बुधवार, मार्च 23, 2011

नाजिम हिकमत का वसीयतनामा : प्रस्तुति - यादवेन्द्र

नाजिम हिकमत ने जेल में रहते हुए अपनी पत्नी और बेटे के लिए ढेर सारी नायाब कवितायेँ लिखी हैं. कुछ समय पहले बेटे को लिखी ऐसी ही एक कविता मैंने साथी पंकज पाराशर के ब्लॉग khwabkadar.blogspot.com के लिए प्रस्तुत की थी.इसी कड़ी में यहाँ प्रस्तुत है बेटे के लिए लिखी गयी एक अन्य कविता :
(प्रस्तुति : यादवेन्द्र)
मैं इस वक्त एक किताब पढ़ रहा हूँ
तुम इसके अंदर घुस कर बैठे हो.
मैं एक गीत सुन रहा हूँ
तुम इसके अंदर भी विराजमान हो.
मैं रोटी खाने बैठा हूँ
तुम मेरे सामने बैठे साक्षात् दिख रहे हो.
मैं काम में जुट जाता हूँ
तुम कहीं से आ कर मेरे सामने बैठ जाते हो..
तुम हर जगह मौजूद हो
मेरे सर्वव्यापी प्यारे...
पर हम एक दूसरे से बात नहीं कर सकते
न ही हम एक दूसरे की आवाज सुन सकते हैं...
जैसे तुम मेरी विधवा हो
महज आठ साल की उम्र वाली.

मैंने हाल में नाजिम हिकमत की कवितायेँ पढ़ते हुए उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की कोशिश कर रहा था तभी उनका वसीयतनामा पढने को मिला.इस विश्व कवि के लिखे इस मार्मिक पर अद्भुत दस्तावेज को पढ़ कर मैं इतना उत्तेजित हूँ कि इसे आप सब के साथ साझा करने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ...

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कामरेड, यदि मैं उस दिन तक जीवित नहीं बचा....मेरा मतलब है कि देश को आज़ादी मिलने से पहले ही यदि मैं मर गया तो मुझे ले जा कर अनातोलिया के किसी गाँव की कब्रगाह में दफ़न कर देना.
हसन बे ने जिस मजदूर उस्मान को गोली से उड़ाने का हुकुम दिया था उसको मेरे बगल में एक तरफ और शहीद आयशा को दूसरी तरफ लिटा देना जिसने बच्चे को जन्म देने के चालीस दिन बाद दम तोड़ दिया था.
इस कब्रगाह के समीप से होकर सुबह के झुटपुटे में ट्रेक्टर निकलेंगे और गीत गूंजेंगे-वहां होंगे नए नए लोग बाग़,जले हुए पेट्रोल की गंध, दूर दूर तक फैले खेत,पानी से लबालब भरी नहरें और अकाल और आतंक से मुक्त उल्लास...
मैंने तो कागज पर उतारने से पहले ही गाये थे ऐसे गीत और ट्रेक्टरों के उत्पादन के नक़्शे बनें इस से पहले ही सूंघ ली थी जले हुए पेट्रोल की गंध...
मेरे पड़ोसियों--मजदूर उस्मान और शहीद आयशा-- को जीने की बहुत ललक थी,हांलाकि इसका भान शायद उन्हें ठीक से नहीं था...
कामरेड,यदि मैं उस दिन तक जीवित नहीं बचा--अब मेरे मन में ये धारणा धीरे धीरे जड़ जमाती जा रही है--तो मुझे ले जा कर अनातोलिया के किसी गाँव के कब्रिस्तान में दफ़न कर देना...यदि मेरे सिर से लगा कर कोई सीधा तना हुआ वृक्ष रोपा जा सके तो वहां रखने के लिए न तो मुझे पत्थर चाहिए ... न ही कुछ और...
(२७ अप्रैल १९५३,मास्को)

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