शनिवार, मई 29, 2010
चीख़ से उतरकर (मलयज की कविता)
मेरे हाथ में एक कलम है
जिसे मैं अक्सर ताने रहता हूँ
हथगोले की तरह फेंक दूँ उसे बहस के बीच
और धुँआ छँटने पर लड़ाई में कूद पड़ूँ
- कोई है जो उस वक़्त मेरे घुटने से बहते रक्त की
तरफ़ इशारा कर न कहे कि
शान्ति रखो, सब यूँ ही चलता रहेगा?
और जब मैं घुटती हुई चीख को शब्दों में
जबरदस्ती ढकेलते हुए कहूँ, क्या आप मेरा साथ देंगे,
बहस में नहीं, लड़ने में
तो मेरी नज़र मेरी जेब पर न होकर
मेरे चेहरे पर हो?
आसपास खुलती हुई खीसों में
इतनी संवेदना है
कि एक पत्ती की उद्धत तनहाई हिलती हुई
तोंद के हवाले हो जाती है
और बहस के लिए अन्याय के खिलाफ़ लड़ाइयाँ नहीं
बिना अक्षर की
एक पीली दीवार रह जाती है
फिर भी उन्हें डर है कि आज जो
शब्द-उगलती क्यारियों की छटा है, सेंतमेंत है
कल ज़मीन का जलता तिनका बन जाएगी
और एक ख़ूनी लहर जो
पत्रिकाओं के सतरंगे मुखपृष्ठों पर
घूँसे तानती हर कुर्सी की बगल में
सटकर बैठ जाती है
काला झंडा उठाएगी
जबकि चिरी हुई दीवार की ओट मंे खड़े
उनके आँसुओं के पीछे
धूल में पिटते नंगे चेहरों को धोता
कँटीला घड़ियाल है
कीचड़ में पद्म-श्री सूँघता हुआ
और प्रतीकों की जकड़ जहाँ ख़ून में मिली हुई
दूर तक उभड़ती चली गयी है उस दुर्घटना में
- कोई है जो मेरे बदहवास निहत्थेपन को सिर्फ़ मेरा
कुचला हुआ सौन्दर्यबोध न कहे
और जब मेरी चुप चीख से उतरकर
हाथ-पाँव की हरक़त में बदल जाए
तो उसे पिछड़ेपन की छटपटाहट नहीं, चीजों को
तोड़ने का इरादा समझे ?
मलयज की यह कविता उनके कविता-संग्रह ‘अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ’ से जो कि संभावना प्रकाशन, हापुड़ से 1980 प्रकाशित हुआ था। यह संकलन लम्बे समय से अप्राप्य है। एक जीर्णशीर्ण प्रति श्री अशोक अग्रवाल जी के सौजन्य से प्राप्त हुई, उसी से साभार यह कविता पोस्ट कर रहा हूँ
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"जबकि चिरी हुई दीवार की ओट मंे खड़े
जवाब देंहटाएंउनके आँसुओं के पीछे
धूल में पिटते नंगे चेहरों को धोता
कँटीला घड़ियाल है
कीचड़ में पद्म-श्री सूँघता हुआ
और प्रतीकों की जकड़ जहाँ ख़ून में मिली हुई"
धन्यवाद् - शुभकामनाएं
बहुत अच्छा। ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है। ऐसे ही कलम को धार देते रहिए?
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