रविवार, अक्तूबर 17, 2010

खण्डहर



जिस ओर से और जिस छोर से तुम देख रहे हो वह छाया है किसी खंडहर की जो तुम्हें किसी मुकुट धारे/सँभाले धीरोदात्त की लग रही है। रोशनी का कोण बदला तो हो सकता है कि उसका एक हाथ तलवार की मूठ थामे और दूसरा मूँछ ऐंठता दिखाई दे जाए। छायाओं में इतने विवरण की गुंजाइश नहीं रहती, तभी तो कल्पना की संभावना बनी रहती है और कल्पना की क्या कहें, कई बार तो कल्पनाएँ कभी मिथक और कभी-कभी तो इतिहास तक बन जाती हैं और फिर उस इतिहास के खंडहर भी कहीं न कहीं ढूँढ़ लिए जाते हैं। खण्डहरों की छाया से कतई दिखायी नहीं देता गाँवों का जलना और हाथों का कटना। इतिहास के खंडहर इतिहास से उतने ही अलग हैं जितनी अलग हैं खंडहर से उसकी छायाएँ जो कल्पना की सम्भावनाओं से भरी हैं। अक्सर ऐसा होता है कि हम पुष्ट इतिहास उपलब्ध न होने से खंडहर से काम चला लेते हैं और यदि थोड़ी जल्दी है तो परछाई जिस कोण से हम देख रहे हों, हमारे लिए पर्याप्त रहती है। हालाँकि रोशनी का कोण बदलते ही बड़ी-बड़ी इमारतों की छायाएँ भी बौनी लगने लगती हैं।

4 टिप्‍पणियां:

  1. छायाओं में विवरण की गुंजाईश नहीं रहती
    तभी तो कल्पना की संभावना बनी रहती है ...
    और कल्पनाएँ कभी कभी इतिहास बन जाती हैं

    किसी ऐतिहासिक सत्य की ओर
    इशारा करता हुआ यह अनुपम आलेख
    किसी धरोहर से कम नहीं है
    खंडहर से काम चला लेना...
    इंसान की प्रवृति में शामिल है ही
    और यह प्रक्रिया
    इतिहास के पन्नों में मिल जाया करती है

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
    भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोsस्तु ते॥
    विजयादशमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

    काव्यशास्त्र

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  3. संकीर्णताओं की वर्जनाओं को तोड़ते हुए आपने छाया के माध्यम से जीवन की वास्तविकताओं से अवगत कराया है। आदमी के अंदर मनुष्य को बचाए रखने की सार्थकता ,सदिच्छा निहित है। खण्हहरों की छाया उस वैभवशाली मानसिकता की ओर इंगति करती है गाँव का जलना और सृृजन करते हाथों का कटना उसके लिए कोई मायने नहीं रखता है। अच्छी कविता के लिए, बधाई।

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  4. कविता खण्डहर के माध्यम से बहुत कुछ कह जाती है।

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