
खुरदुरे पैर
- नागार्जुन (1961)
खुब गए दूधिया निगाहों में फटी बिवाइयों वाले खुरदुरे पैर
धंस गए कुसुम कोमल मन में गुट्टल घट्ठों वाले कुलिश कठोर पैर
दे रहे थे गति रबर विहीन ठूंठ पैडलों को
चला रहे थे एक नहीं दो नहीं तीन तीन चक्र
कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को
नाप रहे थे धरती का अनहद फासला
घंटों के हिसाब से ढोए जा रहे थे .
देर तक टकराए उस दिन इन आँखों से वो पैर
भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयाँ ....
खुब गयी दूधिया निगाहों में
धंस गयी कुसुम कोमल मन में.
साईकिल रिक्शा
- रघुवीर सहाय (1989)
यह महज सुनने में लगता है साम्यवाद
हम अपने घोड़े को इंसान भी समझें
ख़ास तौर से जब वह सचमुच इंसान हो .
ग्लानि से भर कर रिक्शे से उतर पड़ें
पछ्ताएं क्यों उसकी रोजी ली
फिर तरस खा कर बख्शीश दें .
तीनों परिस्थितियों में हम हैं लदे हुए ,वह हमें ढ़ोता है.
सिर्फ ढुलाई पर दोनों झगड़ते हैं
हैसियत उनकी बराबर हो जाती है.
आओ इक्कीसवीं सदी के इंजीनियर
ईजाद साईकिल रिक्शा ऐसी करें
जिस में सवारी और घोड़ा अगल बगल
तफरीहन बैठे हों.
मगर आप पूछेंगे इस से क्या फायदा ?
वह यह कि घोड़े को कोई मतभेद हो
पीछे मुँह मोड़ कर पूछना मत पड़े .
प्रस्तुति; यादवेन्द्र