शुक्रवार, जुलाई 30, 2010

जर्मन कवि हांस माग्नुस एंत्सेंसबर्गर की कविता-1


छाया-राज्य
एक

यहाँ अब भी मुझे एक स्थान दिखाई देता है
एक मुक्त स्थान,
यहाँ छाया में।

दो
यह छाया
बिक्री के लिए नहीं है।

तीन
समुद्र भी
एक छाया छोड़ता है शायद
और उसी तरह समय भी।

चार
छायाओं के समर
छल हैं
कोई भी छाया
किसी अन्य की रोशनी में नहीं ठहरती।

पाँच
वे जो छाया में रहते हैं
उन्हें मार पाना मुश्किल है।

छह
एक पल के लिए
मैं अपनी छाया से बाहर डग भरता हूँ
एक पल के लिए।

सात
वे जो रोशनी को
यथावत् देखना चाहते हैं
उन्हें छाया में
चले जाना चाहिए।

आठ
सूर्य से भी अधिक द्युतिमान
छाया
स्वाधीनता की शीतल छाया।

नौ
छाया में पूरी तरह
मेरी छाया गायब हो जाती है।

दस
छाया में
अब भी जगह है।

अनुवाद: सुरेश सलिल।

सोमवार, जुलाई 26, 2010

शायरी मैंने ईजाद की (पाकिस्तानी कवि अफजाल अहमद सैय्यद की कविता)


अफजाल अहमद सैय्यद का जन्म गाजीपुर (.प्र.) में सन् 1946 में हुआ। उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं - छीनी हुई तारीख (1984),दो जुबानों में सजा--मौज(1990) तथा रोकोको और दूसरी दुनियाएँ(2000) कविताओं के अलावा उनका एकग़ज़ल-संग्रह’ ‘खेमा--सियाहनाम से प्रकाशित है।

शायरी मैंने ईजाद की
कागज मिराकिश शहर के निवासियों ने ईजाद किया
हुरूफ फोनिश के निवासियों ने
शायरी मैंने ईजाद की

कब्र खोदने वालों ने तंदूर ईजाद किया
तंदूर पर कब्जा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनाई
रोटी लेने वालों ने कतार ईजाद की
और मिलकर गाना सीखा

रोटी की कतार में जब चींटियाँ भी आ खड़ी हो गयीं
तो फ़ाका ईजाद हुआ

शहतूत बेचने वालों ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शायरी ने रेशम से लड़कियों के लिबास बनाये
रेशम में मलबूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने अन्तःपुर ईजाद किया
जहाँ जाकर उन्होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया

फासले ने घोड़े के चार पाँव ईजाद किये
तेज़ रफ्तारी ने रथ बनाया
और जब शिकस्त ईजाद हुई
तो मुझे तेज रफ्तार के आगे लिटा दिया गया

मगर उस वक्त तक शायरी ईजाद हो चुकी थी
मुहब्बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने खेमा और कश्तियाँ बनायीं
और दूर-दराज मकामात तय किये

ख्वाजासरा ने मछली पकड़ने का काँटा ईजाद किया
और सोये हुए दिल में चुभोकर भाग गया
दिल में चुभे हुए काँटे की डोर थामने के लिए
नीलामी ईजाद की
और
जबर ने आखिरी बोली ईजाद की

मैंने सारी शायरी बेचकर आग खरीदी
और जबर का हाथ जला दिया।
(मलबूस = वस्त्र, लिबास। ख्वाजासरा = हरम का रखवाला हीजड़ा। जबर = अत्याचार)

शनिवार, जुलाई 24, 2010

अरुणा राय की कविताएँ


हर मुलाकात के बाद

जो चीज हममें
कामन थी
वो था हमारा भोलापन
और बढता गया वह
हर मुलाकात के बाद
पर दुनिया हमेशा की तरह
केवल सख्तजां लोगों के लिए
सहज थी
सो हमारा सांस लेना भी
कठिन होता गया

और अब हम हैं

मिलते हैं तो गले लग रोते हैं
अपना आपा खोते हैं
फिर मुस्कुराते हंसते
और विदा होते हैं


प्यार में पसरता बाज़ार

सारे आत्मीय संबोधन
कर चुके हम
पर जाने क्यों चाहते हैं
कि वह मेरा नाम
संगमरमर पर खुदवाकर
भेंट कर दे

सबसे सफ्फाक और हौला स्पर्श
दे चुके हम
फिर भी चाहते हैं
कि उसके गले से झूलते
तस्वीर हो जाए एक

जिंदगी के
सबसे भारहीन पल
हम गुजार चुके
साथ-साथ
अब क्या चाहते हैं
कि पत्थर बन
लटक जाएं गले से
और साथ ले डूबें

यह प्यार में
कैसे पसर आता है बाजार
जो मौत के बाद के दिन भी
तय कर जाना चाहता है ...
प्यार एक अफवाह है

प्यार
एक अफ़वाह है
जिसे
दो जिद्दी सरल हृदय
उड़ाते हैं
और उसकी डोर काटने को उतावला
पूरा जहान
उसके पीछे भागता जाता है

पर
उसकी डोर
दिखे
तो कटे

तो
कट कट जाता है
सारा जहान
उसकी अदृश् डोर से

यह सब देख
तालियाँ बजाते
नाचते हैं प्रेमी

और गुस्साया जहान
अपने तमाम सख् इरादे
उन पर बरसा डालता है

पर अंत तक
लहूलुहान वे
हँसते जाते हैं
हँसते जाते हैं

अफ़वाह
ऊँची
और ऊँची
उड़ती जाती है।

शुक्रवार, जुलाई 23, 2010

ब्रेख्त की कविताएँ

(बढ़ती महंगाई और बढ़ती गरीबी ... और शासन की भूमिका ... इस पर सवाल उठाए जाते हैं, उठाए जाने चाहिए। सरकार के अपने तर्क होते हैं जो जाहिर है - पूंजीपतियों के पक्ष में ही खड़े होते हैं। जनता का क्या है, वह तो मुद्रा-स्फीति की दर को कम करने के लिए बलि का बकरा बनती आई है। अपनी सरकार चलाना देश चलाने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो उठता है। बर्तोल्त ब्रेख्त की ये कविताएँ इस संदर्भ में और भी प्रासंगिक हो उठती हैं -)

शासन चलाने की कठिनाइयाँ
- 1 -
मंत्री जनता से बिना रुके कहे जाते हैं
कितना मुश्किल है राज चलाना।
मंत्रियों के बिना
अनाज की बाली ऊपर के बजाय धरती के अन्दर बढ़ने लगेगी
खान से कोयले का एक टुकड़ा भी नहीं निकलेगा
अगर चांसलर इतना होशियार न हो
प्रचार मंत्री के बिना
कोई औरत पैर भारी कराने को राजी नहीं होगी
युद्ध मंत्री के बिना
कोई युद्ध ही नहीं होगा
जी हाँ, सुबह का सूरज उगेगा या नहीं
यह भी तय नहीं है, और अगर उगता भी है,
तो गलत जगह पर।

-2-
इसी तरह मुश्किल है, जैसा कि वे कहते हैं -
कोई कारखाना चलाना / मालिक के बिना
दीवारे ढह जाएँगी और मशीनों में जंग लग जाएगा, कहा जाता है
अगर कहीं कोई हल तैयार भी कर लिया जाए
खेत तक व पहुँच ही नहीं पाएगा, अगर
कारखाने का मालिक किसानों को न बतावे: आखिर
उन्हें पता कैसे चलेगा कि हल बनाए जाते हैं ? इसी तरह
जमींदारों के बिना खेतों का क्या होगा ? बेशक
जहाँ आलू बोया गया हो, उसी खेत में बाजरा छिड़का जाएगा।

- 3 -
अगर राज चलाना आसान होता
फिर महानेता की तरह प्रतिभाओं की जरूरत ही न पड़ती
अगर कामगारों को पता होता कि मशीन कैसे चलाई जाती है
और किसान को अपने खेत का शऊर होता
फिर तो कारखाने के मालिकों और जमींदारों की
जरूरत ही न रह जाती
पर चूँकि वे इतने बेवकूफ हैं
कुछ एक की जरूरत है, जिनके दिमाग तेज हों।

- 4 -
यार फिर बात क्या ऐसी है
कि राज चलाना सिर्फ इसलिए मुश्किल है
क्योंकि लूटना और धोखा देना सीखना पड़ता है।

कलाकार के रूप में सरकार
- 1 -
महल और स्टेडियम बनाने के लिए
काफी धन खर्च किया जाता है
सरकार इस मायने में कलाकार भी होती है, जिसे
भूख की फिक्र नहीं रहती, अगर मामला
नाम कमाने का हो
बहरहाल
जिस भूख की फिक्र सरकार को नहीं
वो भूख दूसरों की है, यानी
जनता की।

- 2 -
कलाकार की तरह
सरकार की भी जादुई ताकत होती है
अगर कुछ न भी बताया जाए
हर बात का पता रहता है उसे
जो कुछ उसे आता है
उसे सीखा नहीं है उसने
उसने कुछ भी सीखा नहीं है
तालीम उसे
कतई कायदे से नहीं मिली, फिर भी अजूबा कि
हर कहीं वो बोल लेती है, हर बात तय करती रहती है
जिसे वो समझ नहीं पाती उसे भी।

- 3 -
कलाकार बेवकूफ हो सकता है और इसके बावजूद
महान् कलाकार हो सकता है
यहाँ भी
सरकार कलाकार की तरह है
कहते हैं रेम्ब्राण्ट के बारे में
ऐसी ही तस्वीरें उसने बनाई होतीं, अगर उसके हाथ न भी रहे होते
वैसे ही
कहा जा सकता है सरकार के बारे में कि उसने
बिना सिर के भी ऐसे ही राज चलाया होता।

- 4 -
मार्के की है
कलाकार की खोज की प्रतिभा
सरकार भी जब
हालत का बखान करती है, कहते हैं लोग
क्या बनाई है बात
अर्थनीति से
कलाकार को सिर्फ नफरत है, उसी तरह
सरकार को भी अर्थनीति से नफरत है
बेशक उसके कुछ मालदार भक्त हैं
और हर कलाकार की तरह
जीती है वह भी, उनसे
पैसे लेकर।
(ये कविताएँ ‘ब्रेख्त एकोत्तर शती’ से साभार ली गई हैं, जिनका अनुवाद उज्ज्वल भट्टाचार्य ने किया है।)

शनिवार, जुलाई 17, 2010

विलिअम स्टेनली मेरविन की कविताएँ


९२७ में जन्मे विलिअम स्टेनली मेरविन अमेरिका के १७ वें राजकवि (पोएटलोरिएट) चुने गए हैं।साठ के दशक में बेहद मुखर युद्ध (विएतनाम) विरोध के लिए तरह तरह की चर्चाओं में आये मेरविन दो बार कविता के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार जीत चुके हैं जिसमें से पहला(१९७१) विएतनाम युद्ध विरोधी अभियानके लिए समर्पित कर दिया।बाद में उनका झुकाव बौद्ध दर्शन की ओर हुआ और इसके प्रभाव में उन्होंने हवाई द्वीप में अपना घर बना लिया...यहाँ रहते हुए प्रकृति के संरक्षण की उनकी चिंता ने मूर्त रूप लिया और वे खुद वर्षावन बचाने के काम में जुट गए।इस दौरान उनकी कविताओं में आधुनिक विकास के बर्बर अभियान के पैरों तले कुचली जा रही बिरासत बचाने की चिंता खूब मुखरहुई है। दो दर्जन से ज्यादा काव्य संकलनों के रचयिता मेरविन की इन्ही चिंताओं को व्यक्त करती हुई चार महत्वपूर्ण और चर्चित कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं। (अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र पाण्डेय)


भाषा
आजकल हमारे इस्तेमाल में आ रहे अनेक शब्द ऐसे हैं जिन्हें हम दोबारा
कभी प्रयोग में नहीं लायेंगे...और न ही हम उन्हें कभी पूरी तरह से
विस्मृत कर पाएंगे.हमें उनकी दरकार है.. किसी चित्र के पृष्ठभाग की तरह
...जैसे हमारे शरीर में हो मज्जा..और रंग जीवित रहें हमारी रगों के
अन्दर.
हम अपनी निद्रा का चिराग जला कर रखते हैं उनकी राहों के बीचों बीच जिससे
ये सुनिश्चित कर पायें कि वे हाजिर हो जायेंगे जब तामील होगी गवाहों
की..कांपते थरथराते हुए ही सही..
हमें जब दफ़न किया जायेगा उनपर भी हमारे साथ ही डाली जाएगी मिट्टी
...पर वे फिर से उठ खड़े होंगे जब उठेंगे बाकी सब के सब.


अभ्यास
सब से पहले यह भूल जाओ
एक घंटे के लिए
कि समय क्या हुआ है
और इसका अभ्यास करना शुरू करो हर दिन.
इसके बाद यह भूलो कि कौन सा दिन है
इसका अभ्यास करते रहो हफ्ता भर
इसके पश्चात् यह भी स्मृति से निकल दो
कि विराजमान हो किस देश में
लोगों के साथ मिल कर
इसका भी रियाज़ करो हफ्ते भर तक.
फिर इन सब को एक साथ जोड़ कर
दुहराते जाओ एक हफ्ता
बीच बीच में थोड़ा विराम दे दे कर.

जब यह लगे कि साध लिया तुमने ये सब
तो जोड़ना और घटाना भूल जाओ
मान लो इनसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला
ऐसे में जब एक हफ्ता गुजर जाए
तो कर डालो इनके क्रम में उलट फेर
इस तरह तुम्हारी स्मृति से चुपके से फिसल जाएगी गिनती.

भूल जाओ गिनती
और इसकी शुरुआत अपनी उम्र से करो
उलटी गिनती से करो
सम संख्याओं से करो
रोमन संख्याओं से करो
रोमन संख्याओं के भिन्नों से करो
पुराने पड़े कलेंडरों से करो
प्राचीन वर्णमालाओं की ओर लौटो
वर्णमालाओं तक लौटो तब तक
जबतक क्रमवार लगने न लगे
सब कुछ सहज पहले जैसा.

भूल जाओ तत्वों को
और इसका शुभारम्भ करो पानी से
इसके बाद चुनो धरती को
फिर पहुँचो आग तक...
यहाँ पहुँच कर आग को पहचानने से इनकार कर दो।


जैसे कोई तितली
ख़ुशी की बड़ी मुश्किल होती है उसका मौका
कुछ बताये बगैर ये अपने घेरे में ले सकती है मुझे
और जब तक चेतूँ ये अंतर्धान भी हो जा सकती है...
ये भी हो सकता है बिलकुल मेरे सामने ही खड़ी हो
और मुझे इसके पहचान न आये
मैं सोचता रह जाऊं किसी और बात की बाबत
यह दूसरा युग हो सकता है या कोई ऐसा इंसान
जिसे न तो बरसों बरस से मैंने देखा हो
और न ही देखने का सबब बने इस जीवन में...
ऐसा लगता है मुझे आह्लादित करने लगी है
ऐसी खुशियाँ जो मंडरा तो मेरे आसपास रही थीं
पर मैं उनसे वाकिफ नहीं था
हाँलाकि इर्द गिर्द होते हुए भी
मेरी पहुँच से बाहर हो सकती थीं वे
फिर इन्हें न तो पकड़ा जा सकता
न ही नाम ले कर पुकारा जा सकता
और न ही वापस बुलाया जा सकता गुहार लगा कर.

मैं अपनी दिली ख्वाहिशों की सुनने लगूँ
और रोक के बिठा लूँ अपने पास
तो मुमकिन है..यह ख़ुशी
हाँ...यही ख़ुशी
रूप बदल कर
बन जाए पीड़ा॥

भूली बिसरी भाषा
वाक्यों को पीछे छोड़ आगे बढ़ चुकी सांस
अब दुबारा कभी नहीं लौटेगी
फिर भी बड़े बूढ़े उन बातों को याद करते ही हैं
जिन्हें कह डालने की इच्छा घुमड़ती रही है उनके मन में
साल दर साल लगातार.

हांलाकि वे अब यह भांप गए हैं कि
लोग उन विस्मृत वस्तुओं का शायद ही यकीन करेंगे
और उन बचे खुचे शब्दों से जुडी तमाम वस्तुएं
बाती लेकर ढूंढे तो भी मिलेंगी कहाँ?

जैसे कोहरे में किसी अभिशप्त वृक्ष से सट कर खड़े होने की संज्ञा
या कि मैं के लिए क्रिया.
बच्चे उन मुहावरों को अब कभी नहीं दुहरा पायेंगे
जिन्हें बोलते बतियाते गुजर गए उनके माँ बाप
घडी घडी..दिन रात.

जाने किसने उन्हें घुट्टी पिला दी
कि हर बात को नए ढंग से कहने में ही
बेहतरी है आजकल
और इसी तरह उन्हें मिलेगी प्रशंसा और प्रसिद्धि
सुदूर देशों में..
जिन्हें कुछ पता ही नहीं हमारी चीजों के बारे में
ऐसे में उनसे भला कह ही क्या पाएंगे हम.

दरअसल हमें गलत और काला समझती है
नए आकाओं की शातिर निगाहें
कुछ समझ नहीं आता
क्या क्या बकता रहता है उनका रेडियो.
जब कभी दरवाजे पर होती है कोई आहट
सामने खड़ा मिलता है कोई न कोई अचीन्हा
सब जगह...कोनों अंतरों में
जहाँ तैरते होते थे हजार हजार चीजों के नाम
अब पसर गयी है झूठ की काली सी चादर .

कोई भी तो नहीं है यहाँ
जिसने अपनी आँखों देखा हुआ यह सब बदलते हुए
न ही आता है याद किसी को कोई खास वाकया
शब्दों को निर्मित ही इसलिए किया गया था
कि बताएं हमें संभावित परिवर्तनों के बारे में तफसील से...

देखो यही होंगे जरुर किसी कोने में पड़े हुए
वो पंख जिन्हें विलुप्त घोषित किया जा चुका
और यहीं तो कहीं होगी
हमारी खूब जानी पहचानी हुई वो मूसलाधार बारिश.