी धरोहरें।
काठ का घोड़ा
बुधिया ने बनाया
काठ का घोड़ा
घोड़े पर बैठेगा
मंत्री का बेटा
घोड़े को तरसेगा
संतरी का बेटा
घोड़े पर बैठेगा
दरोगा का बेटा
घोड़े को मचलेगा
कैदी का बेटा
घोड़े पर बैठेगा
सेठ का बेटा
घोड़े को रोएगा
मजूर का बेटा
बुधिया ने तोड़ दी
घोड़े की काठी
आरी से काट दी
घोड़े की गरदन
मार दिया पैरों पर
वजनी हथोड़ा
मिट्टी में मिला दिया
काठ का घोड़ा।
गुरुवार, नवंबर 25, 2010
नींद से लम्बी रात : नवीन सागर
इस घर में
इस घर में घर से ज़्यादा धुआँ
अँधेरे से ज़्यादा अँधेरा
दीवार से बड़ी दरार।
इस घर में मलबा बहुत
जिसमें से साँस लेने की आवाज़ लगातार
आलों में लुप्त ज़िंदगियों का भान
चीज़ों में थकान।
इस घर में सब बेघर
इस घर में भटके हुए मेले
मकड़ी के जालों में लिपटे हुए
इस घर में
झुलसे हुए रंगों के धब्बे
सपनों की गर्द पर बच्चों की उँगलियों के निशान।
इस घर में नींद से बहुत लम्बी रात।
हम बचेंगे अगर
एक बच्ची
अपनी गुदगुदी हथेली
देखती है
और धरती पर मारती है
लार और हँसी से सना
उसका चेहरा
अभी इतना मुलायम है
कि पूरी धरती
थूक के फुग्गे में उतारे है।
अभी सारे मकान
काग़ज़ की तरह हल्के
हवा में हिलते हैं।
आकाश अभी विरल है दूर
उसके बालों को
धीरे-धीरे हिलाती हवा
फूलों का तमाशा है
वे हँसते हुए
इशारे करते हैं:
दूर-दूरान्तरों से
उत्सुक काफ़िले
धूप में चमकते हुए आएँगे।
सुंदरता!
कितना बड़ा कारण है
हम बचेंगे अगर!
जन्म चाहिए
हर चीज़ को एक और
जन्म चाहिए।
शुक्रवार, नवंबर 12, 2010
हमारे बच्चे
हमारे बच्चे
हमारे बच्चे भी चलते हैं ठुमक-ठुमक
उनकी भी पैंजनियाँ मधुर बजती हैं
हमारे बच्चे भी चुराकर करते हैं तिलगुड़ी
हमारे बच्चे भी तोड़ते हैं खिलौने, सलेट, धनुष
मगर हमारे बच्चों की लीलाएँ देखकर
कवि उपमाएँ नहीं गढ़ते
देवता पुष्पवर्षा नहीं करते।
स्कूल जाता बच्चा
स्कूल जा रहा है बच्चा
कन्धे पर लदा है बस्ता
जिसमें भरी हैं
दर्जन भर किताबें
और पिता की आकांक्षाएँ
पिता-
जो किसान की तरह
पकती फसल देखकर
सुखी-चिन्तित हैं।
स्कूल जा रहा है बच्चा
अपने गुजरे बचपन की स्मृतियों में
सख्त मनाही है बच्चे को
बचपना दिखाने की।
मगर कहीं भी
कभी भी वह
निकालेगा कापी या किताब कोई
फाड़ेगा पन्ना
बनाएगा जहाज
और उड़ा देगा
आकाश को लक्ष्य कर।
गुरुवार, नवंबर 04, 2010
फूल को कुचल डालने का समय आ गया है : सिमीं बहबहानी
फूल को कुचल डालने का समय आ गया है
सोमवार, नवंबर 01, 2010
स्मरण : योगेश छिब्बर
तितली
तितली जब भी उड़ेगी
किसी फूल की तरफ उड़ेगी
तितली जब भी उतरेगी
किसी फूल पर उतरेगी
तितली जब भी नष्ट होगी
कहीं फूलों के बीच नष्ट होगी
उसे जीना आता है
उसे मरना आता है।
चिड़िया बम नहीं बनाएगी
चिड़िया को भी खतरा है
लंबे डैनों वाले बाज से
उसके बच्चों को खतरा है
भूखे काले नाग से
उनका घोंसला डरता है
शैतान लड़कों के हाथ से
मगर चिड़िया बम नहीं बनाएगी
चिड़िया के भी दुश्मन हैं
मगर वह बम नहीं बनाती
चिड़िया की किसी पीढ़ी में
बुद्ध ने जन्म नहीं लिया
चिड़िया के संसार में
कोई ईसा नहीं हुआ
फिर भी
इतने दुश्मनों और इतने खतरों के बीच
चिड़िया ऐसे जीती है
जैसे उसे समझ आ गए हों
बुद्ध और ईसा
कल बच्चे हैरान होंगे
सोचेंगे
यह चिड़िया सुरक्षित कैसे है
बम के बिना जिये जाती है
उड़ती है
गाती है
बार-बार घोंसला बनाती है
जिसमें न कोई चारदीवारी है
न काँटेदार तारें
न कोई लाठी वाला चैकीदार
जिन्दा रहने की तमीज नहीं चिड़िया को
कुछ बच्चे सोचेंगे
चिड़िया ‘एब्नाॅर्मल’ होती है
दुश्मनों के होते हुए
बम की नहीं सोचती
मगर चिड़िया नहीं सोचेगी
वह बम नहीं सोचेगी
वह युद्ध नहीं सोचेगी
चिड़िया आदमी नहीं है।
कुछ क्षणिकाएँ
1.
सुख यह नहीं
कि जीवन में तुम भी हो
सुख यह है
कि जीवन में तुम ही हो।
2.
न उतने हो
न इतने हो
तुम अपनी प्यास जितने हो।
3.
लो, तुम्हारे भीतर रखता हूँ
खरे विचार की चिनगारी
अब आग जले
तुम्हारी जिम्मेदारी।
सोमवार, अक्तूबर 25, 2010
रेड इंडियन कविता (४) : जिमी डरहम
चेरोकी जनजाति में जन्मे कवि, शिल्पकार और गायक जिमी डरहम का जन्म 1940 में अरकंसास में हुआ। अमेरिका के मूल निवासियों के प्रति अमेरिका की खोज से अब तक हो रहे अमानुषिक अत्याचारों की पीड़ा उनकी कविताओं का प्रतिपाद्य रहा है।
कोलंबस दिवस
स्कूलों में हमें पढ़ाये गये थे नाम -
कोलम्बस, कार्टेज़ और पिज़ारो
तथा दर्जन भर और दुष्ट हत्यारों के
खून की एक रेखा जाती हुई जनरल माइल्स
डेनियल बून और जनरल आइजनहाॅवर तक।
किसी ने नहीं बताये थोड़े से भी नाम
उनके शिकारों के, पर क्या तुम्हें नहीं है याद चास्के की
कुचल दी गयी थी जिसकी रीढ़
कितनी फुरती से श्रीमान पिजारो के बूटों तले ?
धूल में निकलेथे कौन से शब्द उसके मुँह से ?
क्या था जाना-पहचाना नाम
उस जवान लड़की का जो करती थी ऐसे मनोहारी नृत्य कि
गाने लगताथा समूचा गाँव उसके साथ
उसके पहले जब काॅर्टेज़ की तलवार ने
काटकर अलग कर दी थीं उसकी बाँहें
जब उसने किया था प्रतिरोध
जलाये जाने का अपने प्रेमी को।
उस युवक का नाम था बहुकृत्य
जो नेता था उस लड़ाकू टोली का
कहते थे जिसे लाल-छड़ी-चहकते पंछी
जिन्होंने धीमी कर दी थीं बढ़त की रफ्तार
काॅर्टेज की सेना की महज
थोड़े से भाले और पत्थरों से
जो अब पडे़ हैं निश्चेष्ट पहाड़ों में
और करते हैं महज याद
हरिज चट्टान देबी नाम था उस वृद्धा का
जो सीधे चलकर पहुँची थी कोलम्बस तक और
थूक दिया था उसके मुँह पर
हम याद करें उस हँसमुख
आॅट्टर टैनों को जिसने की थी कोशिश
रोकने की कोलम्बस की राह जिसे
उठा ले जाया गया था बतौर गुलाम के
फिर नहीं देख पाये जिसे हम फिर कभी।
स्कूल में सुने थे हमने बहादुराना
खोजों के किस्से
गढ़े थे जिन्हें झूठे और मक्कारों ने
लाखों सुशील और सच्चे लोगों के
साहस के कभी नहीं बनाये गये स्मृति-चिह्न।
आओ जब आज ऐलान करें
एक छुट्टी का अपने लिए और
निकालें एक जुलूस/शुरूआत हो
जिसकी कोलंबस के शिकारों से
और जो चले हमारे नाती-पोतों तक
जिनके किये जाएँगे नामकरण
उनके सम्मान में।
क्या नहीं है सच यह कि
बसंत की घास तक इस धरती की
लेती है आहिस्ते से उनके नाम
और हर चट्टान ने ली है जिम्मेदारी
गाने की उनकी गाथा
और कौन रोक सकता है
हवा को गुँजाने से उनके नाम
स्कूलों के कानों में ?
नहीं तो क्यों गाते यहाँ के पंछी
इतने सुरीले गीत
कहीं अधिक है जिनकी मिठास
दूसरी जगहों के
पंछियों के गाने से।
* पहल पुस्तिका से साभार, अनुवाद: वीरेन्द्र कुमार बरनवाल
रविवार, अक्तूबर 17, 2010
खण्डहर
सोमवार, अक्तूबर 11, 2010
वैज्ञानिक और धर्म: निराला (कवि का गद्य)
विज्ञान और धर्म में परस्पर विरोध हो या न हो, यह तो निश्चित है कि सृष्टि के सम्बन्ध में दोनों यह स्वीकार करते हैं कि सृष्टि के उपरान्त स्थिति और संहार फिर संहार स्वयंसिद्ध है।
सृष्टि, स्थिति और संहार, नियति का यही सनातन चक्र है। सभी पदार्थों का यही अनुक्रम है, इससे किसी की भी मुक्ति नहीं। इसी नियम के कारण जो आता है, वह जरूर जाता है, जो उत्पन्न होता है, वह कालकवलित अवश्य होता है, जो पुष्पित होता है, वही मुरझाता है। इसी चक्र के फेरे से कहीं आनन्द है तो कहीं हाय-हाय! कही हँसना है, तो कही रोना! कहीं जागृति है, तो कहीं सुषुप्ति! उत्पत्ति, विकास और अवसान, यही विश्व की कहानी हैं, यही जैविक विकास का कारुणिक इतिहास है, यही विज्ञान और धर्म की पुकार है, यही इनके अनुसंधानों का एक निष्कर्ष, एक निर्णय है।
सृष्टि, स्थिति और संहार इसके भीतर कितना रहस्य निहित है, यही समझने की धर्म और विज्ञान चेष्टा करते हैं और इसी चेष्टा में लगे रहने से इन पर भी नियति का आक्रमण हो जाता है। ये भी उत्पत्ति और अवसान के चक्कर में जा पड़ते हैं। एक समय में धर्म की अभिवृद्धि होती है, दूसरे में विज्ञान की। कभी एक का विकास होता है, तो कभी दूसरे का अवसान। आधुनिक युग में धर्म के प्रति बहुतों की अश्रद्धा हो चली है और बहुत से तो धर्म को धकियाकर ईश्वर का भी बहिष्कार करने के हेतु तत्पर हैं। इस धर्म और ईश्वर के बायकाट की आवाज इधर रूस से उठी है। यों तो नास्तिकों का प्रादुर्भाव बहुत पहले हो चुका है, पर इधर कुछ वर्षों से नास्तिकता की लहरें बहुत ऊँची उठ रही हैं। रूस ने जहाँ राजनीतिक विचारों में तूफान उठा दिया है, वहाँ वह धर्म के समुद्र को भी उद्वेलित करने से नहीं चूका। वह पुराने सामाजिक आधारों को चित्त करके ही सन्तुष्ट नहीं है, वह धर्म को इन सामाजिक बन्धनों का जनक और आलम्ब समझ इसे ही चैपट करने पर तुला बैठा है। ईश्वर की सर्वज्ञता और व्यापकता को वह नहीं समझता। यदि समझता भी है, तो पण्डे, पुजारियों को धर्मान्धों की वंचकता समझता है। सम्भवतः रूस की दृष्टि में ईश्वर विषमता का द्योतक है, अतः साम्यवाद, घोर साम्यवाद के इस युग में ईश्वर की स्थिति पर वह भला कैसे विश्वास कर सकता है?
आधुनिक नास्तिकवाद के विकास में वैज्ञानिकों का भी बहुत कुछ हाथ है, ऐसा अधिकांश जनता का विश्वास है। धार्मिकों ने खुदा की ढूँढ़ की थी, वैज्ञानिकों ने खुदाई की ढूँढ की थी इनकी खोजों ने मनुष्य के अहभाव को बहुत कुछ बढ़ा दिया है। परन्तु अभी यह भाव वहाँ तक नहीं पहुँचा है, जहाँ वेदान्ती पहुँच चुके हैं। धार्मिकों की खोज वेदान्तियों के सिद्धान्तों के साथ, विशेषतः अद्वैतमतानुयायियों के सिद्धान्तों के साथ पूरी हो चुकी है और वैज्ञानिकों की खोज अभी जारी है। धार्मिकों ने ईश्वर की सत्ता को माना है, अद्वैतवादियों ने उस सत्ता को अपने से अभिन्न समझा है। वे खुदा से खुद में आये हैं, उनके लिए खुदाई कोई दूसरी वस्तु नहीं, खुदी ही खुदाई है। वैज्ञानिकों ने खुदाई की परीक्षा प्रारम्भ कर दी है। वे खुदी की ओर बढ़ रहे हैं या खुदा की ओर, यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। हाँ, यह जानने को सब उत्सुक अवश्य रहते हैं कि वैज्ञानिक खुदा को मानते हैं या नही?
हाल में विलायत की एक संस्था ने, जिसका नाम क्रिश्चिन एविडेंस सोसाइटी है, यह जानने के लिए कि वैज्ञानिकों के धर्म के प्रति क्या विचार हैं, कुछ प्रश्न संसारविख्यात राॅयल सोसाइटी के सदस्यों के पास भेजे थे और उनसे यह प्रार्थना की थी कि वे निर्भीकतापूर्वक अपने विचार प्रकट करें। वैज्ञानिकों ने उन प्रश्नों के जो उत्तर दिए हैं, वे बड़े ही मनोरंजक हैं।
पहला प्रश्न था - ‘क्या आप ईश्वरीय साम्राज्य पर विश्वास करते हैं?’ इसके उत्तर में कुछ वैज्ञानिकों ने ‘हाँ’ कहा, कुछ ने ‘नहीं’। परन्तु मजे की बात यह है कि ‘नहीं’ कहनेवालों से ‘हाँ’ कहनेवालों की संख्या दस गुना अधिक थी।
दूसरा प्रश्न था - ‘क्या मनुष्य किसी अंश में स्वकार्यों के लिए उत्तरदायी है?’ इसके उत्तर में अधिकतर सदस्यों का यह मत था कि ‘मनुष्य अपने कृत्यों के लिए पूर्णतया उत्तरदायी है।’
तीसरा प्रश्न था - ‘सृष्टिवाद और विकासवाद में परस्पर समन्वय है, या दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं?’ इसके उत्तर में रोंयल सोसाइटी के अधिकांश सदस्यों का मत है कि, दोनों में असंगति नहीं, विकास रीति या प्रक्रिया का द्योतन करता है, सृष्टि कर्तृत्वक्रम को लक्षित करती है।’
चैथा प्रश्न था- ‘क्या भौतिक विज्ञान संसार और सगुण ईश्वर की भावना का तिरस्कार करता है?’ इसके उत्तर में आधे से अधिक सदस्य कहते हैं कि ‘नहीं’, यह बात नहीं है।’
पाँचवाँ प्रश्न था - ‘क्या आप मृत्यु के उपरान्त भी जीव की स्थिति मानते हैं?’ इस प्रश्न पर बहुत से सदस्यों ने तो यह लिख भेजा कि ‘इस विषय में वे न ‘हाँ’ कह सकते हैं, न ‘ना’ क्योंकि उनके पास कुछ अनुभूत प्रमाण नहीं।’ पर कई सदस्यों ने निर्भीकता से यह उत्तर दिया कि ‘वे मृत्यु के उपरान्त भी जीव की स्थिति मानते हैं।’
छठा और अन्तिम प्रश्न था- ‘क्या वैज्ञानिक धार्मिक होते हैं?’ इसके उत्तर में बहुत से सदस्यों ने कहा, ‘वे उतने ही धार्मिक हैं, जितना और मनुष्य।’
इस प्रश्नोत्तरी से यह पता चलता है कि आधुनिक वैज्ञानिक धर्म के विरोधी नहीं हैं, पाखण्ड के विरोधी भले ही हों।
अतः जनता में जो यह मत फैला है कि वैज्ञानिक नास्तिकवाद के फैलाने में बहुत कुछ सहायक हुए हैं, भ्रमपूर्ण है। आजकल जिस दिशा में विज्ञान बढ़ रहा है, वह धार्मिक भावनाओं के लिए हानिकारक नहीं, प्रत्युत सहायक है। आधुनिक वैज्ञानिकों की ‘ततः किं’ - वृत्ति उन्हें उस अनन्त के परिज्ञान की ओर खींच रही है, जो धर्म का प्राण है। अणु, परमाणु, जीवाणु की व्याख्या धर्म भी कर चुका है, ऐटम, मोलीक्यूल, इलेक्ट्राॅन को लेकर वैज्ञानिक भी तर्कणा करते हंै। इलेक्ट्राॅन की व्याख्या प्रो0 आइंस्टाइन ने ‘सेंटर फार डिस्टरबेंस’ कहकर की है, परन्तु इतने से वे सन्तुष्ट नहीं हुए। वास्तव ने अनन्त की जिज्ञासा भी अनन्त ही की भाँति असीमित है, इसके विभिन्न क्षेत्र हैं। साधारण मनुष्य के लिए जिस प्रकार दार्शनिक के भाव समझने कठिन हैं, उसी प्रकार वैज्ञानिक के भी। वह केवल यही समझता है कि सृष्टि, स्थिति और संहार नियति के चक्र का परिचय देते हैं। वह अधिक जानने का न प्रयास करता है, न जानना ही चाहता है। क्योंकि इस विषय में अधिक खोज करने से उसका सुखमय स्वप्न टूट जाता है। वह इतना ही जानता है कि संसार में ऐसे भी शुभ व्यसनी हैं, जो प्रकृति से उसके सुख के नये नये उपहारों को प्राप्त किया करते हैं और ऐसे भी विश्वप्रेमी हैं, जो उसके लिए आनन्द और समृद्धि की सदिच्छाएँ प्रकट करते रहते हैं और इसी से सन्तुष्ट रहते हैं। उनके लिए वैज्ञानिक और धार्मिक, प्रकृति के परीक्षक और प्रभु के पर्यालोचक, दोनों एक ही सन्देश भेजते हैं और वह सन्देश सरल होते हुए भी गहन है, छोटा होते हुए भी महत्त्वपूर्ण हंै, सहज होते हुए भी असाधारण है। सृष्टि, स्थिति और लय, आदि, मध्य, अवसान, उत्पत्ति, पालन और संहार- यही तो विधाता का खेल है जिसे धर्म लीला कहता है, आधुनिक विकासवाद में भी इसी की प्रतिध्वनि हो रही है, ज्ञान और विज्ञान दोनों परस्पर निकट आ रहे हैं - दोनों का क्षेत्र बहुत कुछ एक हो चला है। पुरातनकाल में दार्शनिक भी वैज्ञानिक होते थे। जो ऋषि थे, जो प्रभु को देखते थे, वे ही प्रकृति को भी समझते थे। इस युग में भी वह समय आ रहा है, जब प्रकृति को समझनेवाले वैज्ञानिक ही प्रभु के देखनेवाले दार्शनिकों में परिवर्तित हो जाएँगे। ज्ञान और विज्ञान में ‘वि’- मात्र का भेद है, यह ‘वि’ अब विलुप्त होना चाहती है। इसके विनष्ट होते ही ज्ञान की शुभ्र छवि स्पष्ट हो जाएगी, इसमें सन्देह नहीं। यह स्वर्ण अवसर जितना ही शीघ्र आवे, उतना ही अच्छा।
रविवार, अक्तूबर 03, 2010
सात फटकार: खलील जिब्रान
मैंने अपनी आत्मा को सात बार फटकार लगायी
पहली बार - उस समय जब कमजोर लोगों का शोषण कर
स्वयं को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया
दूसरी बार - जब मैंने उन तमाम लोगों के सामने पंगु होने का स्वांग किया
जो सचमुच पंगु थे
तीसरी बार - जब मुझे चयन करने का अवसर मिला
और कठिन को छोड़कर सरल को अपना लिया
चैथी बार - जब मैंने गलती की और दूसरों की गलती से
स्वयं को सांत्वना दी
पाँचवीं बार - जब मैं भय के कारण विनम्र हो गया था
और दावा किया था धैर्यवान होने का
छठी बार - जब कीचड़ से बचने के लिए मैंने
अपना लबादा ऊपर उठा लिया था
सातवीं बार - जब मैं प्रार्थना की पुस्तक लेकर
ईश्वर के सामने आ खड़ा हुआ और प्रार्थनागान को ही महान गुण समझ बैठा।
गुरुवार, सितंबर 23, 2010
समय के साथ गुमा गयीं बहुत-सी चीजें...
समय के साथ
गुमा गयीं बहुत-सी चीजें...
समय के साथ
गुमा गया वह जंगल
जिससे आसमान दिखायी नहीं देता था
गुमा गया
बुरे दिनों का उजाला
जिसकी जगह ले ली
उजले दिनों के अँधेरों ने
गुमा गया बेरी का वह बाग
वह कुआँ
जिसमें सारी पोथियाँ फेंक दी थीं
अनुभव के शास्त्र तले दबी
उस बच्चे की सिसकियाँ
गूँजती हैं
दिमाग के खोखलेपन में
समय के साथ
गुमा गयीं छोटी-छोटी चिन्ताएँ
उनकी जगह ले ली बड़ी-बड़ी चिन्ताओं ने
जो लगातार खाती हैं
और लुभाती हैं
समय के साथ
गुमा गयीं
माँ-बाप की हिदायतें
बुजुर्गों की नसीहतें
और
अपने एकान्त में बड़बड़ाती घर की देहरी
समय के साथ
गुमा गया
मेरा चेहरा, जिसे मैं पहचानता था
उसकी जगह है ऐसा चेहरा
जिसे दुनिया पहचानती है
समय के साथ गुमा गया वह सुख
जो उदासी से जन्मा था
अब चारों ओर से घिरा हूँ
सुख से उपजी उदासी से
समय के साथ
गुमा गयीं बहुत-सी चीजें
यात्रा में पीछे छूटे
सहयात्रियों की विदाई की मुसकान की तरह।
गुरुवार, सितंबर 16, 2010
मेरे जीवन का आखिरी दिन : कवि का गद्य - फेलिपे ग्रानाडोस
इसके बाद आस पास पाँव पसार कर ठहर गयी ख़ामोशी में समायी हुई हैं जाने कितनी कितनी बातें...इसी बीच फ़ोन की घंटी बजती है और फ़ोन के दूसरे सिरे पर उपस्थित मुझे खूब प्यार और मेरी फ़िक्र करने वाला व्यक्ति बड़ी सावधानी से इन बातों को शब्द देने की कोशिश करता है... मुमकिन बिलकुल ही नहीं लगता...इन बातों को दरअसल खूबसूरत अंदाज में बयान करना संभव ही नहीं है.
मैं अब मरने की तय्यारी कर रहा हूँ.
मेरे जीवन का आखिरी दिन सुबह जल्दी शुरू होना चाहिए...खूब जल्दी...मैं कोशिश करता हूँ कि जीवन एक तरतीब में बंधे...साथ ही व्यावहारिक भी लगे...पर सच तो ये है कि असल जीवन में इन दो प्रवृत्तियों से मेरी नजदीकी कभी नहीं रही...चलो फिर से एक बार कोशिश कर के देखता हूँ...एक बार और...आखिरी बार .
7.30 सुबह :
लिख कर दर्ज रहा हूँ कि मेरे लिए कोई भी ऐसा पारंपरिक अनुष्ठान आयोजित न किया जाये जिसमें शामिल हो किसी ज्ञात देवता का हाथ ...उन्हें ये मालूम होना चाहिए कि जिस रात मैंने ईश्वर की हत्या कर दी उस रात मेरा मन बहुत शांत और निश्चिन्त हो गया ...मैं किसी बच्चे की तरह सरल बन कर रात भर सोया ...मुझे न तो नरक का खौफ था और न ही स्वर्ग का...मेरे लिए तो साहित्य -या यूँ कहें कि किताबें और लेखन -वो सब कुछ देने और तृप्त कर देने वाला साधन है जो दूसरे तमाम लोगों को लगता है कि सिर्फ ईश्वर ही दे सकने में सक्षम है...चाहे सुख हो या उम्मीद या फिर दंड ही क्यों न हो...इससे कम से कम ये तो बखूबी समझाया जा सकता है कि जीवन कितना निरर्थक बीता. .
8.00 सुबह :
मैं अपनी अंत्येष्टि की तय्यारी करता हूँ...मेरे शरीर को तीन भागों में विभाजित कर के वैसे तीन स्थानों पर डाल दिया जाये जहाँ जा कर मैं हमेशा ख़ुशी महसूस करता था:इराजू ज्वालामुखी पर,उस जगह पर जहाँ धरती पर जन्म लेते ही मैं पहले पहल घर में रहा और तीसरा बंदरगाह पर.
8.20 सुबह :
एक कप काफी और कई कई सिगरेट...मैं अपने आप से वायदा करता हूँ कि आज ठीक ग्यारह बजे मैं सिगरेट पीना छोड़ दूंगा...अपना ये वायदा मैं निभाऊंगा जरुर..मैं अनेकानेक चीजों के बारे में सोचना ही छोड़ दूंगा..चाहे वो काफी का प्याला हो या सिगरेट..किसी ने कहा भी है: अतीत के सुहाने ख्यालों में खोये रहना एक बेहूदा सा शौक है.
8.30 सुबह :
मुझे रुलाई छूट रही है...बार बार..पर मैं अपने सारे काम किये जा रहा हूँ...बाथरूम में शावर के नीचे नहाते हुए,शेव करते हुए,अंतिम बार साफ सुथरी अंडरवीअर पहनने का सुख भोगते हुए भी मैं निरंतर रोते जा रहा हूँ...साथ साथ सामने रखे आईने में देखते हुए ये महसूस करने की कोशिश कर रहा हूँ कि देखूं मरा हुआ आदमी जब रोता है तो उसका चेहरा कैसा दिखता है.
9.00 सुबह :
अपना मुंह धोता हूँ..फिर घर से निकल पड़ता हूँ कि नाश्ता अपने बच्चों के साथ करूँगा...जुआन और लूसी के साथ. उन्हें हौले से चूमता हूँ और बाहर निकल पड़ता हूँ.
10.00 सुबह :
बिना भूले अपनी दवाई की गोली खाता हूँ..हांलाकि अब उनका कोई असर नहीं होता...महज एक काम है गोली खाने का सो खा लेता हूँ...ये बिलकुल बेतुका सा फालतू काम है फिर भी इसका करते हुए जाने कैसी ख़ुशी सी महसूस करता रहता हूँ.
10.20 सुबह :
सैन जोस पहुँचता हूँ.धीरे धीरे चलते हुए सेन्ट्रल मार्केट के फूल बाजार तक आता हूँ..इस वक्त कुछ और नहीं सिर्फ फूलों के बारे में सोच रहा हूँ.
10.40 सुबह :
एक अजनबी के पास आ कर बैठ जाता हूँ और बेसिर पैर की बातें छेड़ देता हूँ..उस से पूछता हूँ कि उसको फुटबाल,राजनीति और लातिन अमेरिकी आदर्शपुरुष (आइडल) में से सबसे ज्यादा कौन पसंद है...पर जवाब के अनुसार उसके बारे में कोई राय बनाने के चक्कर में बिलकुल नहीं पड़ता...न ही उसके जवाबों से मुझे कोई ख़ास ख़ुशी होती है...मैं दरअसल कुछ सोचता ही नहीं.
10.45 सुबह :
अपना मनपसंद समुद्री आहार ढूंढ़ता हूँ और मिल जाने पर सूप और श्रिम्प का आर्डर देता हूँ.
11.30 दोपहर :
अपनी माँ को फ़ोन लगाता हूँ और शुक्रिया के दो शब्द बोलता हूँ.
11.45 दोपहर :
अपने वायदे के मुताबिक सिगरेट पीना छोड़ देता हूँ...थोड़ी देर से ही सही पर अंत में अपना वचन पूरा करने का संतोष होता है..अपने घर वापस लौट आता हूँ.
12.00 दोपहर :
ठीक बारह बजे रेडियो पर समाचार लगाता हूँ..उस समय पेरी कोमो का गाया वही गीत बज रहा है जिसको सुनते ही मुझे अपना बचपन याद आ जाता है और ये भी कि मैं स्कूल की ड्रेस पहन के इसको गाया करता था.
12.45 दोपहर :
अपना एक अधूरा छूटा हुआ लेख पूरा करता हूँ.
1.00 दोपहर बाद :
रुक रुक कर फिर छूट रही है रुलाई..अपने काल्पनिक दोस्तों के बारे में सोचते हुए जोर जोर से हँसता हूँ....काश,अपने बिस्तर पर लेटे लेटे जुआन और लूसिया के साथ इस तरह ठहाके लगा पाता.
2.00 दोपहर बाद :
अपने पसंदीदा गाने सुन रहा हूँ.
2.30 दोपहर बाद :
दी लिटिल प्रिंस (एक किताब का नाम) पढता हूँ... नोवेसेन्तो( 1976 में बनी इटली के मशहूर फ़िल्मकार बर्तोलुची की फिल्म) का अंतिम एकालाप (मोनोलाग ) पढता हूँ... दी गाड ऑफ़ स्माल थिंग्स(अरुंधती राय का बहुचर्चित उपन्यास) का अंतिम अध्याय फिर से पढता हूँ.
6.00 शाम :
अपने एक दोस्त को फ़ोन मिलाता हूँ...शुक्रिया के बोल बोलता हूँ.
6.30 शाम :
अपने लिए बढ़िया खाना बनाता हूँ,साफ़ सुथरे अच्छे कपडे पहनता हूँ और खुद को बादशाह मान कर बर्ताव करता हूँ.
7.00 शाम :
अपने दुश्मनों के साथ किसी तरह की नरमी नहीं बरतता..अपने खिलाफ किये कृत्यों के लिए किसी को माफ़ नहीं करता..न ही किसी की खुशामद करता हूँ कि मेरे प्रति किसी तरह की मुरव्वत बरते.
7.30 शाम :
तसल्ली से रात का खाना खाता हूँ..आइसक्रीम भी..थोड़ा ठहर कर एक सिगरेट भी पीता हूँ,पर इसका कोई मलाल नहीं.
8.40 रात :
उस फोन नंबर को मिलाता हूँ जो मुझे बखूबी याद तो रहा है पर सालों साल से कभी जिसको मिलाया नहीं था..आंसरिंग मशीन की आवाज सुनाई देती है...पर मैं जवाब में वो कुछ बोलता नहीं जो कहने की इच्छा मन में है.
9.00 रात :
नीना सिमोन ( अमेरिका की बेहद लोकप्रिय अश्वेत गायिका और एक्टिविस्ट) को सुनता हूँ..बार बार सिर्फ नीना सिमोन..
9.30 रात :
उस ढोंगी अंतरिक्ष यात्री के बारे में सोचने लगता हूँ जिसको देखने के लिए उमड़ी भीड़ में मैं भी कभी शामिल हुआ था...उसके कहे शब्द याद आते हैं: ऐसा बंदा होना जिसको कभी ये दुनिया रहने लायक ही नहीं लगी हो...मुझे लगता है कि मैं ऐसा जीवन फिर से नहीं जी पाऊंगा.
10.00 रात :
अपने फ्रिज के ऊपर रखी वो फोटो हटा देता हूँ जिसमें मैं अपने बच्चों के बगल में खड़ा दिख रहा हूँ.
10.05 रात :
रोते रोते सोने की कोशिश करता हूँ.
11.00 रात :
गहरी नींद सो जाता हूँ.
12.00 मध्यरात्रि :
सपने में एक आँख वाला मखमली गद्देदार खरगोश दिखाई देता है..पर मैं खुश हूँ.
(www .mahmag .org से साभार...मूल स्पानी से अंग्रेजी अनुवाद अन्द्रेस अल्फारो का है)