मंगलवार, जनवरी 18, 2011

सेसिलिया मिरेलेस (Cecilia Meireles) पुर्तगाली कविता

(1901 -1964) प्रसिद्ध ब्राजीली लेखक,कवि,नाटककार और शिक्षाशास्त्री नौ साल की अवस्था से कवितायेँ लिखना शुरू पर पहला संकलन छपने में पंद्रह वर्ष का विलम्ब.अनेक संकलन प्रकाशित.अनेक भाषाओँ में अनुवाद और खुद लोर्का,इब्सेन,रिल्के,पुश्किन और रबीन्द्र नाथ ठाकुर की रचनाओं के अनुवाद किये.बच्चों के लिए विपुल साहित्य रचा और ब्राजील में पहला बाल पुस्तकालय की स्थापना.१९५३ में भारत यात्रा और महात्मा गाँधी पर कविता लिखी...हिंदी और संस्कृत भी सीखी. कैंसर से मृत्यु .
अपना चित्र
मेरा चेहरा ऐसा तो बिलकुल नहीं था
जैसा आज दिख रहा है
इतना गुमसुम
इतना उदास
इतना मरियल
न ही इतनी खोखली थीं मेरी आँखें
और न मेरा मुंह था कभी भी इतना कसैला.
मेरे हाथ इतने शक्तिहीन नहीं थे
इतने सुस्त
इतने ठन्डे
और इतने मुर्दा तो नहीं थे कभी...
मुझे महसूस ही नहीं हुआ
कब हो गया इनमें इतना बदलाव
इतनी आसानी से
और निर्णायक
पलक झपकते सहज ही...
जाने किस दर्पण में
गुम हो गया मेरा चेहरा?

गिटार
तुम चाँदी के खंजर थे
हाँ,चाँदी के खंजर
पर तुम्हें कैसे ठहराऊं मैं
दोषी अपने हाथों को भरमाने का...
तुम्हें चमकते देखा मैंने
पत्थरों के बीच
चाँदी के खंजर
तुम्हारे हैंडिल पर खिल रहे थे मनमोहक फूल
और काया थी चिकनी साँचे में तराशी हुई
बिलकुल नापजोख कर गढ़ी हुई
चाँदी के खंजर
जिससे सीधे सीधे उतर जाएँ मेरे दिल के अंदर
देखते ही...बिना एक पल की देर किये हुए.
मेरे दिल का सबसे बड़ा दर्द क्या है
जानते हो चाँदी के खंजर...
कि देख नहीं सकती कैसे दम तोड़ रही हूँ मैं
पर जानती हूँ बखूबी
कि कौन क़त्ल कर रहा है मुझे.

गीत
मैं अपने सपनों को डालती हूँ एक जहाज में
और ठेल देती हूँ उसको सागर के अंदर
इसके बाद उलट पुलट करती हूँ मैं सागर
जिस से अतल गहराई में समा जाएँ मेरे सपने.
हाँ, मैं गुनगुनाती हूँ गीत
गीत ही हैं मेरे लिए सब कुछ
इसी से होता है रक्तसंचार निरंतर
और यही हैं अनछुई ऊँचाइयों तक उड़ने वाले लययुक्त पंख..
मुझे अच्छी तरह पता है
एक दिन मैं हो जाउंगी गूंगी और चेतनाशून्य
और गुनगुनाना नहीं होगा मेरे लिए मुमकिन.
- चयन और प्रस्तुति : यादवेन्द्र / ए-२४,शांति नगर,रूडकी

मंगलवार, जनवरी 11, 2011

एक शाश्वत नृत्य इसी बासी पृथ्वी पर : अजेय

आर्कटिक वेधशाला में कार्यरत वैज्ञानिक मित्रों के कुछ नोट्स
अजेय भाई की की यह कविता हालाँकि थोड़ी गम्भीरता और कुछ ज्यादा धैर्य की अपेक्षा रखती है। लेकिन मुझे यह कविताबासी पृथ्वीकेतरोताज़ास्वर्ग में रूपान्तरित होने की सम्भावना से भरी लगती है, अपनी दयनीयता को चुनौती देती हुई औरनये नक्षत्रों की दूरियाँनाप पाने का भरोसा दिलाती हुई।


तुम्हारा नहीं होना
इस गुनगुनी धूपवाली सुबह
इस ठाठदारस्नो-रिज़ोर्टमें
तुम्हारा नहीं होना भी
एक विलास है
रोयेंदार कम्बल की सलवटों में डूबा हुआ
टटोलती रहती हैं जिसमें मेरी उंगलियाँ
उन खास चीजों को
रात भर साथ रहते हुए भी जो
सुबह अकसर नदारद होती हैं -
एक सुविधाजनक रिमोट बटन
एक सुकूनबख्श सिगरेट लाइटर
और तुम्हारी यादों को दर्ज करने वाली एक मुलायम पैंसिल
और जो पड़ी रहती है
सटी हुई आपस में
फिर भी अलग-अलग
छिटके हुए गुमशुदा
लगभग
कहाँ हो तुम ?

आज मैं उन तमाम चीजों के सैम्पल लूँगा
दिन निकलते ही जो
बरफ के क्रिस्टलों के बीच
बढ़ते दबाव और दुख की तमाम उम्र बताना शुरू कर देती हैं।

एक ज़िन्दा क्लोरोफिल की जिद में छिपी
मिट्टी के टुकड़ों की खोई हुई महक जाँचूँगा
और यह पता लगाने की कोशिश करूँगा
कि क्या तुम्हारे नहीं होने से ही
शुरू कर दिया था एक दिन
घुलना
उस पूरी हरियाली ने
लहरों ने, हवा ने
और मिट्टी ने
खो जाना
पानी में
और ठोस हो जाना ?

दोपहर तक
तुम्हारा नहीं होना
आद्र्रता के नहीं होने में तब्दील हो गया है
कि द्रवित और गतिशील अंतःकरण के बावजूद
यहाँ हर मौसम का है एक घनीभूत संस्तर
रूखा, कड़ा, ठहरा हुआ
एक मरियल सूरज जिसके क्षितिज में
अपनी पूरी ताकत से चमका है दिन भर
और शेष हो गया है
बिनी किसी के पिघलाए
बेहूदा कोहरे की संपीड़ित परतों में।

साँझ ढलने पर तुम्हारा नहीं होना
एक अलग ही भाव से शुक्र तारे का झिपझिपाना है
मेरे एकान्त को चिढ़ाते हुए
पृथ्वी के अन्तिम छोर पर
इस विराट टेलीस्कोप के अतिरिक्त
तुम्हें नाप लेने के और भी उपकरण हैं मेरे पास
एक से एक शक्तिशाली
छूट ही जाती है फिर भी
कोई एक अपरिहार्य रीडिंग
व्यर्थ हो जाता है दिन भर जुटाए गये आँकड़ों का परिश्रम
गड़बड़ा जाता है सारा समीकरण
रोशनदान के बाहर तैरती हुई
अँधेरी हवाओं के सुपुर्द कर आता हूँ चुपचाप
अपने संभावित आविष्कार की हजारों चिन्दियाँ।

एक शाश्वत नृत्य इसी बासी पृथ्वी पर
क्या तुम्हें पता था
झूमते रहते हैं देर रात तक
खूबसूरतनोर्देन लाइट्स
मटमैले ध्रुवीय आसमान पर
चलता रहता है उत्सव
शून्य से तीस डिग्री नीचे भी ?

इतनी सुन्दर है प्रकृति
और फैली हुई
क्षण-क्षण सैकड़ों रंगों और आकारों में
और भी फैलती हुई
अद्भुत है यह सब
और बला की दुर्लभ
बाहर निकलकर देखा है कभी ?

खोज पाता होगा सदियों में कोई एक
इस गुप्त उत्सव का रहस्य
जो चल रहा है लगातार
जो सुन नहीं पाते हम अपने ही शोर में
जो देख नहीं पाते हम अपने ही सपनों के कारण
आह ! क्या अनुभव है
जागते हुए
खुले में
सन्नाटे में यह सब देख जाना।

इस तरह से सिकुड़े हुए थे हम
कितने दयनीय
परत-दर-परत
बरफ की तरह
अपने दबावों में दबे हुए
बिछुड़े हुए
अपने-अपने गहरे खन्दकों की
अँधूरी भूलभुलैया में
दुबके, अकड़े हुए
जहाँ नरक है, नीचे
वहीं से नापनी थी हम सबको
नये नक्षत्रों की दूरियाँ
खोजनी थी नयी दुनिया

...कौन रुका रहना चाहता था ?
कौन ?

धूप सी बरसती थी
संतप्त हरहराती आकांक्षा
भाप सा उड़ जाता था
इस महान पृथ्वी का तरल सौन्दर्य
कि कूच पर जाना था ऐसे ही एक दिन
मुझे
तुम्हें
हम सबको
सहस्रों आकाशगंगाओं की तलाश में
इस वेधशाला से तेरह अरब प्रकाशवर्ष दूर
जैसे ही अवसर मिले

कौन रुका रहना चाहता था
इस बासी पृथ्वी पर ?
लेकिन ठहरो दोस्त
माफ करना
अपनी युटोपिया पर तुम्हारा पूरा-पूरा हक है
लेकिन मैं यहाँ खलल डालते हुए एक छोटी सी छूट लेना चाहता हूँ
क्या तुम अपने इस अत्याधुनिकडिवाइससे
महान आर्कटिक के काले आसमान पर
प्रक्षेपित कर सकते हो मुझे?
उन सुन्दर धु्रवीय प्रकाशों की पृष्ठभूमि पर
बार-बार उभारना चाहता हूँ
अपनी प्रतिछाया
बादल पर
बिजली और इन्द्रधनुषों की तरह
नाचना चाहता हूँ।

वेगवान तूफान
स्थिर जलमग्न हिमखंड !
उफनते समुद्र !
खामोश सितारो !
मेरे प्रिय साजिन्दो !!
आज की रात तुम खूब बजाना
दिल से
कि रूपान्तरित हो जाना है हम सबको
नाचते हुए
एक तरोताजा स्वर्ग में
इसी बासी पृथ्वी पर।