आर्कटिक वेधशाला में कार्यरत वैज्ञानिक मित्रों के कुछ नोट्स
अजेय भाई की की यह कविता हालाँकि थोड़ी गम्भीरता और कुछ ज्यादा धैर्य की अपेक्षा रखती है। लेकिन मुझे यह कविता ‘बासी पृथ्वी’ के ‘तरोताज़ा’ स्वर्ग में रूपान्तरित होने की सम्भावना से भरी लगती है, अपनी दयनीयता को चुनौती देती हुई और ‘नये नक्षत्रों की दूरियाँ’ नाप पाने का भरोसा दिलाती हुई।
तुम्हारा नहीं होना
इस गुनगुनी धूपवाली सुबह
इस ठाठदार ‘स्नो-रिज़ोर्ट’ में
तुम्हारा नहीं होना भी
एक विलास है
रोयेंदार कम्बल की सलवटों में डूबा हुआ
टटोलती रहती हैं जिसमें मेरी उंगलियाँ
उन खास चीजों को
रात भर साथ रहते हुए भी जो
सुबह अकसर नदारद होती हैं -
एक सुविधाजनक रिमोट बटन
एक सुकूनबख्श सिगरेट लाइटर
और तुम्हारी यादों को दर्ज करने वाली एक मुलायम पैंसिल
और जो पड़ी रहती है
सटी हुई आपस में
फिर भी अलग-अलग
छिटके हुए गुमशुदा
लगभग
कहाँ हो तुम ?
आज मैं उन तमाम चीजों के सैम्पल लूँगा
दिन निकलते ही जो
बरफ के क्रिस्टलों के बीच
बढ़ते दबाव और दुख की तमाम उम्र बताना शुरू कर देती हैं।
एक ज़िन्दा क्लोरोफिल की जिद में छिपी
मिट्टी के टुकड़ों की खोई हुई महक जाँचूँगा
और यह पता लगाने की कोशिश करूँगा
कि क्या तुम्हारे नहीं होने से ही
शुरू कर दिया था एक दिन
घुलना
उस पूरी हरियाली ने
लहरों ने, हवा ने
और मिट्टी ने
खो जाना
पानी में
और ठोस हो जाना ?
दोपहर तक
तुम्हारा नहीं होना
आद्र्रता के नहीं होने में तब्दील हो गया है
कि द्रवित और गतिशील अंतःकरण के बावजूद
यहाँ हर मौसम का है एक घनीभूत संस्तर
रूखा, कड़ा, ठहरा हुआ
एक मरियल सूरज जिसके क्षितिज में
अपनी पूरी ताकत से चमका है दिन भर
और शेष हो गया है
बिनी किसी के पिघलाए
बेहूदा कोहरे की संपीड़ित परतों में।
साँझ ढलने पर तुम्हारा नहीं होना
एक अलग ही भाव से शुक्र तारे का झिपझिपाना है
मेरे एकान्त को चिढ़ाते हुए
पृथ्वी के अन्तिम छोर पर
इस विराट टेलीस्कोप के अतिरिक्त
तुम्हें नाप लेने के और भी उपकरण हैं मेरे पास
एक से एक शक्तिशाली
छूट ही जाती है फिर भी
कोई एक अपरिहार्य रीडिंग
व्यर्थ हो जाता है दिन भर जुटाए गये आँकड़ों का परिश्रम
गड़बड़ा जाता है सारा समीकरण
रोशनदान के बाहर तैरती हुई
अँधेरी हवाओं के सुपुर्द कर आता हूँ चुपचाप
अपने संभावित आविष्कार की हजारों चिन्दियाँ।
एक शाश्वत नृत्य इसी बासी पृथ्वी पर
क्या तुम्हें पता था
झूमते रहते हैं देर रात तक
खूबसूरत ‘नोर्देन लाइट्स’
मटमैले ध्रुवीय आसमान पर
चलता रहता है उत्सव
शून्य से तीस डिग्री नीचे भी ?
इतनी सुन्दर है प्रकृति
और फैली हुई
क्षण-क्षण सैकड़ों रंगों और आकारों में
और भी फैलती हुई
अद्भुत है यह सब
और बला की दुर्लभ
बाहर निकलकर देखा है कभी ?
खोज पाता होगा सदियों में कोई एक
इस गुप्त उत्सव का रहस्य
जो चल रहा है लगातार
जो सुन नहीं पाते हम अपने ही शोर में
जो देख नहीं पाते हम अपने ही सपनों के कारण
आह ! क्या अनुभव है
जागते हुए
खुले में
सन्नाटे में यह सब देख जाना।
इस तरह से सिकुड़े हुए थे हम
कितने दयनीय
परत-दर-परत
बरफ की तरह
अपने दबावों में दबे हुए
बिछुड़े हुए
अपने-अपने गहरे खन्दकों की
अँधूरी भूलभुलैया में
दुबके, अकड़े हुए
जहाँ नरक है, नीचे
वहीं से नापनी थी हम सबको
नये नक्षत्रों की दूरियाँ
खोजनी थी नयी दुनिया
...कौन रुका रहना चाहता था ?
कौन ?
धूप सी बरसती थी
संतप्त हरहराती आकांक्षा
भाप सा उड़ जाता था
इस महान पृथ्वी का तरल सौन्दर्य
कि कूच पर जाना था ऐसे ही एक दिन
मुझे
तुम्हें
हम सबको
सहस्रों आकाशगंगाओं की तलाश में
इस वेधशाला से तेरह अरब प्रकाशवर्ष दूर
जैसे ही अवसर मिले
कौन रुका रहना चाहता था
इस बासी पृथ्वी पर ?
लेकिन ठहरो दोस्त
माफ करना
अपनी युटोपिया पर तुम्हारा पूरा-पूरा हक है
लेकिन मैं यहाँ खलल डालते हुए एक छोटी सी छूट लेना चाहता हूँ
क्या तुम अपने इस अत्याधुनिक ‘डिवाइस’ से
महान आर्कटिक के काले आसमान पर
प्रक्षेपित कर सकते हो मुझे?
उन सुन्दर धु्रवीय प्रकाशों की पृष्ठभूमि पर
बार-बार उभारना चाहता हूँ
अपनी प्रतिछाया
बादल पर
बिजली और इन्द्रधनुषों की तरह
नाचना चाहता हूँ।
ओ वेगवान तूफान
ओ स्थिर जलमग्न हिमखंड !
ओ उफनते समुद्र !
ओ खामोश सितारो !
मेरे प्रिय साजिन्दो !!
आज की रात तुम खूब बजाना
दिल से
कि रूपान्तरित हो जाना है हम सबको
नाचते हुए
एक तरोताजा स्वर्ग में
इसी बासी पृथ्वी पर।
कविताओं में कुछ तलाशती हुई पुकार की प्रतिध्वनियाँ सुनाई दे रही हैं। अभिव्यक्ति जटिल है लेकिन संवेदना को छू रही हैं दोनों कविताएँ।
जवाब देंहटाएंवैश्वीकरण के इस भयावह समय में जहाँ दिन-प्रतिदिन धरती का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। प्रकृति के प्रति मनुष्य की रागात्मकता विलुप्त हो रही है। ऐसे में ये कविताएँ अपनी पूरी संवेदनाओं के साथ धरती और प्रकृति को बचाए रखने के लिए संकल्पबद्ध दिखाई देती हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएंइस बासी पृथ्वी पर...
जवाब देंहटाएंबेहतर कविताएं...
* अजेय की इन कविताओं को कई बार कई तरीके से पढ़ गया हूँ और हर बार कुछ कहने से पहले चुप्पी चाहने लगता हूँ।आज और भी भी चुप ही रहना चाहता हूँ कविता और सचमुच अच्छी कविता(यें) पढ़कर आने भीतर के रिजोनेंस को कर्च करना एक त्वरित सा काम होता अक्सर मेरे वास्ते!
जवाब देंहटाएं** शुक्रिया दोस्त !
अरे ऐसा क्या, भाई ? मैं खुश हुआ हूँ.
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