शनिवार, नवंबर 26, 2011

पगडंडियाँ बनाता प्रेम : चार कविताएँ

प्रेम
एक शरारती
जंगली खरगोश
अपनी झलक-भर दिखाकर
छिप जाता
खो जाता - अन्तर्बाह्य के विस्तारों में
एक चाह कि छू लें उसे।

बना लेना चाहते हैं
उसकी नर्म खाल के गर्म दस्ताने।
बरसों
वह थकाता
पर अन्ततः दबोच लिया जाता
सहलाया जाता - दोहराए जाते स्पर्श
बिना जाने, बिना देखे
उसका काला पड़ता हुआ रंग।


पगडंडियाँ बनाता प्रेम
पगडंडियाँ बनाता है प्रेम
पगडंडियाँ
जो पहुँचती हैं
नदी तक
नदी
जिसमें पगडंडियाँ नहीं होतीं।


बहुत दिनों बाद
पत्थरों का सीना चीरकर
अँकुरा आया है चीड़
तुम्हारी याद आयी।


तुम्हारी रोशनी में
आकाश का कुछ खो गया है
जिसे वह ढूँढ़ रहा है सदियों से
सूरज की रोशनी में

मैं तुम्हारी रोशनी में
ढूँढ़ता हूँ
अपना चेहरा।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचनायें।

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  2. साधु-साधु
    अतिसुन्दर

    प्रेमपुर्ण रचना

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  3. कोमल मन की संवेदनाओं से साक्षात् अनुभूति होती है इन कविताओं को पढ़कर

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  4. prem ko chahe jitne rupon men paribhashit karen,har bar yah naya hi lagta hai...lambi khamaoshi ka behad sunadr ant kiya hai parmindar bhai aapne...behtareen kavitayen...shukriya...

    yadvendra

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  5. Pramendra bhaii, kavitayen bahut achhe lageen. priy kavitayen

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