सोमवार, मई 31, 2010
ओस में भीगे पल (सुरेन्द्र कुमार वत्स की ग़ज़लें)
‘ख्यालों में तिलमिलाने और होश आते ही गिड़गिड़ाने’ का शर्मनाक यथार्थ और ‘उसको पास बिठाये रखने’ की रोमानी ख़्वाहिश, दोनों की मिली-जुली अभिव्यक्ति सुरेन्द्र कुमार वत्स की ग़ज़लों की ख़ासियत है। यही वजह है कि उबलते लहू की पुरजोश रवानी और नन्हे खरगोश की तरह सहमेहुए-से दिल की धड़कन इन गजलों में बार-बार दिखायी-सुनायी देती है।
गहरी संवेदनशीलता और बौद्धिकता, वैयक्तिकता और सामाजिकता का अनूठा सामंजस्य, नये रदीफ़ों का प्रयोग, परम्परागत तुकान्तों के साथ नये तुकान्तों की खोज की ललक इन ग़ज़लों में देखी जा सकती है।
हिन्दी-उर्दू के झगड़े के बारे में उनका सीधे-सीद्दे कहना है -
है अजूबा लड़ रही हैं हिन्दी-उर्दू आज भी,
जुल्म के साये तले सब हो चुके हैं बेजुबाँ।
उनके इसी जज्बे को सलाम करते हुए इस पेश हैं उनकी पांच ग़ज़लें -
1
यादों के बादल भेजे थे, पहुँचे होंगे।
ओस में भीगे पल भेजे थे, पहुँचे होंगे।
अधर काँपते, भीगी पलकें, पीली साड़ी,
गेंदा और पीपल भेजे थे, पहुँचे होंगे।
माँ ने जी का हाल छुपा बिटिया को लिक्खा,
सोने के कुण्डल भेजे थे, पहुँचे होंगे।
सीमा से आनेवाली नदिया लोहित है,
हमने दल-के-दल भेजे थे, पहुँचे होंगे।
पाहुन की चिठिया पढ़ मैंने, बिटिया मेरी,
बाबा तब निर्जल भेजे थे, पहुँचे होंगे।
तुमने उलझे प्रश्नों की भेजी थी गठरी,
हमने बस कुछ हल भेजे थे, पहुँचे होंगे।
2
सीख न पाये दुनियादारी हम साहेब।
जीते रहने की लाचारी हम साहेब।
हम तो हम हैं आखिर तुम तो तुम ठहरे,
कैसे कर लें तुमसे यारी हम साहेब।
तुम अपने हथियार डालकर बैठ गये,
अब लेते हैं ज़िम्मेदारी हम साहेब।
खाकर रोटी दो, लेते अँगड़ाई जब,
तब पड़ते हैं तुम पे भारी हम साहेब।
3
सुकूते-ख़ौफ़ तारी।
बता अब किसकी बारी।
न पूछो ज़िन्दगी क्या,
मुसलसल बेक़रारी।
कहीं दिन में अँधेरा,
कहीं रातें ख़ुमारी।
अभी मसले बहुत हैं,
सुनेंगे फिर तुम्हारी।
किसी का शौक़ ठहरा,
किसी की ज़िम्मेदारी।
मशक़्क़त - दर - मशक़्क़त,
यही क़िस्मत हमारी।
-4-
वो ख़्यालों में तिलमिलाता है।
होश आते ही गिड़गिड़ाता है।
है अजीब इसकी दास्तान सुनो,
भूख लगने पे भूख खाता है।
उसको पागल कहा है दुनिया ने,
चोट लगती है, खिलखिलाता है।
उसको बच्चों की फिक्र है शायद,
दिल में ‘ना’ और सिर हिलाता है।
ज़िन्दगी से ख़फ़ा हुआ है क्या,
जो नज़र से नज़र मिलाता है।
-5-
कैसा साहिल !
सो जा, ऐ दिल।
चहल-पहल, पर
सूनी महफ़िल।
खुदा के जैसी,
अपनी मंज़िल।
हम बच्चे हैं,
तारे झिलमिल।
हमीं मरें और,
हम ही क़ातिल।
चूहों के घर
साँपों के बिल।
मरना आसाँ,
मरना मुश्क़िल।
फ़ाज़िल तुम हो,
तुम ही कामिल।
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बेहद खूबसूरत गजलें। सुरेन्द्र जी का अंदाजे-बयाँ गजब का है। ‘ओस में भीगे पल’ कविता की सुन्दर बानगी है - पूरी तरह संवेदित।
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