(और अब उदयन के बाद सीधे कुमार विकल ...)
यह कौन है—जो अल सुबह
अख़बार के पन्नों में मुझको दीख जाता है
जो चाय की पहली प्याली से
रात की अंतिम क्रिया तक
मेरी दिनचर्या में लगभग दनदनाता है।
यह कौन है जो—
नित नई मुद्रा में मुझको
नित नये आदेश देता है
और ट्रैफ़िक के नये नियम सिखाता है
कि दायें मत चलो
कि बायें मत चलो
सड़क के बीच में साइकिल चलाना ही सुरक्षित है।
मगर मैं जन्म से बायाँ—
जो बायें हाथ से खाता हूँ
बायें हाथ से लिखता हूँ
बायें हाथ से जीवन के सारे काम करता हूँ
और बायें ही किनारे आज तक साइकिल को चलाया है।
यह संभव है,बिना अभ्यास के मैं जब कभी सड़क के बीच में साइकिल चलाऊंगा,
किसी फौजी गाड़ी के तले कुचला जाऊंगा।
ये कौन है जो इस तरह के ट्रैफ़िक की आड़ ले
साधारण आदमी के क़त्ल की साज़िश बनाता है
मगर मातम-सभाओं में झूठे आँसू बहाता है।
यह कौन है—
यह किनका पक्षधर है
मैं सब कुछ जानता हूँ
मैं इसके तेवरों को ठीक पहचानता हूँ
मगर मैं अपने कत्ल से डरता हूँ
और खामोश रहता हूँ।
मगर कोई तो बोलेगा।
भयानक मौत के जंगल का सन्नाटा कोई तो तोड़ेगा
जो अपने होंठ खोलेगा।
आदमी के होंठ जब लंबे समय तक बंद रहते हैं
तो ऐसा वक़्त आता है
कि अपने दाँतों से वह अपने होंठ काट खाता है।
घायल होंठ का वह दर्द तब निश्चय ही बोलेगा—
यह जो नागरिक कपड़ों में फौजी ट्रक चलाता है
उस साज़िश में शामिल है
जो चाहती है
कि पूरी आदमियत से कोई ऐसी बात घट जाए
कि जिससे आदमी का बायाँ हाथ ही कट जाए।
bahut khub.......
जवाब देंहटाएंयह मुझे आज भी वैसे ही रुलाती है, जैसे 25 साल पहले .... यह मेरे पुरखे की आवाज़.परमेन्द्र भाई, इस कविता के लिए आभार!
जवाब देंहटाएं