बुधवार, दिसंबर 22, 2010

कल नहीं रहेगी देह

कल
नहीं रहेगी देह
अधूरे स्वप्न भी झर जाएँगे
एक तारा टूटेगा
मगर आकाश भरा रहेगा
आकाशगंगाओं से
अप्रतिहत घूमती रहेगी धरती
अपनी धुरी पर
अक्षाशों और देशान्तरों के माथे पर
एक शिकन तक न आएगी

घर से आखिरी बार निकलेंगे
तैयार होकर
अपनी मौलिक बेचैनियों को
विराम देते हुए।

13 टिप्‍पणियां:

  1. परमजीत जी नश्वर देह की व्याख्या बिम्ब के माध्यम से ख़ूबसूरती से व्यक्त किया है..

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  2. परमेन्द्र जी मुझे अच्छी लगी यह कविता…ख़ासतौर पर अंतिम पंक्ति

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  3. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (23/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
    http://charchamanch.uchcharan.com

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  4. घर से आखिरी बार निकलेंगे
    तैयार होकर
    अपनी मौलिक बेचैनियों को
    विराम देते हुए।
    परमेन्द्र जी नमस्कार !
    सुंदर कविता के लिए आप को साधुवाद , ये पंक्तियाँ अधिक पसंद आई मुझे .
    सादर

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  5. अंतिम सत्य कहें या प्रथम सत्य , पर सत्य तो यही है जिसे हम सब पूरी जिंदगी जानते रहते हैं । अच्छा पिरोया है आपने भी पंक्तियों में । शुभकामनाएं ।

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  6. शाश्वत सत्य .... अंतिम चार पंक्तियाँ मन को छू गयीं

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  7. वाह...क्या बात कही है आपने....

    रचना के चिंतन, भाव और बिम्ब सौन्दर्य ने मुग्ध कर लिया...

    बेहतरीन रचना...

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  8. इस दूभर होते समय में जीवन की समस्त विद्रूपताओं और विडम्बनाओं के बीच संवेदनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए आपको बधाई।

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