गुरुवार, जनवरी 06, 2011

साधो! सवाल मूँछों का है : रमेश प्रजापति

साधो!
सवाल प्रेम का तो हरगिज़ नहीं मूँछों का है
जो बची रहनी चाहिए किसी भी क़ीमत पर

कमाल की हैं ये मूँछ भी साधो!
जो उगती है ठीक नाक के नीचे
जब भी सीधा खड़ा होकर कोई बाल
घुसने की जुर्रत करता है नथूनों में
तो छींक से डरकर भाग जाती है काली बिल्ली
काँपने लगते हैं प्रेम की टहनी पर खिले सपनों के फूल

‘ढाई आखर प्रेम’ की आँधी में
टेढ़ा न हो पाये घमंड़ की मूँछों का एक भी बाल
भले ही उड़ जाये जिन्दगी के टाट-टप्पर साधो!

बस इतना भर था उसका कसूर कि उसने
अपने प्रेम में पगी लड़की से प्रेम किया
जिसका हरजाना मूछों के वर्चस्व की पंचायत में
उसकी माँ और बहन की नंगी देह ने भुगता
और मौत की आगोश में सुला दिए जाते हैं प्रेमी-जोड़े

बित्ते भर की गलती पर
(जिसे गलती कहा भी जा सकता है या नहीं)
आज भी ये रौबदार मूँछें

रौंद देती हैं खेतों के बीच मजबूरों की अस्मिता
इस जनतंत्र में छटपटाता रहता है कानून
और सीधी तनी रहती हैं खाप की मूँछें

वर्चस्व की दीवारें हिलने लगी हैं लड़कियों की हँसी से
झोंपड़ियों के बीच से तमतमाता उग रहा है सूरज
हवा के रूख और ऋतुओं के बदलने के साथ ही
मौसम का तासीर भी पहचानो साधो!
पेड़ों की फुनगियों और उदास पगडंडियों पर
बिखर रहे हैं चाँदनी के फूल

जिस समय हत्याओं से थक जाएँगे तुम्हारे हाथ
यातनाघरों की टूटने लगेंगी रस्सियाँ
हाशिए की धमक से हिलने लगेंगी केन्द्र की चूलें
मूसलाधार बारिश में फीके पड़ने लगेंगे क्रूरताओं के पोस्टर
और कबीर के ढाई आखर से गमकने लगेंगे पोखर
उस दिन तनिक ठहरकर सोचना
कि यह कैसी आँधी उठ रही है क्षितिज से
समय का ऊँट बदल रहा है करवट
साधो! दुनिया खुलने लगी है हमारी तरफ
और हम नाक की परवाह किए बिना
कसकर पकड़े हुए हैं अपनी मूँछें

पंख फड़फड़ा रहा है घायल समाजवाद का फ़ाख़ता
कुलबुला रहीं हैं बरसों से काल कोठरी में बंद हवा
शिकारियों और काकरोचों की हँसी
चिपक गई है हलक में
साधो! परिवर्तन के नगाड़े से
फूली नहीं समा रही हैं दिशाओं की छातियाँ
और ढाक के तीन पात की तरह अभी भी
खोखली परम्पराओं का
ख़ौफ़नाक राग अलाप रही हैं घमंड़ी मूँछें।

6 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्कार !
    नव वर्ष कि आप सभी को हार्दिक बधाई .
    सवाल सदा कभी नाक का होता है तो कभी मूछो का , जाने क्यूँ ये मानव के बीच में रहते है , अच्छी कविता , साधुवाद
    आभार !

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  2. कमाल की है यह मूँछ भी सीधी

    और हमारी छुईमुई संवेदनाओं के तो कहने क्या?

    बढ़िया कविता।

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  3. प्रेमी जोड़ियों की ले ली जाती है जान ...
    कि बनी रहे इनकी मुछों की झूठी शान ...
    परिवर्तन विधान है नियति और प्रकृति का , इसे हज़म करना मुश्किल है कुछ लोगों के लिए ..
    संवेदनशील कविता !

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  4. मूँछ की कैसी मरोड़? पूंछ इनकी भी दबी पड़ी है, देख नहीं पा रहे बस। मुज़फ़्फ़रनगरी कवि से तो यूं भी इस कविता की अपेक्षा की ही जानी चाहिए थी।

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