कल
नहीं रहेगी देह
अधूरे स्वप्न भी झर जाएँगे
एक तारा टूटेगा
मगर आकाश भरा रहेगा
आकाशगंगाओं से
अप्रतिहत घूमती रहेगी धरती
अपनी धुरी पर
अक्षाशों और देशान्तरों के माथे पर
एक शिकन तक न आएगी
घर से आखिरी बार निकलेंगे
तैयार होकर
अपनी मौलिक बेचैनियों को
विराम देते हुए।
परमजीत जी नश्वर देह की व्याख्या बिम्ब के माध्यम से ख़ूबसूरती से व्यक्त किया है..
जवाब देंहटाएंपरमेन्द्र जी मुझे अच्छी लगी यह कविता…ख़ासतौर पर अंतिम पंक्ति
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (23/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
घर से आखिरी बार निकलेंगे
जवाब देंहटाएंतैयार होकर
अपनी मौलिक बेचैनियों को
विराम देते हुए।
परमेन्द्र जी नमस्कार !
सुंदर कविता के लिए आप को साधुवाद , ये पंक्तियाँ अधिक पसंद आई मुझे .
सादर
अंतिम सत्य कहें या प्रथम सत्य , पर सत्य तो यही है जिसे हम सब पूरी जिंदगी जानते रहते हैं । अच्छा पिरोया है आपने भी पंक्तियों में । शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंशाश्वत सत्य .... अंतिम चार पंक्तियाँ मन को छू गयीं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर, बेहतरीन रचना !
जवाब देंहटाएंवाह...क्या बात कही है आपने....
जवाब देंहटाएंरचना के चिंतन, भाव और बिम्ब सौन्दर्य ने मुग्ध कर लिया...
बेहतरीन रचना...
हृदयस्पर्शी रचना!
जवाब देंहटाएंइस दूभर होते समय में जीवन की समस्त विद्रूपताओं और विडम्बनाओं के बीच संवेदनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंek shaaswat satye ko sunder prabhaavshali shabdo ka chayan diya hai.
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है ।
जवाब देंहटाएं