१३ फ़रवरी का दिन अदबी दुनिया के लिए खासी मनहूसियत से भरा साबित हुआ, जिसने कथाकार विद्या सागर नौटियाल और शहरयार को हमसे छीन लिया. शहरयार की यह ग़ज़लें इन दोनों शख्सियतों को याद करते हुए :
1
अब तुझे भी भूलना होगा मुझे मालूम है
बाद इसके और क्या होगा मुझे मालूम है.
नींद आएगी, न ख्वाब आएँगे हिज्रांरात में
जागना, बस जागना होगा मुझे मालूम है.
इक मकां होगा, मकीं होगा न कोई मुन्तजिर
सिर्फ दरवाज़ा खुला होगा मुझे मालूम है.
आगे जाना, और भी कुछ आगे जाना है मगर
पीछे मुडकर देखना होगा मुझे मालूम है.
ज़िन्दगी के इस तमाशे में किसी इक मोड पर
कोई शामिल दूसरा होगा मुझे मालूम है.
2
बाद इसके और क्या होगा मुझे मालूम है.
नींद आएगी, न ख्वाब आएँगे हिज्रांरात में
जागना, बस जागना होगा मुझे मालूम है.
इक मकां होगा, मकीं होगा न कोई मुन्तजिर
सिर्फ दरवाज़ा खुला होगा मुझे मालूम है.
आगे जाना, और भी कुछ आगे जाना है मगर
पीछे मुडकर देखना होगा मुझे मालूम है.
ज़िन्दगी के इस तमाशे में किसी इक मोड पर
कोई शामिल दूसरा होगा मुझे मालूम है.
2
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है
ये किस मुकाम पर हयात मुझ को लेके आ गई
न बस ख़ुशी पे है जहाँ न ग़म पे इख़्तियार है
तमाम उम्र का हिसाब माँगती है ज़िन्दगी
ये मेरा दिल कहे तो क्या ये ख़ुद से शर्मसार है
बुला रहा क्या कोई चिलमनों के उस तरफ़
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है
न जिस की शक्ल है कोई न जिस का नाम है कोई
इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इंतज़ार है
3
हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है
ये किस मुकाम पर हयात मुझ को लेके आ गई
न बस ख़ुशी पे है जहाँ न ग़म पे इख़्तियार है
तमाम उम्र का हिसाब माँगती है ज़िन्दगी
ये मेरा दिल कहे तो क्या ये ख़ुद से शर्मसार है
बुला रहा क्या कोई चिलमनों के उस तरफ़
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है
न जिस की शक्ल है कोई न जिस का नाम है कोई
इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इंतज़ार है
3
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है
तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है
तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है